सम्पादकीय

रूस से तेल खरीदने के फैसले से नाराज अमेरिका भारत को धमकाने से पहले खुद अपने गिरेबां में झांक ले

Rani Sahu
3 April 2022 10:58 AM GMT
रूस से तेल खरीदने के फैसले से नाराज अमेरिका भारत को धमकाने से पहले खुद अपने गिरेबां में झांक ले
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पिछले कुछ हफ्तों में भारत अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) और कई अमेरिकी अधिकारियों के वैश्विक नैतिकता पर व्याख्यान सुनने की अजीब सी स्थिति में है

के वी रमेश

पिछले कुछ हफ्तों में भारत अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) और कई अमेरिकी अधिकारियों के वैश्विक नैतिकता पर व्याख्यान सुनने की अजीब सी स्थिति में है. अपनी गिरती रैंकिंग वाले बाइडेन ने टिप्पणी की कि यूक्रेन (Ukraine) के मामले में भारत कमजोर विकेट पर है.संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में भारत के चार वोट के अलावा रूस से रियायती तेल खरीदने के उसके हालिया फैसले से अमेरिका नाराज है. भारत अपने क्षेत्र से दूर संघर्ष में तटस्था वाले रुख से हटने को तैयार नहीं है.अमेरिकी प्रशासन ने भारत से यूक्रेन, यूरोपियन यूनियन और अमेरिका का पक्ष लेने की मांग की है जैसा कि गुरुवार को अमेरिकी वाणिज्य मंत्री जीना रायमोंडो ने कहा. इसी बात को रूस (Russia)के खिलाफ प्रतिबंधों को तैयार करने वाले अमेरिका के डिप्टी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह ने कठोर शब्दों में रखा.
अमेरिका की पीड़ा को समझा जा सकता है
भारत के अमेरिका के साथ विशेष और रणनीतिक संबंध है. लेकिन जो बात अमेरिका को समझ में नहीं आ रही है वह यह है कि भारत का रुख उसकी सात दशकों से लगातार जारी विदेश नीति के ही मुताबिक है. भारत को रूस के खिलाफ प्रतिबंधों में शामिल करने का पश्चिम का प्रयास एक तरह का पाखंड है. अमेरिका एक व्यापारिक राष्ट्र है और पूंजीवाद में पहला सबक यह है कि "कोई वस्तु मुफ्त में नहीं मिलती." अमेरिका भारत के साथ व्यापार वार्ताओं के दौरान एक कठिन सौदागर रहा है और उसने रियायतें देने से दृढ़ता से इनकार किया है.
अमेरिका ने लगातार भारत और दूसरे विकसित देशों की उस मांग को खारिज कर दिया है जिसमें पश्चिमी देशों ने विकासशील देशों को शून्य कार्बन अर्थव्यवस्था बनाने के लिए 100 अरब डॉलर के अनुदान की प्रतिबद्धता का सम्मान करने को कहा था.अब अमेरिका मांग कर रहा है कि शुद्ध रूप से पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करने वाला देश भारत रूस से बड़ी छूट के साथ मिल रहे तेल को अस्वीकार कर बलिदान दे. भारत एक विकसित देश नहीं है जो यूक्रेन युद्ध के कारण बनी स्थिति का फायदा नहीं उठा कर भी अपनी जगह बना रहे.
अमेरिका के डिप्टी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह की चेतावनी
तेल की कीमतें पहले से ही आसमान छू रही हैं और भारत अपने नागरिकों को पेट्रोलियम पदार्थों के कारण बढ़ती महंगाई से बचाना चाहता है. यह राष्ट्रीय हित में है जिस अवधारणा को भू-राजनीतिज्ञ भली-भांति समझते हैं और सराहना करते हैं. अमेरिका की पीड़ा समझ में आती है मगर क्रोध नहीं. अमेरिका के डिप्टी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह ने भारत के विदेश विभाग के तटस्थ रुख को बदलने के लिए बेहतर तर्क भी नहीं दे सके और एक स्कूली छात्र की तरह धमकी देने लगे. उन्होंने भारत को चेतावनी दी कि चीन के साथ लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर तनाव फिर से शुरू होने की स्थिति में भारत की रूस पर सैन्य उपकरणों की आपूर्ति की निर्भरता एक बड़ी गलती होगी. बगैर किसी सीमा के भारत के साथ सहयोग की बात की याद दिलाने के साथ ही उन्होंने भारत को धमकाया कि अगर एलओसी पर चीन कार्रवाई करता है तो रूस भारत का सहयोग करने नहीं आने वाला.
इस तरह के शब्द आमतौर पर राजनयिक खुले तौर पर नहीं बोलते, सार्वजनिक तौर पर तो बिल्कुल ही नहीं. भले ही बातचीत के दौरान इस तरह की चर्चा होती है मगर उनका प्रचार नहीं किया जाता. लेकिन ऐसा लगा कि अमेरिकी डिप्टी एनएसए ने मीडिया के साथ बातचीत के दौरान टिप्पणी करते हुए दो देशों के बीच घनिष्ठ संबंधों की बारीकियों का उल्लंघन कर दिया हो. लेकिन अगर दलीप सिंह नैतिकतावादी बनना चाहते थे और भारत को तेल की बिक्री से लाभ से संबंधित सौदेबाजी पर व्याख्यान देना चाहते थे तो बेहतर होगा अमेरिका दो विश्व युद्धों के दौरान अपनी मुनाफाखोरी वाले दिन याद कर ले.
दोनों विश्वयुद्धों में अमेरिका ने खूब कमाई की
पहले विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका तीन साल तक संघर्ष को बाहर से देखता रहा जो ज्यादातर अमेरिकियों की चाहत भी थी. 1917 में युद्ध में शामिल होते वक्त राष्ट्रपति वुडरो विल्सन को अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता को दांव पर लगाना पड़ा. तटस्थता की स्थिति से अमेरिका को काफी फायदा हुआ क्योंकि युद्ध के दौरान उसने दोनों ही पक्षों को धातु, खनिज, तेल और वाहन बेचे. निर्यात से उसकी आय 2.4 अरब डॉलर से बढ़कर 6.2 अरब डॉलर हो गई. इसने अमेरिका को लेनदार देश से एक देनदार देश में बदल दिया.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्ध से लाभ उठाकर अमेरिका दुनिया की एकमात्र आर्थिक शक्ति बन गया. उसने 16 महीने बाद युद्ध में हिस्सा लिया. अपनी पुस्तक ट्रेडिंग विद द एनिमी: एन एक्सपोज़ ऑफ़ द नाज़ी-अमेरिकन मनी-प्लॉट 1933-1949 में ब्रिटिश लेखक चार्ल्स हिघम ने स्टैंडर्ड ऑयल के बारे में लिखा है जिसे अब एक्सॉन के रूप में जाना जाता है. फ्रांस में नाजी कब्जे वाले हिस्सों के लिए तेल स्विटजरलैड होते हुए भेजा जाता था. उधर जर्मन सैनिकों को ले जाने वाले ट्रक भी अमेरिकी कंपनी फोर्ड के बनाए होते थे.
युद्धरत दोनों पक्षों से खूब लाभ कमाया अमेरिका ने
अमेरिकी इंजीनियरिंग की दिग्गज कंपनी ITT ने लंदन को तबाह करने वाले रॉकेट बमों का निर्माण किया और बमों को ले जाने वाले फोक-वुल्फ बमवर्षक विमानों का भी. हेनरी फोर्ड और कई दूसरे अमेरिकी कॉर्पोरेट प्रमुख वास्तव में नाजियों से सहानुभूति रखने वाले थे. ब्रिटिश अभिजात वर्ग में भी ऐसे कई थे जिसे उत्कृष्ट फिल्म रिमेंस ऑफ द डे में बखूबी दिखाया गया है.
हिंघम अमेरिकी बैंकर थॉमस मैककिट्रिक के बारे में भी लिखते हैं जो नाजी जर्मनी की स्वामित्व वाले बेसल-बांक फॉर इंटरनेशनल सेटेलमेंट के अध्यक्ष थे. उन्होंने ऑस्ट्रिया, बेलजियम और तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया से चुराए गए अरबों डॉलर के सोने के बिस्कुट रखे. नाजी कंसेंट्रेशन कैंप में मारे गए लोगों के चश्मों के फ्रेम, दांत और अंगूठी से निकाले गए सोने को भी उन लोगों ने जमा किया. हाल के दशकों में अमेरिका ने पश्चिम एशिया के रेगिस्तानों में कई युद्ध छेड़े हैं. इराक, लीबिया और सीरिया जैसे देशों को उसने पाषाण युग में वापस ला दिया है, मगर उन इलाकों से अपने तेल की आपूर्ति सुरक्षित रखी.
ईरान या वेनेजुएला जैसे तेल-समृद्ध देशों ने जब अपनी आपूर्ति को पश्चिमी देशों की जगह अपने हिसाब से अपने फायदे के लिए चलाने के प्रयास किए तो उसका विरोध हुआ. यहां तक ​​​​कि रूस के लिए वर्तमान अमेरिकी प्रतिशोध भी महाद्वीप में गैस की आपूर्ति पर अपनी पकड़ बना कर यूरोप पर अपना प्रभाव कायम रखने की ही अमेरिकी कोशिश है.
सातवें बेड़े को भेजना भारतीय पारंपरिक कथाओं का हिस्सा
बंगाल की खाड़ी में सातवें बेड़े को भेज कर भारत को धमकाने का अमेरिका का प्रयास अब भारतीय पारंपरिक कथाओं का हिस्सा है. यही भारत का रूस के प्रति झुकाव का भी कारण है. भारतीय जनता को इस बात की कम ही जानकारी होगी कि किस तरह अमेरिका ने सच्चाई से आंखें मूंद कर पाकिस्तान को परमाणु बम हासिल करने में मदद की. आम अमेरिकी इसके बारे में काफी शर्मिंदा थे और निजी तौर पर अमेरिका के विदेश मंत्रालय की खामी के बारे में बताया करते थे.
ऐसा लगता है कि आधुनिक युग में अमेरिका के राजनयिकों में प्रतिभा की कमी है. वहां अब न तो स्ट्रोब टैलबोट्स हैं न ही मैडलिन अलब्राइट. वैश्विक राजनीति में दक्षता और भारत जैसे ताकतवर होते हुए प्रजातांत्रिक देश के प्रति संवेदनशीलता अमेरिकी राजनयिकों में अब नहीं देखी जाती. अमेरिका में यह वक्त दलीप सिंह, विक्टोरिया नुलेंड्स और डोनाल्ड लूस जैसे अयोग्य राजनयिकों का है जो समझते हैं कि कूटनीति का मतलब केवल अमेरिका के असाधारणता पर जोर देना है. यह अफ़सोसनाक है.
Rani Sahu

Rani Sahu

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