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- बदलाव की चिंता में एक...
सुरेश सेठ; पिछली बार उन्होंने बारात सजाई थी तो सबके लिए 'अच्छे दिन आने' का उपहार देने का वादा किया गया था। इसके बाद इनके हर भाषण का करतल ध्वनि से स्वागत करते हुए न जाने कितने पत्थर तबीयत से उछाले गए, मगर आसमान में कोई सूराख नहीं हो सका। कवि दुष्यंत के शेर के सार्थक न हो पाने की त्रासदी डोलते हुए अपने इर्द-गिर्द घिरते हुए बेकारी, बीमारी, गरीबी और कर्जदारी के आसमान को अपना जान हमने गले से लगा रहने दिया। सुखद भविष्य के सपनों की बारात फिर सजने लगी।
वादों की तश्तरियों पर चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात के चिलगोजे तो हमारी गलियों में तशरीफ लाए। नहीं आई तो वह क्षमा प्रार्थना कि हम आपके लिए अच्छे दिनों का उपहार नहीं ला पाए। कतार में खड़ा आखिरी आदमी वहीं खड़ा-खड़ा प्रस्तर हो गया, ताकि उनसे उतना भी न पूछ सके कि 'क्या हुआ तेरा वादा!'
वादे पूरे होने का भ्रम लेकर 'गिली गिली पाशा' कहते हुए आंकड़ों के जादूगर हमारी गलियों में तशरीफ लाए थे। उन्होंने अपनी तरक्की के सूचकांकों के आधार वर्ष बदल दिए, गणना प्रक्रिया बदल दी, लेकिन उनकी जादूगर मैंड्रेक्स जैसी लंबी जादुई टोपी में से कोई तरक्की और खुशहाली का खरगोश न निकला। उधर कई किसान अपने खेतों में भरपूर फसल उगाने के बावजूद फसल खरीदने और बेचने वाली रोगी मंडियों के बाहर चौराहों पर फंदा लेकर अपने जीवन का अंत करते रहे।
वहीं समय के शहसवार उन्हें अपच का शिकार या किसी असाध्य रोगी से दुखी होकर मर गया बताते रहे। आंकड़ों के जादूगरों ने उनकी मौतों के रोजनामचे बंद कर दिए, क्योंकि यह सूची सुरसा की आंत की तरह लंबी होती जा रही थी और इससे पीड़ित परिवारों को मुआवजा देने की घोषणाएं शर्मिंदा हो रही थीं।
इन घोषणाओं ने कोई क्षमा प्रार्थना न की। हां वे रोजनामचे बंद कर दिए गए 'कि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी'। जब अपनी गरीबी से जर्जर किसानों की मौतें बीमारी और गृह-कलह के खाते में चली गईं, तो खाली खजाना भला उनसे क्षमा प्रार्थना के लिए आगे क्यों आता? फिर चुनावी बिगुल बज गया और गद्दी संभाले रहने, अपनी कुर्सी बचाने की फिक्र माहौल पर तारी हो गई। अब ऐसा वक्त अपनी अक्षमता और असफलता के लिए क्षमा प्रार्थना का नहीं, चुनावी अखाड़े में कूद कर अपने भुजदंड फड़काने का होता है। भुजदंड फड़कते हैं, जब उसी चौराहे पर नए तोरणद्वार सजते हैं। चौराहा तो बदहाली से और भी पहाड़-सा हो गया है।
वक्त क्षमा प्रार्थना का नहीं, इस चौराहे में से एक नई उम्मीदों भरी सुबह-सी, वादों की एक और बारात लेकर निकल जाने का था। ऐसे सजानी थी यह बारात कि बाद में उसे एक विजय यात्रा में तब्दील करते हुए देर न लगे। इसके बाद तो उसे उस शोभायात्रा में तब्दील होना ही है, जिसका समय सारथी, आपको दो की जगह चार दे देने का वादा करता है। ये वादे ढपोरशंखी न लगें, इसलिए इस बार इनके माथे पर 'अच्छे दिन आने' के मुकुट नहीं सजे।
यहां एक और युगमंत्र फूंका गया। इंतजार का केवल पांच साल और इंतजार का मंत्र। घिसट कर चलते हुए पैरों में ओजस्वी भाषण नए प्राण फूंक रहे हैं कि 'हम होंगे कामयाब, एक दिन नहीं पूरे पांच साल बाद।' किसी तरह चल पाते हुए एक सौ तीस करोड़ जोड़ी पांव तेज धावक बनकर दुनिया के सब देशों को पीछे छोड़ कर सबसे आगे हो जाएंगे। देश के किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी और उन्हें स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट लागू करने की मांग भी नहीं करनी पड़ेगी। देश का सकल घरेलू उत्पाद आशातीत चौकड़ियां भरता हुआ पांच ट्रिलियन हो जाएगा।
ऐसे में रोजगार मांगते हुए कांपते हाथों जब अर्थव्यवस्था का पैमाना इतना बड़ा हो जाएगा, तो भला रोजगार मांगती कतारों में खड़ा होने की जरूरत ही क्या? इस नए युग की आमद के उन वायवीय आंकड़ों से हमें परेशान न किया जाए कि जहां बेरोजगारी की दर, भूख की तपिश, आर्थिक विकास की दौड़ की लड़खड़ाहट कुछ इस कद्र घिसटी कि जैसी पिछले दशकों में नहीं देखी। यह आर्थिक गिरावट नहीं, आर्थिक सुस्ती है। कहते हैं, जो गिर गया, उसे उठाना कठिन होता है।
मान भी लें तो यह देश की विकास यात्रा में क्षणिक सुस्ती है। हमने नए आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने का प्रण भी ले लिया है। पौन सदी गुजर गई, हमने यह आर्थिक संकल्प बनाने की चिंता पहले क्यों नहीं की? हमने कभी किसी भी पीछे हटते कदम को असफलता मान क्षमा प्रार्थना नहीं की। अब केवल इंतजार है वक्त बदलने का। इस अवधि में अगर साइबर अपराध के विशेषज्ञों की कृपा से आपके अपने भाग्य को रोते बैंक खातों से कुछ जमा जत्था उड़न छू हो गई तो चिंता न कीजिएगा। यही तो विकास की कीमत है।