सम्पादकीय

देश के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक ढांचे पर अपना वर्चस्व रखने वाले एक वैचारिक वर्ग को पाठ्यक्रम में तार्किक परिवर्तन भी अखरते हैं

Rani Sahu
2 May 2022 3:17 PM GMT
देश के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक ढांचे पर अपना वर्चस्व रखने वाले एक वैचारिक वर्ग को पाठ्यक्रम में तार्किक परिवर्तन भी अखरते हैं
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किसी भी उदार, जीवंत एवं गतिशील समाज में वांछित एवं युगीन परिवर्तन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है

प्रणय कुमार।

किसी भी उदार, जीवंत एवं गतिशील समाज में वांछित एवं युगीन परिवर्तन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। इसमें शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, किंतु दुर्भाग्य से कई दशकों तक देश की सत्ता को नियंत्रित करने वाली शक्तियों ने शिक्षा को वांछित परिवर्तन का वाहक बनाने के बजाय दल एवं विचारधारा विशेष के प्रचार-प्रसार का उपकरण बनाकर रख दिया। शैक्षिक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर निष्पक्ष, योग्य एवं अनुभवी विद्वानों-विशेषज्ञों के स्थान पर दल एवं विचारधारा-विशेष के प्रति झुकाव रखने वालों को वरीयता मिलती गई। परिणामस्वरूप संपूर्ण शिक्षा, कला एवं साहित्य जगत ही वैचारिक खेमेबाजी एवं पूर्वाग्रहों का अड्डा बनता चला गया। इस तबके ने शिक्षा सामग्र्री में किसी भी तार्किक परिवर्तन का सदैव विरोध किया है। ताजा हंगामा केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) द्वारा नौवीं से बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में आंशिक परिवर्तन पर मचाया जा रहा है। दरअसल बोर्ड ने कक्षा 11वीं और 12वीं के इतिहास एवं राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम से गुटनिरपेक्ष आंदोलन, शीतयुद्ध-काल, अफ्रीकी-एशियाई देशों में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना, उदय एवं विस्तार, मुगल दरबार का इतिहास और औद्योगिक क्रांति से जुड़े अध्यायों को हटाने का निर्णय लिया है। इसी प्रकार कक्षा 10 के पाठ्यक्रम से 'कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव' नामक सामग्री भी हटा ली गई है। अभी तक यह 'खाद्य सुरक्षा' पाठ के अंतर्गत पढ़ाई जा रही थी। इसके साथ ही 'धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति सांप्रदायिकता, पंथनिरपेक्ष राज्य' से फैज अहमद फैज की उर्दू में लिखी दो नज्में भी हटाई गई हैं। 'लोकतंत्र और विविधता' नामक अध्याय भी पाठ्यक्रम से हटा लिया गया है। गणित एवं विज्ञान के पाठ्यक्रम में से भी कुछ अध्याय हटाए गए तो कुछ जोड़े गए हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की संस्तुतियों पर पाठ्यक्रम को अधिक युक्तिसंगत, समाजोपयोगी एवं वर्तमान अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए ये परिवर्तन किए गए हैं। पाठ्यक्रम को रोचक, रचनात्मक, ज्ञानवर्धक, बोधगम्य एवं प्रासंगिक बनाए रखने के उद्देश्य से ऐसे परिवर्तन पूर्व में भी किए जाते रहे हैं। वैसे भी इतिहास और सामाजिक विज्ञान से जुड़ी किताबें कोई आसमानी किताब या समाज-जीवन से नितांत निरपेक्ष एवं पृथक पाठ्यपुस्तक तो हैं नहीं कि उनमें कोई परिवर्तन न किया जा सके। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि विज्ञान एवं तकनीकी की सहायता से अब तक अदृष्टिपूर्व एवं अलक्षित ऐतिहासिक-पुरातात्विक स्रोतों, साक्ष्यों-तथ्यों आदि पर गहन शोध एवं विशद अध्ययन कर नई-नई जानकारियों को सामने लाया जाए और उन्हें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं। उल्लेखनीय है कि 11वीं के इतिहास के पाठ्यक्रम में घुमंतू या खानाबदोश साम्राज्य (नोमेडिक एंपायर) 12वीं में 'यात्रियों की नजरों से' तथा 'किसान, जमींदार और राज्य' शीर्षक को जोड़ा गया है। वहीं राजनीतिशास्त्र में 'समकालीन विश्व में सुरक्षा' नामक अध्याय के अंतर्गत 'सुरक्षा: अर्थ और प्रकार, आतंकवाद', 'पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन' अध्याय के अंतर्गत 'पर्यावरण आंदोलन, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण' तथा 'क्षेत्रीय आकांक्षाएं' के अंतर्गत 'क्षेत्रीय दलों का उदय, पंजाब संकट, कश्मीर मुद्दा, स्वायत्तता के लिए आंदोलन' जैसे टापिक्स को सम्मिलित किया गया है।
क्या इसमें कोई दोराय हो सकती है कि ये मुद्दे वर्तमान समय-समाज, प्रकृति-परिवेश तथा देश-दुनिया के हितों व सरोकारों से बहुत गहरे जुड़े हैं? सजग एवं प्रबुद्ध वर्ग ही नहीं, अपितु सामान्य समझ रखने वाला साधारण व्यक्ति भी सरलता से यह आकलन कर सकता है कि इन विषयों का अध्ययन-अनुशीलन शांति, सहयोग और सह-अस्तित्व पर आधारित जीवन मूल्यों को विकसित करने में कितना सहायक है। क्या यह सत्य नहीं कि विविध विषयों के पाठ्यक्रमों में अपेक्षित सुधार एवं परिवर्तन की मांग दशकों से की जाती रही है। शिक्षा संबंधी सभी आयोगों एवं समितियों द्वारा इसकी संस्तुतियां की जाती रही हैं तथा अधिकांश शिक्षाविद भी इसके प्रबल पैरोकार रहे हैं?
सत्य यही है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में व्यापक परिवर्तन समय की मांग है। वस्तुत: हमारा पूरा इतिहास लेखन दिल्ली केंद्रित है। वह आक्रांताओं के आक्रमणों, विजय-अभियानों, वंशावलियों तक सीमित है। मध्यकालीन एवं आधुनिक भारत का समूचा इतिहास दिल्ली सल्तनत, मुगल वंश, ईस्ट इंडिया कंपनी, अंग्रेज लार्डों व सेनानायकों एवं स्वतंत्रता आंदोलन के नाम पर कतिपय नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया है। देश केवल राज्य, राजधानी और उस पर आरूढ़ सुल्तानों-सत्ताधीशों एवं चंद चेहरों तक सीमित नहीं होता। उसमें भूमि, नदी, पर्वत, वन, उपवन और उन सबसे अधिक सर्व साधारण जन, उनके संघर्ष, सुख-दुख आदि सम्मिलित होते हैं। परंतु जन-गण-मन की बात तो दूर, हमारी पाठ्यपुस्तकों में मौर्य, गुप्त एवं मराठा साम्राज्य जैसे कतिपय अपवादों को छोड़कर शेष सभी भारतीय, मसलन-चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, मैत्रक, राष्ट्रकूट, वाकाटक, कार्कोट, काकतीय, सातवाहन, विजयनगर, मैसूर के ओडेयर, असम के अहोम, नगा, सिख आदि तमाम प्रभावशाली राज्यों व राजवंशों की चर्चा लगभग नगण्य है। यही नहीं, भारतीय राजाओं की गणना में चंद्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य, हर्षवर्धन, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, शिवाजी, बाजीराव पेशवा जैसे चंद नामों को छोड़कर शायद ही कुछ अन्य नाम हमें सहसा याद आते हों। इन सभी को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए बिना न तो समग्र एवं संपूर्ण राष्ट्रबोध विकसित किया जा सकता है और न अपनी समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को ही समझा जा सकता है।
Rani Sahu

Rani Sahu

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