सम्पादकीय

और कितनी कच्ची घाटियां

Rani Sahu
7 Oct 2021 7:00 PM GMT
और कितनी कच्ची घाटियां
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शिमला की कच्ची घाटी अपनी व्यथा को चित्रित करती हुई हिमाचल के शहरी विकास को प्रश्नांकित करती है

शिमला की कच्ची घाटी अपनी व्यथा को चित्रित करती हुई हिमाचल के शहरी विकास को प्रश्नांकित करती है। भले ही अब हम शहरी विकास का कोई नुक्ता पकड़ कर कोस लें या एक साथ कई परिसर खाली करवा दें, लेकिन उस अभिशप्त माहौल को दुरुस्त नहीं कर पाएंगे जिसके चलते राजनीति ने टीसीपी कानून की धज्जियां उड़ा दीं। पहली बार सुधीर शर्मा के मंत्रित्व में यह आभास हुआ था कि शहरी विकास मंत्रालय का भी कोई वजूद है, वरना अधिकांश मंत्रियों ने इस दायित्व को समझा ही नहीं। वर्तमान सरकार में भले ही पहले शहरी विकास मंत्री सरवीण चौधरी को विभाग से हटाना पड़ा, परंतु यह परिवर्तन भी रास नहीं आया। कच्ची घाटी के विध्वंसक नजारों से पहले हमें याद करना होगा कि किस तरह शहरी विकास योजनाओं का उल्लंघन करती व्यवस्था को प्रश्रय दिया गया। कमोबेश हर चुनाव से पूर्व यह जुस्तजू रही कि किसी तरह शहरी परिधि से गांव के कंकाल को अलग करके शहरीकरण को शर्मिंदा किया जाए। अगर शहरी विकास के साथ अमृत योजना या स्मार्ट सिटी परियोजनाएं न जुड़तीं, तो हिमाचल आंख मूंदे शहरीकरण को नजरअंदाज करता रहा है।

विडंबना यह भी हिमाचल के हर शहर के साथ लगते ग्रामीण क्षेत्रों ने यूं तो पूर्ण शहरीकरण अपना लिया, लेकिन शहरी विकास योजना हार गई। कच्ची घाटी का संताप कमोबेश तब से है, जब से यह क्षेत्र नगर पंचायत के दायरे में आया है। उसके बाद साडा के तहत भी दो दशक गुजर गए, लेकिन वास्तव में वहां कोई अथारिटी थी ही नहीं। शिमला में कितनी कच्ची घाटियां हैं या सोलन समेत अन्य कई क्षेत्रों में इनका प्रसार जिस तीव्रता से हो रहा है, इस पर कभी गौर ही नहीं होता। प्रदेश में रियल एस्टेट का मजमून एक तरह से कब्रगाहों की निशानदेही बन चुका है। शिमला खुद को एनजीटी की बाहों में असमर्थ पा रहा है। इस हालत से पहले टीसीपी कानून को मरणासन्न स्थिति में पहुंचा कर जो पाप हुए, उनका प्रायश्चित करना होगा। आज भी प्रदेश के अहम कार्यालय शिमला में सिर उठा रहे हैं, तो मसला निर्माण की आचार संहिता से लाजिमी तौर पर जुड़ता है या जिस स्मार्ट सिटी की पैरवी में भविष्य की परियोजनाएं शिरकत कर रही हैं, उन्हें भी परखने की जरूरत है। शिमला स्मार्ट सिटी को कार्ट रोड की कसरतों में समझा जाए, तो पुराने डंगों को खुरच कर कौन सी कलगी धारण की जा रही है। शिमला कंकरीट का आलेप नहीं हो सकता और न ही ऐसी शहरी अवस्था इसके बचाव के प्रमाण हैं।
शिमला को 'डी कन्जैस्ट' होना ही पड़ेगा और यह ही स्मार्ट सिटी होने का तसव्वुर होगा। शिमला को अपने अतीत के यथार्थ को याद किए बिना भविष्य की परिकल्पना नहीं करनी चाहिए। 'डी कन्जैस्ट' करने की प्राथमिकताओं में उपग्रह शहरों की एक श्रृंखला तैयार करनी होगी, जिसके तहत आवासीय नागरिक शहर, कर्मचारी नगर, प्रशासनिक टाउनशिप, कामर्शियल सेंटर, परिवहन नगर, मेडिकल सिटी तथा शिक्षा संकुल तैयार करने होंगे। बहरहाल प्रश्न यह भी है कि पूरे प्रदेश में पनप रही कच्ची घाटियों का क्या करें। ऊना के साथ लगती शिवालिक पहाडि़यों के सफाचट होते ही लक्ष्य बदल जाते हैं और फिर कालोनियांे का उभरना खतरे बढ़ा देता है। मंदिर परिक्रमा से शुरू होता व्यापारिक लक्ष्य नयनादेवी की पहाडि़यों को समतल बनाने में जुट जाता है और तमाम नगर निकाय अपने पार्षदों के सियासी लक्ष्यों में प्रगति की बोटी-बोटी बांट लेते हैं। धर्मशाला के कोतवाली बाजार में नगर निगम का जो कांपलेक्स कुछ साल असुरक्षित रहा, पुनः सुरक्षित कैसे हो जाता है, यह सबसे बड़ा रहस्य है। शिमला की कितनी इमारतें सीधे ऊपर कैसे पहुंच जातीं, यह पहंुच जब तक रहेगी कोई नियम-कानून धंसते शहरों से वास्तविक कारण नहीं चुन पाएगा। प्रदेश नए नगर निगम बना कर भी यह साबित नहीं कर पाया कि उसके लिए शहरीकरण का अर्थ क्या है। क्या हम सोलन की पहाडि़यों पर बसते लोगों के कारण शहर बन जाएंगे या शिमला के कहर में खुद को बचा लेंगे।

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