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- आजादी का अमृत महोत्सव:...
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अपना लालच और विलासिता बढ़ाने के लिए नहीं। हमें प्रकृति के सम्यक उपयोग की अवधारणा बढ़ाने की पहल करनी होगी।
मेरा जन्म गोपेश्वर में हुआ। बचपन में मेरे गांव के चारों ओर घने जंगल थे। इन जंगलों से आसपास के गांवों के लिए पगडंडियां निकलती थीं। जंगली जानवरों के भय से हम किसी दूसरे गांव में अकेले नहीं जाते थे। आजादी के बाद सड़क, सिंचाई, बांध परियोजनाओं और उनमें काम करने वाले लोगों की जरूरतों के चलते अब ये जंगल किसी हद तक साफ किए जा चुके हैं। जंगल की जगह सड़क ने ले ली है। वनोपज की मांग की वजह से प्रतिवर्ष 13 लाख हेक्टेयर वन नष्ट होते जा रहे हैं। वर्ष 1951 से 1980 के तीन दशकों में मात्र 35.57 लाख हेक्टेयर में वृक्षारोपण किया गया।
यानी इन तीन दशकों में 390 लाख हेक्टेयर जंगल नष्ट हुए और लगाए गए महज 35 लाख हेक्टेयर। इनमें से भी कितने बच पाए, यह भी गौरतलब है। इसी अवधि में गैरवानिकी प्रयोजन के लिए 43.28 लाख हेक्टेयर वनभूमि हस्तांतरित कर दी गई। इनमें से सबसे ज्यादा जमीन समतल, उपजाऊ और नदी-घाटी क्षेत्रों से ली गई। इसके अलावा अनधिकृत अतिक्रमण से लाखों हेक्टेयर वनभूमि कम हो गई। अलकनंदा की बाढ़ के लिए जंगलों के व्यापारिक कटान को दोषी पाया गया था। वर्ष 1971 में गोपेश्वर में इस संबंध में एक प्रदर्शन भी किया गया था। सरकार से संघर्ष भी हुआ, जिसकी परिणति 1973 के मंडल, फाटा, रामपुर तथा 1974 में रेणी के चिपको आंदोलन के रूप में हुई। विगत 75 साल में पर्यावरण से संबंधित संघर्षों का लंबा सिलसिला है।
दरअसल जीवाश्म ईंधन, कोयला, प्राकृतिक गैस, वाहनों के बढ़ते धुएं से हानिकारक गैसों का वातावरण बन रहा है। तापमान बढ़ने से समुद्री तूफान, बाढ़, सूखा, तेज बारिश, अधिक गर्मी हो रही है। इसी कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तथा समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। हम प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन कर चुके हैं और ये तेजी से खत्म हो रहे हैं। वर्ष 1988 की वन नीति में कहा गया है कि देश के एक तिहाई भू-भाग पर जंगल होने चाहिए और पर्वतीय इलाके के लिए यह दो तिहाई होना चाहिए। पर आज तक हम यह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए हैं।
सैटेलाइट इमेजों के आधार पर आकलित हाल ही में जारी भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 24.56 प्रतिशत भू-भाग पर ही हरित आवरण है। देश के पर्वतीय क्षेत्रों में हरित आवरण 40.30 फीसदी, जबकि जनजातीय इलाकों में 37. 54 प्रतिशत ही है। इस रिपोर्ट का सबसे दुखद पहलू हमारे अभिलिखित वन हैं, जिनका 330 वर्ग किलोमीटर का इलाका पिछले दो साल में वनविहीन हुआ है। देश में प्रकृति संरक्षण के लिए लोक प्रयासों का सिलसिला काफी पहले शुरू हो गया था। केरल की शांत घाटी हो या पश्चिमी घाट के क्षेत्र, मध्य भारत के बस्तर का आदिवासी क्षेत्र हो या ओडिशा और आंध्र प्रदेश के समुद्रतटीय इलाके, हर जगह लोगों ने अपने-अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के उपाय किए।
दरअसल औद्योगिकीकरण के जितने लाभ गिनाए गए थे, उतने वास्तव में हैं नहीं। उदाहरण के लिए, विभिन्न घाटी परियोजनाओं के लिए उजाड़े गए परिवारों को बसाए जाने की ओर न किसी का ध्यान गया है, न ही क्षेत्रीय संस्कृति व सभ्यता को डुबाने वाले बड़े बांधों के दुष्प्रभावों को आंकने की कोशिश हुई है।
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भारतीय हिमालय में 9,575 ग्लेशियर बताए हैं। इनसे निकलने वाली गंगा-बह्मपुत्र, सिंधु-सतलुज जैसी नदियों के भारत में 43 प्रतिशत से अधिक बेसिन हैं तथा इससे 63 प्रतिशत पानी देश को प्राप्त होता है। इन नदियों में लगभग एक-तिहाई जलराशि ग्लेशियर से आती है। पिछले चार-पांच दशक में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिसका प्रभाव वहां से निकलने वाली नदियों के वेग पर देखा जा सकता है।
ग्लोबल वार्मिंग के साथ लोकल वार्मिंग को भी पहचानने की जरूरत है। उच्च हिमालय में बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थ, दर्जनों हिमशिखर, हिमनदियां और हिमानियां हैं। आजादी से पहले इन इलाकों में सालाना पांच से दस हजार लोग पहुंच पाते थे। वे परंपरागत आवासों का उपयोग करते थे और भगवान के दर्शन के बाद लौट जाते थे। इससे लोकल वार्मिंग का दबाव वहां न्यूनतम रहता था। पर सुविधाओं के विस्तार से पर्यटकों की संख्या बढ़ती गई है। आज वहां प्रतिवर्ष दर्शनार्थियों की संख्या दस लाख से ज्यादा है। यात्रियों के आवास एवं अन्य सुविधाओं का तेजी से विकास हुआ है। यात्रा के दौरान सैकड़ों वाहन रोज आते-जाते हैं। इनका असर वहां के सामान्य तापमान, आसपास के हिमनद, हिमानी और बर्फीली चोटियों में जमी रहने वाली बर्फ की पिघलने की दर और नदियों के परितंत्र पर पड़ रहा है। इसे स्थानीय स्तर पर कम करने के लिए प्रभावी कार्यक्रम बनाने की जरूरत है। यह केवल उत्तराखंड के बदरीनाथ और केदारनाथ की ही समस्या नहीं है, अपितु पूरे देश की समस्या है।
गांधी जी कहते थे कि प्रकृति हर एक की जरूरत तो पूरी कर सकती है, पर लालच नहीं। यह गूढ़ बात है, जिसे समझने की कोशिश नहीं की गई। पिछले 75 साल में विकास की हमारी अवधारणा प्रकृति के अधिकतम दोहन पर केंद्रित रही है। यह अवधारणा बदलने की आवश्यकता है।
वर्ष 1988 की वन नीति में कहा गया कि सरकार व जनता के समन्वित कार्यक्रम के रूप में संयुक्त वन प्रबंध योजना लागू की जाएगी। इसे कुछ राज्यों ने शुरू किया, तो अधिकतर राज्यों ने इस दिशा में कारगर कदम उठाया ही नहीं। वन क्षेत्र के लोगों के आर्थिक विकास के कार्यक्रम पारिस्थितिकीय विकास को आधार मानकर तैयार किए जाएं और इसके लिए प्रत्येक गांव में कार्यकारी महिलाओं एवं युवाओं की वन विकास समितियां गठित की जाएं। हमें वैश्विक तापमान में कमी लाने के लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा, अक्षय ऊर्जा के उपायों को बढ़ावा देना होगा, वन संरक्षण पर जोर देना होगा और धरती को हरियाली से पाटने में योगदान देना होगा। यह संकल्प लेना होगा कि हम भूमि, जल और वनों का सतत संरक्षण करेंगे तथा उनका उपयोग अपने जीवन की रक्षा व वृद्धि के लिए करेंगे, अपना लालच और विलासिता बढ़ाने के लिए नहीं। हमें प्रकृति के सम्यक उपयोग की अवधारणा बढ़ाने की पहल करनी होगी।
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