- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- पैतृक संपत्ति और...
संगीता सहाय: आज जब स्त्रियां हर क्षेत्र में अपनी काबिलियत साबित कर रही हैं, उनकी सफलता को कम आंकने, उनके जीवन को बांधने और सपनों को कतरने की पारिवारिक और सामाजिक कोशिशें भी होती रहती हैं। देश में लैंगिक समानता के तमाम दावों के बावजूद आज भी देश की महिला आबादी का बड़ा हिस्सा दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर है। स्त्रियों को अपने सहज, स्वाभाविक अधिकार हासिल करने के लिए भी बड़ी चुनौतियों का सामना पड़ता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाले इस देश में स्त्री क्षमता को नजरअंदाज करने और उनके अवमूल्यन का सबसे बड़ा कारण है लड़की का पैतृक संपत्ति से बेदखल होना। आर्थिक रूप से पराश्रित औरत की स्वतंत्र सामाजिक हैसियत लगभग न के बराबर रही। मां, बहन, बेटी जैसे संबोधनों से नवाजी गई औरत का अपना नाम और पहचान ही सदैव गौण रहा है। कई स्तरों पर उसे पुरुष की जरूरतों की पूर्ति के साधन मात्र के रूप में देखा जाता रहा है।
औरतों के वजूद को पुरुषों में ही समाहित माना गया। ऐसे में एक अनाम से इंसान के नाम किसी प्रकार की संपत्ति किए जाने की बात सामाज के नियंताओं ने सोची ही नहीं। इस प्रकार औरत को संपत्ति से बेदखल करने के लिखित, अलिखित सामाजिक नियम और परंपराएं भी बनती गर्इं। देश की आजादी के बाद भी एक लंबे अंतराल तक यही स्थिति बनी रही।
आज यद्यपि स्त्रियों को पैतृक संपत्ति में कानूनी अधिकार मिल गया है, पर गौरतलब है कि इस कानूनी बदलाव को समाज ने कितना अपनाया है? क्या बेटियों को उनका वाजिब हक मिल रहा है? उत्तर सिर्फ ना है। आज भी लगभग पुराने नियमों को ही निभाया जा रहा है। इस आधुनिक भारतीय व्यवस्था में भी लगभग पूरा समाज पूर्व से चली आ रही बनी-बनाई परंपराओं के सख्त खोल में गर्दन घुसाए, चुप्पी साधे पूर्ववत चल रहा है।
गौरतलब है कि औरत के कमजोर सामाजिक स्थिति का सबसे बड़ा कारण उसका पैतृक संपत्ति के हक से वंचित होना है। पिता की संपत्ति में बेटी के बराबरी के हकों को सारे नियम-कानून के बावजूद लोप किया जाना बड़ी स्पष्टता से स्त्री के प्रति समाज के दोहरे रवैए की कहानी कहता है।
कानून की मिताक्षरा धारा को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के रूप में संहिताबद्ध किया गया। इसमें कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में केवल पुरुषों को मान्यता दी गई। यह उन सब पर लागू हुआ, जो धर्म से मुसलिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं थे। बौद्ध, सिख, जैन, आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के अनुयायियों को इस कानून के तहत हिंदू ही माना गया।
पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर ही बेटी के हिस्से को लेकर आजादी के बाद से ही बहस चलती रही है। इस संबंध में लगातार सामाजिक और राजनीतिक बहसों और मांगों के बाद वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून में संशोधन किया गया और बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर अधिकार दिया गया।
मगर साथ ही उसमें यह भी जोड़ दिया गया कि अगर पिता की मृत्यु 9 दिसंबर, 2005 से पहले हो गई हो, तब बेटी को अधिकार नहीं मिल सकेगा। कहा जा सकता है कि वह कानून आधा-अधूरा ही था।
11 अगस्त, 2020 सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 की पुनर्व्याख्या करते हुए एक बार फिर समाज में चेतना लाने का प्रयास किया, जो ऐतिहासिक कानून के बाद भी जड़हीन होकर पुरातन मान्यताओं के मुगालते में जी रहा था।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में पुरुष उत्तराधिकारियों के समान हिंदू महिलाओं को भी पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार और सहायक अधिकार का विस्तार किया। इस निर्णय के अनुसार, एक हिंदू महिला को पैतृक संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से प्राप्त है। यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसका पिता जीवित है या नहीं।
यह निर्णय संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ-साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज से संबंधित समुदायों पर भी लागू है। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों को यह भी दिशा-निर्देश दिया कि छह माह के भीतर इन विषयों से जुड़े मामलों का निपटारा किया जाए।
पर यह अफसोसनाक है कि कानून के इस ऐतिहासिक बदलाव के बावजूद यथार्थ में स्थितियां न के बराबर बदली हैं। इसे अमली जामा पहनाने वाला हमारा समाज ऐसा चाहता ही नहीं है। लोग कानून की बातों को किताबों तक सीमित रख कर इस संदर्भ में चुप्पी साधे बैठे हैं। वे चाहते हैं कि जो जैसा है, उसी रूप में चलता रहे, क्योंकि इसी में पितृसत्तावादी समाज की भलाई है।
औरतें भी इस बनी-बनाई व्यवस्था का अंग बन कर मौन हैं। वे या तो कानूनी बातों को जानती ही नहीं या अगर जानती भी हैं, तो हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहीं। उनके अंदर इस बात का भय भी है कि अगर वे अपने हक की मांग करती हैं, तो उनका परिवार छूट जाएगा।
समाज में वे अकेली पड़ जाएंगी। वास्तव में पैतृक संपत्ति पर स्त्री के हक संबंधी लड़ाई कानूनी से ज्यादा मानसिक और सामाजिक लड़ाई है। इस संदर्भ में जहां पूरा समाज पुरुष के साथ खड़ा है, वहीं औरत सिर्फ कानून के कुछ पन्ने लिए इस रणक्षेत्र में नितांत अकेली खड़ी है।
पिता की संपत्ति पर सिर्फ बेटे के अधिकार की बात समाज के तहों में समाया है। आवश्यकता है, इन जड़ तहों को खरोंचने, उन्हें धो-पोंछ कर हटाने की। इसके लिए समाज के उस हर व्यक्ति को आगे आना होगा, जो अपनी पुत्री को पुत्र के समान मानने और उसे आगे बढ़ाने का दावा करता है। संभव है शुरू में चंद लोग ही सामने आएंगे, पर ये थोड़े से लोग ही इस राह को आगे के लिए मुफीद बनाएंगे।
संपत्ति के मामले में अधिकारहीन और आर्थिक मोर्चे पर दूसरों पर निर्भर रहने के कारण कितनी ही औरतों को असहनीय परिस्थितियों में जीना पड़ता है। अक्सर यह देखने में आता है कि माता-पिता की मृत्यु के बाद अविवाहित बेटियों का अपने ही घर में जीना दूभर हो जाता है।
विवाहित बेटियां तो शादी के बाद अपने ही घर में मेहमान घोषित कर दी जाती हैं। किसी विपत्ति के बाद जब वे अपने उस घर में आसरा चाहती हैं, तो अक्सर उन्हें अवमानना और दुत्कार ही मिलता है।
अधिकांश विवाहिताओं के दहेज हत्या या ससुराल पक्ष से प्रताड़ित होकर किए जाने वाले आत्महत्या का बीज भी इसी में छिपा होता है। 'बेटी जहां जन्म लेती है, वहां की मेहमान होती है' या 'स्वभाग्यशाली स्त्री वही होती है, जिसकी डोली जहां जाए अर्थी वहीं से उठे' जैसी बातें लड़कियों को घुट्टी के रूप में पिलाई जाती हैं।
ऐसे में पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार की बात वे सोच ही नहीं पातीं। वास्तव में स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता की लड़ाई मानसिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर है। इसमें उनकी जीत के लिए आवश्यक है कि कानून-व्यवस्था, समाज और परिवार सभी स्तरों पर काम हो। सबसे बढ़ कर औरत को स्वयं अपने वजूद की इस लड़ाई की कमान संभालनी होगी। आधी आबादी के सम्मान, सुरक्षा और बराबरी के लिए आवश्यक इस कानून की सार्थकता भी इसी में है।