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सऊदी अरब (Saudi Arabia) में महिलाओं के लिए एक ड्रेस कोड (Dress Code) है
शंभूनाथ शुक्ल
सऊदी अरब (Saudi Arabia) में महिलाओं के लिए एक ड्रेस कोड (Dress Code) है. वहां चाहे अमेरिकन हों, यूरोपीय हों, भारतीय हों या चीनी, सभी को वही ड्रेस पहननी पड़ेगी, जो वहां तय है. इसी तरह चीन में मुस्लिम महिलाएं हिज़ाब (Hijab) या नक़ाब नहीं पहन सकतीं. अपने देश में स्कूलों में छात्र-छात्राओं के लिए भी एक ड्रेस कोड होती है और किसी भी छात्र या छात्रा को वह ड्रेस पहन कर आनी ही पड़ेगी.
कुछ वर्षों पहले तक पश्चिम बंगाल और असम के सरकारी स्कूलों में कक्षा एक से पांच तक की छात्राओं को भी साड़ी पहनना पड़ता था. यह नियम केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में भी था और आज भी कुछ नियम हैं. ऐसे में हिज़ाब या नक़ाब के लिए अड़ना एक खामखां का विवाद है. अगर किसी को ड्रेस कोड से आपत्ति है तो वह स्कूल बदल ले. बहुत-से विशेष दर्जा प्राप्त स्कूल हैं, जहां पर उनके अनुकूल ड्रेस कोड की छूट मिल जाएगी
देश से तय होते हैं सामाजिक आचार-विचार
हर जगह वहां के सामाजिक आचार-विचार के अनुरूप कुछ अलिखित नियम क़ानून होते हैं. इनमें पहने जाने वाले वस्त्रों से लेकर अभिवादन के तरीक़े भी शामिल हैं. अगर किसी समुदाय को आपत्ति है, तो वह अपने तौर-तरीक़े अपने घर या अपने लोगों के बीच अपना सकता है. हमारे देश में संविधान अल्पसंख्यक तथा विभिन्न भाषा-भाषी समूहों को अपने नियम-क़ायदे बनाये रखने के लिए उनके स्कूलों को विशेष छूट देता है. लेकिन सरकारी स्कूलों में यह छूट नहीं होती. सिखों के कुछ धार्मिक क़ानून-क़ायदे हैं. सिखों में उनके धार्मिक क़ानून-क़ायदे के अनुसार पांच ककार आवश्यक हैं. दशम गुरु गोविंद सिंह ने हर सिख को केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कच्छा धारण करने को अनिवार्य किया था. बाद में सहजधारियों ने इसे छोड़ा किंतु वह एक धार्मिक अनिवार्यता है.
सिर्फ़ सिखों में पांच चीज़ें अनिवार्य
लेकिन इस्लाम में उस तरह से हिज़ाब, नक़ाब, दाढ़ी व जालीदार टोपी पहनना अनिवार्य नहीं. मुस्लिम देशों के मुखिया जैसे तुर्की के राष्ट्रपति, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आदि इनमें से कोई प्रतीक धारण नहीं करते. बांग्लादेश में न शेख़ हसीना वाजेद ने बुर्का पहना न ख़ालिदा जिया ने. इसलिए एक निर्धारित ड्रेस कोड वाले स्कूल में बुर्का पहनने का मतलब फ़िज़ूल की पंगेबाज़ी है. अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त स्कूल में आप अपनी ड्रेस पहनो. दुनिया भर में मुसलमान अपने-अपने देशों के अनुरूप आचार-विचार को मानते हैं. लेकिन भारत में धर्म एक आध्यात्मिक चेतना नहीं बल्कि राजनीतिक भावना है. इसीलिए धर्म को लेकर यहां बवाल होते रहते हैं. इस समय देश में जो माहौल है, उसमें ऐसे मज़हबी ज़ुनूनों से बचना चाहिए. किंतु एक तरफ़ मुस्लिम राजनेता इस विवाद को हवा दे रहे हैं तो दूसरी तरफ़ कट्टर हिंदू तत्त्व इसे भड़का रहे हैं.
लेफ़्ट लिबरल की कूप मंडूकता
मगर सबसे ख़राब रवैया ख़ुद को लेफ़्ट लिबरल कहने वाले वाम पंथियों का है. वे आजकल हर सामाजिक कुरीति के साथ हैं. इससे और कुछ नहीं मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार से अपनी वितृष्णा प्रकट करने के लिए यह उनकी रणनीति बन गई है. लेकिन यह रणनीति उनके ख़ुद के आधार को नष्ट कर रही है. हम मानते हैं, कि कर्नाटक की 'श्रीराम सेना' जैसे अति कट्टरपंथी संगठनों ने इस विवाद को मुद्दा बना दिया है, किंतु हवा किसने दी? ये लेफ़्ट लिबरल हिज़ाब और नक़ाब ओढ़ने वालों के साथ खड़े हो गए. इस तरह से तो ये लोग मुस्लिम महिलाओं को पीछे की तरफ़ धकेल रहे हैं. एक तरफ़ तो मुस्लिम देशों में महिलाएं इन वस्त्रों से आज़ादी चाहती हैं और सभी सोशल लिबरल लोग वहां उनके साथ हैं. पर अपने देश में वे उदारचेता महिलाओं की राह का रोड़ा बन गए हैं. इस तरह से तो ये लोग समाज को और पीछे धकेल रहे हैं.
जैसा देश वैसा भेष
दुनिया के हर मुल्क में समान आचार संहिता की जब बात की जाती है, तब आम तौर पर वहां का जो बहुसंख्यक समाज होता है, उसी के पहनावे, और अभिवादन के तरीक़े से चीज़ें तय होती हैं. चूंकि आजकल अंग्रेजों के ही पहनावे को दुनिया के उन सब मुल्कों ने अपनाया हुआ है जहां उनका राज था, इसलिए भारत में भी वही पहनावा मान्य है. यही कारण है कि किसी भी सरकारी स्कूल में, जहां ड्रेस कोड है, धोती पहन कर नहीं जा सकते. इसी तरह अपने अध्यापक से मिलते समय गुड मॉर्निंग अथवा स्कूल से चलते समय गुड नाइट या नमस्ते, नमस्कार को ही मान्यता है. रविवार को साप्ताहिक अवकाश तथा पहली जनवरी से नया साल शुरू होता है. इसमें किसी तरह के परिवर्तन की मांग कभी नहीं की जाती. किसी ने नहीं कहा होगा कि हम हिंदू हैं इसलिए ड्रेस कोड नहीं मानेंगे और ट्राउज़र की बजाय धोती पहनेंगे और ईसवी सन की जगह विक्रम संवत से सत्र चलाएंगे. ना लड़कियों के स्कूल में साड़ी पहनने की छूट मिलती है. तब फिर कर्नाटक में वितंडा क्यों?
इतने सेंसटिव क्यों हैं?
दरअसल ये सब धार्मिक मान्यताएं नहीं राजनीतिक वितंडा हैं. मुस्लिम देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है. इसकी आबादी 17-18 प्रतिशत के आसपास है, किंतु फिर भी यह अपनी धार्मिक पहचान को यथावत बनाए रखने के लिए सबसे अधिक सेंसेटिव है. उसकी इस संवेदनशीलता को लेकर हिंदू कट्टरपंथी तत्त्व उस पर हमलावर हो जाते हैं. चूंकि बहुसंख्यक समुदाय को अपने पाले में लाने का एक ही तरीक़ा है कि उसे धर्म की सुरक्षा के नाम पर प्रतिद्वंद्वी से भिड़ा दो. यही ये हिंदू कट्टरपंथी तत्त्व कर लेते हैं. मुस्लिम समाज के विवेकशील लोग अपने समाज के ऐसे प्रतिक्रियावादियों के विरुद्ध खड़े नहीं हो पाते. नतीजा यह होता है कि वह समाज और अधिक अपने खोल में सिकुड़ने लगता है. उसके इस तरह से लामबंद हो जाने से मुस्लिम समाज मुख्यधारा की रेस में पिछड़ जाता है. और उसका क्षरण होने लगता है.
ग़रीबी-अमीरी की खाई इसीलिए
भारत क्या पूरे विश्व में इस्लामिक समुदाय अपनी अलग पहचान को ले कर इतना अधिक सेंसटिव है कि जहां वह कमजोर पड़ता है, चुप्पी साध लेता है. जैसे चीन और म्यांमार में. लेकिन उसका एक हिस्सा लोकतांत्रिक तरीक़े से रहने और व्यवहार करने में भरोसा नहीं करता. इसकी वजह है, इस समाज के कट्टरपंथियों का शांतिप्रिय लोगों में प्रभावी होना. यही कारण है मुस्लिम समाज में एक तरफ़ तो अथाह धन है और दूसरी तरफ़ अकल्पनीय ग़रीबी. कोई भी समाज जो जितना धर्म को लेकर अपने खोल में बंद रहेगा उतना ही वह आधुनिक शिक्षा, व्यापार और वैज्ञानिक शोध में पिछड़ा होगा. शायद इसीलिए जिस इस्लामिक वर्ल्ड सऊदी अरब, दुबई, ब्रोनोई में अपार धन है और जो विश्व के एक तिहाई हैं, उनके पास कोई भी आधुनिक मशीन बनाने तक का इल्म नहीं है. ये सारे देश अपने यहां तेल की रिफ़ाइनरी के लिए भी अमेरिका पर निर्भर हैं. और इसकी वज़ह है धार्मिक कूपमंडूकता.
हिंदुओं के भीतर समाज सुधार
हर धर्म के अंदर क्रांतियां होती रही हैं. जैसे हिंदुओं में पहले भक्ति काल, फिर सिख धर्म इसके बाद आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और देव समाज से लेकर थियोसाफ़िकल सोशाइटी तक. इन सबसे हिंदू समाज निरंतर प्रगति करता रहा. तमाम तरह की उसकी कुरीतियां ख़त्म होती रहीं, इसके विपरीत मुस्लिम समाज में शुद्धता पर जोर रहा. कोई भी धर्म, पंथ या मज़हब कालजयी नहीं होता और न ही समाज तथा उसकी परंपराएं. इसलिए इनमें परिवर्तन होते रहने चाहिए. ताकि वह समाज जीवंत बना रहे. यदि ऐसा हुआ तो किसी भी तरह के कट्टरपंथ को बढ़ावा नहीं मिलेगा. साथ ही क्षुद्र क़िस्म की राजनीति भी नहीं हुआ करेगी. काश सभी लोग इस बात को समझें कि धार्मिक शुद्धता का आग्रही समाज अंततः अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारता है.
Rani Sahu
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