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पंजाब के बचने और देश की राजनीति में विषफल पनपने से रोकने का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
विगत जुलाई महीने में पंजाब के कुछ नगरों के प्रवास के बाद देश के दो प्रमुख अग्रणियों से पंजाब के संदर्भ में अपनी बातचीत में मैंने अपने कटु और विषण्णकारी अनुभव साझा किए थे। मुझे ऐसा लग रहा था कि किसान आंदोलन की आड़ में पंजाब में सामाजिक विघटन का दुश्चक्र सफल हो सकता है। इसलिए मुझे लग रहा था कि किसान आंदोलन किसी भी हाल में लंबा नहीं खिंचना चाहिए।
पंजाब देश की अन्नदाता भूमि, रक्षक भुजा और धर्म दंड है। लेकिन राजनीति ने पंजाब को हमसे बहुत दूर पहुंचा दिया, जहां आज पाकिस्तानी 'चिट्टा' (नशीले पदार्थ), माफिया और राजनेताओं का खुला गठजोड़, कनाडा से कराची तक के खालिस्तानी धन-हथियारों और सिख-मुस्लिम मैत्री के आवरण में घुसपैठ, चर्च के माध्यम से आक्रामक धर्मांतरण को संरक्षण तथा मृतप्रायः कम्युनिस्ट पार्टी का किसान मुखौटे में पुनरुज्जीवन किसी भी सरकार के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि मेरे विदग्ध हृदय की वाणी किसी ने कहीं सुनी। ये बातें पंजाब के राष्ट्रीय विचारधारा के लाखों कार्यकर्ताओं के मन को भी विदीर्ण कर रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र रक्षा के लिए तात्कालिक जय-विजय को छोड़ दिया। जो बेल विषैले तत्वों को अपने साथ लिपट कर आगे बढ़ने का अवसर दे, भली होते हुए भी उसे हटा देना विवेकपूर्ण निर्णय होता है। यदि यह निर्णय पहले लिया गया होता, तो निश्चित तौर पर और भी अच्छा होता।
किसान आंदोलन के लंबा खिंचने से पंजाब पर विपरीत असर पड़ रहा था। राज्य के उद्योग बाहर जाने लगे थे, शिक्षा चौपट होने लगी थी। देश में सर्वाधिक 'भारत छोड़ो' पंजाब से ही होता है। हर शहर और कस्बे में कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ले जाने के लिए तैयारी करवाने वाले केंद्र ही वस्तुतः आज पंजाब के सबसे बड़े उद्योग बन गए हैं। सार्वजनिक जीवन में सब कुछ श्वेत-श्याम नहीं होता। यदि यह सत्य है कि सभी किसान आंदोलनकारी विघटनवादी नहीं थे, तो यह भी उतना ही सत्य है कि आंदोलन की आड़ में कुछ विघटनकारी घुस आए थे। किसान नेता स्पष्टतः विघटनवादी, अराजक तत्वों के आगे खामोश और उनके दबाव में दिखे। आखिर क्यों? उन पर किसका दबाव था?
अगर पंजाब का दर्द समझना हो, तो आपको फतेहगढ़ साहेब, लुधियाना, मंडी गोबिंदगढ़, जालंधर और अमृतसर जाना होगा। वहां छोटे-छोटे कस्बों के गुरुद्वारों में भिंडरांवाले के चित्र, ग्रामीण अंचलों में एक राजनीतिक हिंसक घृणा तथा उद्योगों के पलायन और फलस्वरूप बढ़ती बेरोजगारी का वातावरण देखकर आप अचंभित हो जाएंगे। पंजाब का खतरा एक प्रदेश का खतरा नहीं, बल्कि भारत की सेना और वीरों के इतिहास पर खतरा है। यह सीमावर्ती अंचल के विदेशी शत्रुओं के हाथों खेलने का खतरा है। कभी जो पंजाब लाला लाजपत राय, मेहर चंद महाजन, सरदार बेअंत सिंह, बलराम जाखड़, डॉ. बलदेव प्रकाश और बलरामजी दास टंडन जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के कारण जाना जाता था, वह प्रदेश आज वस्तुतः नेतृत्व विहीन है। सच तो यह है कि किसान आंदोलन की जीत-हार पंजाब के बचने और नष्ट होने के प्रश्न के सामने अत्यंत गौण है।
तीनों कृषि कानून वापस लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले दरअसल पंजाब को नहीं जानते, वे पंजाब की नब्ज नहीं पहचानते। दिल्ली में बैठे ऐसे ही लोगों ने पंजाब के बारे में गलत निर्णय लेकर उसे ऐसी खतरनाक हालत में पहुंचाया है। मैंने पंजाब के हर क्षेत्र, अंचल और ग्रामीण-शहरी भागों का प्रवास किया है। मैं पंजाब में रह चुका हूं और वहां कार्यकर्ताओं के खून के आंसुओं से रूबरू हुआ हूं। संकीर्ण राजनीति और पाकिस्तानी षड्यंत्र पंजाब के हर क्षेत्र में कठोर कदम उठाने की मांग करते हैं। कृषि कानून वापस लेने से पंजाब के बचने और देश की राजनीति में विषफल पनपने से रोकने का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
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