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अब हम इससे कैसे निपटेंगे, ये हमारी बौद्धिकता और दूरदृष्टि पर निर्भर करता है।
पिछले दिनों मैं बूंदी जिले के रामनगर स्थित कंजर बस्ती में गया हुआ था। यह बस्ती अंग्रेजों ने 1920 में बसाई थी जो, घुमंतू समुदायों की ज्ञात पुरानी बसावटों में से एक है। कंजर डेरे की एक अधेड़ उम्र की महिला 'हाईकोर्ट' (महिला का नाम) से बात हुई। पहले तो मैं उनके नाम से चौंक गया, फिर पता चला कि वहां किसी का नाम कलेक्टर तो किसी का नाम एस.पी., दरोगा, वकील रखा गया है, क्योंकि वे मानते हैं कि इनसे लोग उनका सम्मान ज्यादा करेंगे!
मैं 'हाईकोर्ट' से बात कर ही रहा था, तभी एक छोटा बच्चा पानी का गिलास ले आया। मैं कुछ बोलता उससे पहले ही महिला ने कहा कि अब हमने दारू पीना और मांस खाना छोड़ दिया है। हम पूरे हिंदू बन गए हैं। अब हमारे बस्ती में महाराज भी आते हैं। वह बोले जा रही थी, मैं सुन रहा था।
कंजर समुदाय हिंदुस्तान के उन 1,200 से ज्यादा घुमंतू समुदायों में से एक है, जिनको ब्रिटिश सरकार ने 1871 में जन्मजात अपराधी बनाया था। जरायम पेशा की उस पहचान के 151 वर्ष पुरे हो चुके हैं। इनमें पहले के 76 वर्ष ब्रिटिश सरकार और बाद के 75 वर्षों में भारत की सरकार ने उनको क्या दिया और क्या नहीं, इस पर तो बात हो जाती है, किंतु उन समुदायों की अपनी दृष्टि पर बात नहीं होती। आखिर वे क्या सोच रहे हैं, वे राज्य-समाज से क्या चाहते हैं?
हम जब भी किसी समाज या समुदाय का विश्लेषण करते हैं, उसके जीवन से जुड़े किसी पक्ष के बारे में लिखते हैं, तो हमारी दृष्टि बाहर वाली होती है। जबकि वे हमें कैसे देखते हैं, यह महत्त्वपूर्ण होता है। यहां उस कंजर समुदाय की महिला 'हाईकोर्ट' का दृष्टिकोण अहम है। आखिर वे उन बदलावों को क्यों और किस हद तक स्वीकार करना चाहते हैं? वे जिस सम्मान की चाह में हैं, कहीं वह पहचान का संकट तो नहीं है?
अब वे अपने आप को प्रचलित अर्थों में पवित्र दिखाने की कोशिश करते हैं। यह उनका वह अनुभव है, जो उन्होंने पिछले चालीस-पचास वर्षों में जाना है। जैसे मांस-मदिरा का खुला चलन छोड़ना। राजस्थान-मध्य प्रदेश समेत हरियाणा व पूर्वी गुजरात के घुमंतू समुदायों में कई उदाहरण देखने को मिले हैं, जिनमें वे अपने आप को 'शुद्ध' करने के लिए महाराज को बुलाते हैं। बाकायदा ढोलक बजाकर शोभा यात्रा निकालते हैं, जिससे शेष समुदाय को संदेश दिया जा सके।
घुमंतू समुदाय के सदस्यों में हुआ यह है कि उन्होंने जहां जैसा परिवेश देखा, वहां वैसा भेष ले लिया। जैसे कालबेलियों ने हिंदुओं के प्रमुख देवता शिव को अपना इष्ट देव माना, हालांकि उनकी विवाह पद्धति निकाह वाली है तथा मरने पर दफनाया जाता है। ऐसे ही कलंदरों ने मुस्लिम धर्म को अपनाया किंतु पारंपरिक रूप से नमाज और मस्जिद से उनकी दूरी रही है। घुमंतू आयोग के अध्यक्ष और घुमंतू बोर्ड के पूर्व चेयरमैन रहे भीखू राम इदाते अपने आधिकारिक लेखों के जरिये इन समुदायों को हिंदू बताते हैं।
उनका मानना है कि उनका जबरदस्ती धर्म परिवर्तन किया गया है। उधर घुमंतू मुस्लिम जातियों के बीच काम करने वाला आदिम महासंघ इस्लाम की शुद्धता के तहत शराब-विरोध तथा मस्जिद-नमाज पर जोर देता है। मुस्लिम धारा वाले कलंदर, मदारी और बहुरूपिया घुमंतूओं में इससे यह विचार बैठ गया है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो शेष मुस्लिम उन्हें हीन समझेंगे। इसलिए वे भी अपनी आदतों में बदलाव का दावा कर रहे हैं। वे रोजमर्रा के जीवन में इस्लामी रीतियां ला रहे हैं।
उधर हाल में कालबेलिया और नट समुदायों में दफनाने के बजाय शव-दाह के उदाहरण मिलने लगे हैं। सामान्यतः घुमंतू समुदायों में महिलाओं का निर्णय क्षेत्र मुख्य समाज से बिल्कुल भिन्न है। वहां पहनावे से लेकर, शराब, बीड़ी, तंबाकू खाने में कोई रोक-टोक नहीं रही है। उनके टोलों में आपसी रिश्ते और विवाह पूर्व रिश्तों को उचित-अनुचित के नजरिये से नहीं देखा जाता, किंतु पिछले कुछ समय में इसमें भी बदलाव आया है।
यहां स्थानीय समुदायों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है, जैसे राजस्थान में राजपूत, मालवा में गुर्जर, गुजरात में पटेल समुदायों की तरह साड़ी बांधना या घूंघट भी शुरू हुआ है। खुलकर शराब पीना कम हो रहा है। अब इन समुदायों में मुख्यधारा के सामाजिक संस्कारों की भूमिका भी बढ़ी है। अपने पूर्वजों के, जिनका पता नहीं कि वे कहां मरे थे, नाम का चांदी का फूल बनाकर उसे गंगा जी लेकर जाने लगे हैं। वे अपनी पीढ़ियों का रिकॉर्ड लिखवाने लगे हैं। इसके पीछे एक कारण सरकारी नियम कानूनों का डर भी है। ये समुदाय सदा घूमते रहे, इनके पास अपना कोई रिकॉर्ड नहीं है। जबकि हर सरकारी मदद के लिए रिकॉर्ड चाहिए। ऐसे में घुमंतू वर्ग पहचान और सम्मान की चाह में मुख्यधारा के समाज की परंपराओं की तरफ मुड़ रहे हैं।
यह और कुछ नहीं, मुख्यधारा से सम्मान पाने की चाह है, किन्तु ये सम्मान उनके लिए पहचान का संकट भी खड़ा कर रहा है। उनकी मूल पहचान समाप्त हो रही है। घुमंतू समुदाय एक सहज जीवन जीते रहे, उनमें किसी कट्टरता या परमुखापेक्षिता का भाव न था, किंतु 151 वर्ष की इस यात्रा के बाद उनके सम्मान की बात और पहचान का संकट विडंबनापूर्ण ढंग से हमारे समक्ष मौजूद है। सभ्यता एक दिन में नहीं बनती और न ही यह बाजार में मोल बिकती है। यह केवल हमारा इतिहास नहीं है, बल्कि वर्तमान और इसकी बुनियाद पर भविष्य भी टिका है। अब हम इससे कैसे निपटेंगे, ये हमारी बौद्धिकता और दूरदृष्टि पर निर्भर करता है।
source: amarujala
Neha Dani
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