सम्पादकीय

अमित शाह का बंगाल दौरा

Gulabi
20 Feb 2021 6:04 AM GMT
अमित शाह का बंगाल दौरा
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गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने प. बंगाल का दो दिवसीय दौरा करके राज्य में चुनावी युद्ध का शंखनाद कुछ इस तरह किया है कि

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने प. बंगाल का दो दिवसीय दौरा करके राज्य में चुनावी युद्ध का शंखनाद कुछ इस तरह किया है कि कोलकाता में सत्तारूढ क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल कांग्रेस को भी अपनी 'तुरही' से जवाबी स्वरनाद करना पड़े। श्री शाह भारतीय जनता पार्टी के चतुर और बुद्धिमान रणनीतिकार माने जाते हैं और जानते हैं कि चुनावी चौसर में किन मुद्दों का असर आम जनता पर प्रभावी तौर पर पड़ता है।

भाजपा (जनसंघ) के जन्मकाल से लेकर आज तक कभी ऐसा नहीं हो पाया कि एक जमाने में कांग्रेस व वामपंथियों के गढ़ में दक्षिणपंथी कहे जाने वाली राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा चुनावों से पहले इतने आक्रामक ढंग से चुनाव प्रचार चला सकी हो। श्री शाह की यह विशेषता मानी जाती है कि वह किसी भी चुनाव में विमर्श या एजेंडा तय करने में बाजी मार ले जाते हैं।


लोकतन्त्र में चुनावी विमर्श का सर्वाधिक महत्व होता है क्योंकि एक बार इसके जनमानस में पैठ बनाने के बाद विरोधी पक्ष उसके ही इर्द-गिर्द घूम कर सफाई देने के लिए विवश हो जाता है जिसे चुनावी भाषा में रक्षात्मक पाले में खेलने जैसा कहा जाता है। अभी तक परिस्थितियों का यदि बेबाकी से आंकलन किया जाये तो तृणमूल कांग्रेस की नेता व मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी भाजपा द्वारा खड़े किये जा रहे सवालों का ही उत्तर देने में अपनी पूरी ताकत झोक रही हैं।
अतः जब श्री शाह ने एक टीवी चैनल से यह कहा कि अब की बार बंगाल में भाजपा 294 सदस्यीय विधानसभा में 200 से अधिक सीटें जीतेगी तो यह मनोवैज्ञानिक रूप से ममता दी को और दबाव में लाने का प्रयास ही कहा जायेगा। लोकतन्त्र में अन्त में चुनावी हार-जीत ही मायने रखती है और हर पार्टी विजय पाने के लिए अपनी चुनावी चौसर इस तरह बिछाती है कि विरोधी उसमें फंस कर रह जाये। श्री शाह ने राज्य में 'परिवर्तन यात्राओं' का दौर शुरू किया। इन यात्राओं में भाजपा को आम बंगाली जनता का समर्थन भी प्राप्त हुआ।
इसका सीधा मतलब यह निकाला जा सकता है कि लोगों में भाजपा के प्रति आकर्षण पैदा हो रहा है और वे इसकी राजनीति को करीब से देखने का प्रयास कर रहे हैं। अभी तक श्री शाह ने प. बंगाल के जितने भी दौरे किये उन सभी में उनका जोर केन्द्र सरकार की ऐसी योजनाओं की तरफ रहा जिनका लाभ सीधे नागरिकों को मिलता है। ऐसी योजनाओं में आयुष्मान स्वास्थ्य योजना व किसान सम्मान निधि योजना सर्वप्रमुख रहीं जिन्हें मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में लागू नहीं किया है और इनके स्थान पर उनकी राज्य सरकार वैकल्पिक योजनाएं चला रही हैं। मगर भारत के गांवों में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि 'घर का जोगी जोगिया, आन गांव का सिद्ध' ठीक ऐसा ही इन योजनाओं के बारे में भी आम जनता पर असर पड़ सकता है क्योंकि श्री शाह ने बार-बार इनको मुद्दा बना कर बंगाली जनता के दिल में यह बैठा दिया है कि ममता दी ने उनसे कुछ छीना है।

हालांकि ममता सरकार की स्वास्थ्य व किसान लाभ योजनाएं भी जमीन पर लोगों को फायदा पहुंचा रही हैं, इसके बावजूद जनता के दिल में कसक है कि काश उन्हें भी केन्द्र की योजनाओं का लाभ मिल रहा होता। व्यावहारिक जीवन की यह सच्चाई है जिसे श्री शाह ने बड़ी मशक्कत के साथ लोकविमर्श बनाने का प्रयास किया है, परन्तु ममता दी भी प. बंगाल की जमीन से उठी हुई जन नेता हैं और वह जानती हैं कि बंगाली मानुष का मनोविज्ञान किस तरह काम करता है।
इसके बावजूद वह भाजपा के बुने हुए चुनावी जाल में लगातार फंसती जा रही हैं। सर्वप्रथम उन्होंने जय श्री राम के नारे के प्रति एक सुजान व कुशल राजनीतिज्ञ का नजरिया नहीं रखा और इसे राजनीतिक नारे के रूप में स्वयं ही विकसित कर डाला। हकीकत यह है कि प. बंगाल का शानदार इतिहास और महान संस्कृति मानवता को सर्वोच्चता प्रदान करती है और हिन्दू-मुसलमान के भेद को सार्वजनिक स्तर पर प्रकट नहीं करती।
इस राज्य की विशेषता है कि राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी-अपनी पार्टी का झंडा लेकर 'वन्दे मातरम्' का उवाच करते हुए लोगों से वोट मांगते हैं। इसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं होता। मगर ममता दी ने जय श्री राम के उवाच को अन्य देव उवाचों से तोलने का प्रयास किया जिससे भाजपा को बड़ी आसानी के साथ एक अस्त्र मिल गया। मां दुर्गा के प्रदेश में यदि जय श्रीराम का उवाच भाजपा के लोग करना चाहते हैं तो इस पर ममता दी को एतराज क्यों होना चाहिए था?
यह देखने का काम भाजपा का है कि इसका असर उसके चुनावी भाग्य पर क्या पड़ेगा। परन्तु यह भी सत्य है कि राज्य में हिंसा का वातावरण पिछले एक दो वर्षों में बहुत व्यापक होता चला गया है और इसमें शिकार भी राजनीतिक कार्यकर्ता ही अधिक हुए हैं। इसे सुधारने का कार्य जाहिर तौर पर मुख्यमन्त्री को ही करना है क्योंकि कानून व्यवस्था राज्य का विषय है, परन्तु बंगाल के बारे में एक बात और प्रसिद्ध है कि यह बौद्धिक रूप से शेष भारत से पांच वर्ष आगे चलता है। भाजपा इस कसौटी पर कितनी खरी उतरेगी यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा, परन्तु इतना तो तय है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में यहां की जनता लोकसभा की कुल 42 सीटों में से 18 सीटें दी थीं। बेशक ये राष्ट्रीय चुनाव थे और दो महीने बाद विधानसभा के लिए चुनाव होंगे जिनमें ममता दी का व्यक्तित्व निश्चित रूप से प्रमुख भूमिका निभायेगा। मगर फिलहाल तो श्री शाह ने जो चुनावी चौसर बिछा दी है उसकी काट में ही ममता दी बुरी तरह मशगूल हैं।



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