सम्पादकीय

आजादी का अमृत महोत्सव: आसान नहीं था चुनाव सुधार का काम

Neha Dani
3 Jan 2022 1:39 AM GMT
आजादी का अमृत महोत्सव: आसान नहीं था चुनाव सुधार का काम
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नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री के कॉलेजियम के जरिये होनी चाहिए।

आज देश में जो चुनाव व्यवस्था है, वह लगभग 80 प्रतिशत वही है, जो 1952 में हुए पहले आम चुनाव के लिए तत्कालीन चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने 1950-51 में तैयार की थी। यह भी आश्चर्यजनक लगेगा कि देश में संविधान भले 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ, पर चुनाव संबंधित छह अनुच्छेद दो महीने पहले यानी 26 नवंबर, 1949 को ही लागू कर दिए गए थे। मतदाता सूची बनाने की तैयारी तो 1947 से 1949 के बीच ही शुरू कर दी गई थी। चूंकि चुनाव का प्रशिक्षण बहुत कम लोगों को दिया जा सका था, इसलिए पहला चुनाव 68 चरणों में आयोजित किया गया।

प्रक्रिया बर्फ से ढके लाहौल, स्पीति और किन्नौर के पहाड़ों से शुरू होकर दक्षिण भारत तक गई और 10 महीनों तक चलती रही थी। किसी भी देश में आजादी के बाद पहले तीन चुनाव बहुत शांतिपूर्ण और लगभग एकतरफा होते हैं, क्योंकि लोग उसी पार्टी को वोट करते हैं, जिसने आजादी दिलाई हो। पर सामाजिक चेतना बदलती है और चौथे चुनाव से पार्टियों में संघर्ष शुरू होता है। भारत में भी 1962 तक लगभग एकतरफा चुनाव हुए और 1967 में पहली बार दूसरी पार्टियां कांग्रेस से लड़ती नजर आईं। उसी के बाद धीरे-धीरे चुनाव में बाहुबल और धनबल का बोलबाला बढ़ने लगा। ऐसे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पहला ऐतिहासिक क्षण 1990 का दशक शुरू होने के साथ ही आया, जब टीएन शेषन चुनाव आयुक्त बने। उससे पहले चुनाव आयोग को विधि मंत्रालय का एक विभाग माना जाता था। टीएन शेषन ने नया कुछ नहीं किया।
उन्होंने बस चुनाव आयोग की शक्तियों को महसूस किया और उनका इस्तेमाल किया। जब केंद्र सरकार ने मतदाता पहचान पत्र बनाने के उनके प्रस्ताव के लिए धनराशि देने में आनाकानी की, तब उन्होंने कोई भी चुनाव कराने से इन्कार कर दिया। वैसे में, तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की कुर्सी को खतरा पैदा हो गया, क्योंकि वह उस समय किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे और प्रधानमंत्री बने रहने के लिए उन्हें छह महीने के अंदर ही उपचुनाव जीतना था। शेषन जीते और सरकार ने धनराशि आवंटित कर दी। उन्होंने हर चुनाव में व्यय आयुक्त नियुक्त कर धनबल के इस्तेमाल पर रोक लगाने की कोशिश की, साथ ही, चुनाव के दौरान अर्धसैनिक बलों की तैनाती कर चुनावी हिंसा पर भी लगाम लगाई। देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक दूसरा ऐतिहासिक पल 2002 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की याचिका पर आया सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला था, जिसमें सभी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र के साथ शपथ पत्र दाखिल कर अपने खिलाफ लंबित सभी आपराधिक मुकदमों और संपत्तियों की घोषणा करनी थी। हालांकि संसद ने एक संशोधन के जरिये इसमें लंबित मुकदमों के बजाय फैसला हो चुके मुकदमों का जिक्र करने का प्रावधान किया, लेकिन एडीआर की पुनर्याचिका पर शीर्ष अदालत ने इस संशोधित कानून को खारिज कर दिया। हालांकि अब भी इसका बहुत असर नहीं हुआ है, क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, आज भी 45 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं।
ऐसा ही एक ऐतिहासिक पल मेरे द्वारा चलाया मतदाता जागरूकता अभियान और चुनावी व्यय की निगरानी का अभियान रहा। मैंने चुनाव आयोग में ये दोनों अलग विभाग बनाए। इससे पहले उम्मीदवार चुनावी खर्च की रिपोर्ट दाखिल कर देता था और वह चुनाव आयोग में कहीं एक कोने में पड़ी रहती थी। मैंने एक वरिष्ठ आईआरएस अधिकारी के तहत निगरानी आयोग बनाकर उन रिपोर्टों का विश्लेषण शुरू किया। कई उम्मीदवार समय पर रिपोर्ट न दाखिल करने के और कुछ गलत रिपोर्ट दाखिल करने के दोषी पाए गए। लेकिन चूंकि इस मामले में सिर्फ तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान है, इसलिए लोगों के दोषी पाए जाने पर भी कोई खबर नहीं बनती, क्योंकि वह अगला चुनाव लड़ने के लिए फिर सक्षम होते हैं। मेरा मानना है कि गलत रिपोर्ट देने या अधिक खर्च के दोषी पाए जाने पर भी उम्मीदवारों को छह वर्ष के लिए अयोग्य घोषित कर देना चाहिए, ताकि वे अगला चुनाव न लड़ पाएं।
मतदाता जागरूकता अभियान चलाने से भी मतदान प्रतिशत काफी बढ़ गया। वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में पिछली बार के मुकाबले लगभग 24 प्रतिशत अधिक मतदान हुआ था और पहली बार पुरुषों के मुकाबले अधिक महिलाओं ने वोट दिए थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान हमने एक फिल्मी गाने की तर्ज पर पप्पू कान्ट वोट, अहा अभियान की 18 लघु फिल्में बनवाकर टीवी पर चलवाईं। उसका असर हुआ और त्रिपुरा में मतदान प्रतिशत 93.6 फीसदी तक पहुंच गया। एक समय बड़े शहरों के कुछ लोग गर्व से कहते थे कि मैंने आज तक वोट नहीं दिया, क्योंकि मुझे चुनावी प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है। लेकिन मतदाता जागरूकता अभियान शुरू होने के बाद यह बयान गर्व के बजाय शर्म का प्रतीक हो गया है। आज लोग चुनावी स्याही लगी उंगली के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालते हैं।
मजे की बात यह है कि चुनाव आयोग द्वारा लागू किए जा रहे बहुत से कानून संसद द्वारा 1993 में बनाए चुनाव आयोग कानून का हिस्सा नहीं हैं। जैसे, दीवारों पर नारे लिखने पर प्रतिबंध नगरपालिका कानून का हिस्सा है। घरों में झंडा लगाने पर पूर्ण प्रतिबंध भी चुनाव कानून का हिस्सा नहीं था, पर पार्टियों के बीच होने वाले झगड़ों को रोकने के लिए यह कदम उठाना जरूरी था। रात 10 बजे से सुबह छह बजे तक लाउडस्पीकर के उपयोग पर प्रतिबंध सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है, जिसका अनुपालन चुनाव आयोग सुनिश्चित करता है। जबकि चुनाव सामग्री में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध पर्यावरण कानून का हिस्सा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव आयोग में नियुक्ति प्रक्रिया सबसे कमजोर है। हर सरकार अपनी मर्जी का चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सकती है।
इसीलिए पिछले कुछ समय से चुनाव आयोग पर टीका-टिप्पणियां भी होने लगी हैं। इसे देखते हुए चुनाव आयोग में नियुक्तियां भी केंद्रीय सूचना आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई और सीएजी की तरह प्रधान न्यायाधीश, नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री के कॉलेजियम के जरिये होनी चाहिए।

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