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- और लंबा हुआ जीवन

नवभारत टाइम्स; यह देखना राहत की बात है कि 2015 से 2019 की अवधि में देश में जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) बढ़कर 69.7 वर्ष हो गई है। हालांकि अभी भी यह वैश्विक औसत (72.6 वर्ष) से कम है। बहरहाल, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के इन आंकड़ों पर गौर करने से इस राष्ट्रीय औसत के पीछे छिपी कई जटिलताएं सामने आती हैं, जो बताती हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों और देशवासियों के अलग-अलग समूहों की विशिष्ट सचाइयां हैं, जिन पर अलग से ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन सबसे पहले अगर यह देखें कि आखिर जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर आगे बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा क्या है तो कुछ संकेत तो इन्हीं आंकड़ों से मिल जाते हैं। जीवन प्रत्याशा में यह देखा जाता है कि अगर स्वास्थ्य से संबंधित सारी स्थितियां जस की तस रहीं तो भविष्य में व्यक्ति के कितने साल जीने की उम्मीद की जा सकती है। एसआरएस के ये आंकड़े बताते हैं कि जन्म के समय आंकी गई जीवन प्रत्याशा और एक वर्ष या पांच वर्ष की उम्र में आंकी गई जीवन प्रत्याशा में सबसे ज्यादा अंतर उन्हीं राज्यों में देखा गया, जहां शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है।
जाहिर है, इन राज्यों में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य, प्रसूति के हालात और शिशुओं के कुपोषण के मोर्चे पर काम करके ही जीवन प्रत्याशा में वैश्विक स्तर तक पहुंचा जा सकता है। मगर अपने देश की बात करें तो पिछले चार पांच दशकों की अवधि में जीवन प्रत्याशा में संतोषजनक बढ़ोतरी दिखती है। 1970-75 की अवधि में जीवन प्रत्याशा महज 49.7 साल थी, जो अब यानी 2015-20 में 69.7 साल दर्ज की गई है। 45 साल की अवधि में जीवन प्रत्याशा में 20 साल की बढ़ोतरी कोई मामूली बात नहीं है। चूंकि जीवन प्रत्याशा मानव विकास को मापने का एक अहम और प्रचलित पैमाना है, इसलिए इसमें सुधार का मतलब कई मोर्चों पर सुधार होता है। उदाहरण के लिए, शिशु मृत्यु दर को लें तो 1970 में यह 132 प्रति 1000 शिशु थी, जो 2020 में 32 प्रति हजार शिशु रह गई थी। ऐसे ही प्रसूति के दौरान महिलाओं की मृत्य के आंकड़े 1990 में प्रति दस हजार महिलाओं पर 556 थे, जो 2018 में 113 प्रति दस हजार पर आ गए थे। बावजूद इसके, हमें याद रखना होगा कि यह पूरे देश की स्थिति नहीं है। उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जीवन प्रत्याशा अभी भी क्रमश: 65.6 और 65.3 वर्ष ही है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में जीवन प्रत्याशा का अंतर तो महत्वपूर्ण है ही, यह भी गौर करने लायक है कि केरल में ग्रामीण जीवन प्रत्याशा शहरों के मुकाबले ज्यादा है और यह भी कि बिहार, झारखंड में महिला जीवन प्रत्याशा पुरुषों के मुकाबले कम है। आगे बढ़ने का कोई भी रोडमैप इन विपरीतताओं को ध्यान में रखते हुए ही तैयार किया जा सकता है।