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प्रणय कुमार।
किसी भी उदार, जीवंत एवं गतिशील समाज में वांछित एवं युगीन परिवर्तन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। इसमें शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, किंतु दुर्भाग्य से कई दशकों तक देश की सत्ता को नियंत्रित करने वाली शक्तियों ने शिक्षा को वांछित परिवर्तन का वाहक बनाने के बजाय दल एवं विचारधारा विशेष के प्रचार-प्रसार का उपकरण बनाकर रख दिया। शैक्षिक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर निष्पक्ष, योग्य एवं अनुभवी विद्वानों-विशेषज्ञों के स्थान पर दल एवं विचारधारा-विशेष के प्रति झुकाव रखने वालों को वरीयता मिलती गई। परिणामस्वरूप संपूर्ण शिक्षा, कला एवं साहित्य जगत ही वैचारिक खेमेबाजी एवं पूर्वाग्रहों का अड्डा बनता चला गया। इस तबके ने शिक्षा सामग्र्री में किसी भी तार्किक परिवर्तन का सदैव विरोध किया है। ताजा हंगामा केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) द्वारा नौवीं से बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में आंशिक परिवर्तन पर मचाया जा रहा है। दरअसल बोर्ड ने कक्षा 11वीं और 12वीं के इतिहास एवं राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम से गुटनिरपेक्ष आंदोलन, शीतयुद्ध-काल, अफ्रीकी-एशियाई देशों में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना, उदय एवं विस्तार, मुगल दरबार का इतिहास और औद्योगिक क्रांति से जुड़े अध्यायों को हटाने का निर्णय लिया है। इसी प्रकार कक्षा 10 के पाठ्यक्रम से 'कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव' नामक सामग्री भी हटा ली गई है। अभी तक यह 'खाद्य सुरक्षा' पाठ के अंतर्गत पढ़ाई जा रही थी। इसके साथ ही 'धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति सांप्रदायिकता, पंथनिरपेक्ष राज्य' से फैज अहमद फैज की उर्दू में लिखी दो नज्में भी हटाई गई हैं। 'लोकतंत्र और विविधता' नामक अध्याय भी पाठ्यक्रम से हटा लिया गया है। गणित एवं विज्ञान के पाठ्यक्रम में से भी कुछ अध्याय हटाए गए तो कुछ जोड़े गए हैं।