- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- भाषायी विवाद को आईना...

x
आंध्र प्रदेश जल्द ही देश का पहला अंग्रेजी माध्यम वाला राज्य बन सकता है
एस श्रीनिवासन,
आंध्र प्रदेश जल्द ही देश का पहला अंग्रेजी माध्यम वाला राज्य बन सकता है, यानी यहां के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होगा। मातृभाषा तेलुगु की शिक्षा अनिवार्य जरूर होगी, लेकिन इसे सिर्फ एक भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा। मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने अदालतों के प्रतिकूल फैसले के बावजूद यह निर्णय लिया है। उन्होंने इसके लिए एक प्रचलित रास्ता अपनाया और माता-पिता से बातचीत की। 96 प्रतिशत अभिभावकों ने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम का विकल्प चुना, जबकि तीन फीसदी ने तेलुगु में पढ़ाई कराने पर जोर दिया।
राज्य सरकार का कहना है कि यह फैसला 'बच्चों को 21वीं सदी की चुनौतियों और करियर के अवसरों के लिए तैयार करने के दीर्घकालिक मकसद से लिया गया है'। आंध्र प्रदेश में 63,343 स्कूल हैं, जिनमें से 71.27 फीसदी सरकारी हैं। इनमें से ज्यादातर स्कूल पहले से ही अंग्रेजी में शिक्षा दे रहे हैं। अब यह छिपा तथ्य नहीं है कि जो बच्चे अंग्रेजी में शिक्षा पाते हैं, उनकी आय अधिक होती है और उनको जीवन में अवसर भी ज्यादा मिलते हैं। यह बेरोजगारी के खतरे को भी कम करता है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि अधिकारी संवर्ग और अच्छी तनख्वाह वाली ज्यादातर नौकरियों में संवाद के लिए अंग्रेजी भाषा की जरूरत पड़ती है। अब तो समाज के हाशिये के लोग भी यही चाहते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेजी में शिक्षित किए जाएं, क्योंकि वे इसे बेहतर भविष्य की राह मानते हैं।
ऐसा सिर्फ दक्षिण में ही नहीं दिखता। उत्तर भारत में भी लोग यही चाहते हैं। केंद्र सरकार की 2019-20 की यूडीआईएसई रिपोर्ट में देश भर के 15 लाख से अधिक स्कूलों में प्राथमिक से सीनियर सेकेंडरी तक के 26.5 करोड़ बच्चों पर अध्ययन करके बताया गया है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम चुनने वाले बच्चों के अनुपात में सबसे अधिक वृद्धि हरियाणा में हुई है। वहां साल 2014-15 में 27.6 फीसदी छात्रों की तुलना में 2019-20 में 23 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, यानी यहां 50 फीसदी से अधिक बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं।
इसी सर्वे के मुताबिक, तेलंगाना ने 2014-15 की तुलना में 21.7 फीसदी की छलांग लगाई और यहां के करीब 74 फीसदी बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं। दिलचस्प है कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में तेलुगु माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों का अनुपात सबसे कम है। आंध्र प्रदेश में एक तिहाई से भी कम बच्चे तेलुगु माध्यम से पढ़ाई करते हैं, जबकि केरल में मलयालम में पढ़ाई करने वाले बच्चों का प्रतिशत 35 है।
तमिलनाडु जैसे राज्य में भी, जहां पर पहचान की राजनीति मातृभाषा तमिल के ईद-गिर्द घूमती है, शिक्षा का पसंदीदा माध्यम अंग्रेजी है। वर्ष 2014-15 में यहां के 42.6 फीसदी बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ले रहे थे, जिनका आंकड़ा 2019-20 में 57.6 फीसदी हो गया। कर्नाटक में भी 2014 से 2019 के बीच अंग्रेजी माध्यम को चुनने वाले बच्चों में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साफ है, जगनमोहन रेड्डी का लक्ष्य सीधा है। बेशक, तेलुगु माध्यम को खत्म करने की प्रक्रिया अब औपचारिक रूप से शुरू की जा रही है, पर यह चलन तो कई साल पहले ही शुरू हो चुका है। इसीलिए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले तीन-चार वर्षों में यहां की प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से अंग्रेजी माध्यम से दी जाने लगेगी, जिसका सीधा असर माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों पर पड़ेगा।
इससे शिक्षाविदों को जरूर परेशानी हो रही होगी, क्योंकि अधिकांश अध्ययनों से पता चला है कि बच्चों को जब मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है, तब कहीं बेहतर नतीजे मिलते हैं। हालांकि, पूरे भारत में अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों का प्रसार हुआ है, फिर भी शिक्षक शायद ही अंग्रेजी में बात करते हैं। वहां पठन-पाठन अमूमन मातृभाषा में ही होता है। कुछ कक्षाओं में तो अंग्रेजी को भी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है। फिर भी, सच यही है कि मध्यवर्ग का एक बड़ा तबका इस तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। दिल्ली में ही 60 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है।
दलित-अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले कांचा इलैया ने जगनमोहन के इस कदम का स्वागत करते हुए लिखा है कि यह उनके चुनावी वादों में से एक है और इसे पूरा किया जाना चाहिए। वह लिखते हैं, अगर ग्रामीण निम्न वर्ग के गरीब बच्चों के अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने से तेलुगु भाषा मर जाएगी, तो यह तब क्यों नहीं मरती, जब अमीर घरों के बच्चे सिर्फ अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं? महज अंग्रेजी में पढ़ाई करके वे राज्य और राष्ट्र के मुखिया कैसे बन सकते हैं? अपनी बात स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं, जगनमोहन रेड्डी से लेकर अखिलेश यादव, निर्मला सीतारमण, नारा लोकेश, केटी रामाराव, सचिन पायलट, आदित्य ठाकरे तक तमाम नेताओं ने अंग्रेजी माध्यम में अपनी शिक्षा हासिल की है। क्या गांवों के गरीब व निचली जाति के नौजवानों को उनकी तरह बनने का सपना नहीं देखना चाहिए?
यह भाषायी उग्र-राष्ट्रीयता या पहचान के रूप में भाषा-आधारित राजनीति करने संबंधी प्रवृत्ति के विपरीत है। इसकी वजह यही है कि भारतीय समाज स्वयं विकसित हुआ है और वर्षों से भारत की शिक्षा नीति भाषाओं को लेकर सफल साबित नहीं हो पाई है। हाल में जब केंद्रीय गृह मंत्री ने केंद्र सरकार की आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को अंग्रेजी का विकल्प बनाने की बात कही, तो गैर-हिंदीभाषी राज्यों, विशेषकर दक्षिण में विरोध-प्रदर्शन हुए और उन्होंने इसे उन पर हिंदी थोपने का एक और प्रयास बताया।
इसी तरह, तमिलनाडु मेडिकल प्रवेश परीक्षा के रूप में 'नीट' का विरोध करता रहा है, क्योंकि वह मानता है कि अधिकांश ग्रामीण बच्चे तमिल भाषा में पढ़ते हैं और सीबीएसई के पाठ्यक्रम से अवगत नहीं हैं। बेशक इस तर्क में दम है, लेकिन तमिल को बढ़ावा देने के राज्य के प्रयासों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां अंग्रेजी माध्यम का निरंतर विकास हो रहा है। जाहिर है, यह एक ऐसा मसला है, जहां राजनीतिक वर्ग (जगनमोहन एक अपवाद हैं) लोकप्रिय धारणा के विपरीत चलता दिखता है।
सोर्स- Hindustan

Rani Sahu
Next Story