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अफगानिस्तान की पहचान इन दिनों आतंकवाद और तालिबान से होती
अफगानिस्तान की पहचान इन दिनों आतंकवाद और तालिबान से होती है। अमेरिकी सेनाओं की वापसी के ऐलान के बाद अफगानिस्तान फिर चर्चा में है। चर्चा अब इस देश के भविष्य को लेकर हो रही है। एक वक्त था जब अफगानिस्तान की पहचान एक हिन्दू राष्ट्र के तौर पर होती थी। यह देश 7वीं सदी तक अखंड भारत का हिस्सा था। एक समय यहां बौद्ध धर्म फला-फूला और अब इसकी पहचान इस्लामिक राष्ट्र के तौर पर होती है। महाभारत काल में इसके उत्तरी इलाके में गांधार महाजनपद था, जिसके कारण इसकी राजधानी कांधार कहलाई। इसके अतिरिक्त आर्याना, कम्बोज आदि इलाके इसमें शामिल थे। बौद्ध धर्म पहुंचा तो यह स्थान उनका गढ़ बन गया। महमूद गजनी ने अफगानिस्तान की सभ्यता को बर्बाद किया और तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन कराया।
इतना इतिहास लिखने का कारण यही है कि शक्तिशाली साम्राज्य क्यों और कैसे और कब विफल और विघटित हो जाते हैं, इसका उदाहरण अफगानिस्तान हमारे सामने है। यह भी वास्तविकता है कि अफगानिस्तान की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पर कोई विदेशी आक्रांता जीत नहीं सका। चाहे वो सिकंदर हो या वैश्विक शक्तियां सोवियत संघ हो या फिर अमेरिका। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ऐलान कर दिया है कि 11 सितम्बर से पहले जब अलकायदा के अमेरिका पर किए गए भीषण हमले की बीसवीं बरसी होगी अफगानिस्तान से उनकी फौज की पूरी वापसी हो जाएगी। अक्तूबर 2001 में जब अमेरिकी बलों ने अफगानिस्तान पर हमला किया था तो उसका मकसद था सत्ता से तालिबान को बेदखल करना, क्योंकि उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी थी। अमेरिका ने 2 मई 2011 को पाकिस्तान के ऐबटाबाद में 9/11 हमले के मुख्य साजिशकर्ता ओसामा बिन लादेन को मार गिराया लेकिन सवाल यह उठता है कि 20 वर्षों में अमेरिका ने क्या हासिल किया। अमेरिका ने अपने 2400 से अधिक सैनिक खोये, मरने वाले अफगान सैनिकों, लड़ाकों और नागरिकों की संख्या दो लाख से अधिक रही।
अमेरिका ने 9/11 हमले के बाद अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और अन्य जगह 384 लाख करोड़ रुपए खर्च कर डाले। जो बाइडेन पहले से ही अफगानिस्तान से सेना की वापसी की वकालत कर रहे हैं। क्योंकि वह अब राष्ट्रपति पद पर हैं तो अपनी राय पर अमल करवाने की स्थिति में हैं। इसलिए उन्होंने एक मई से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया शुरू करने का ऐलान कर दिया है। अमेरिका वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में युद्ध तो जीत नहीं सका लेकिन बेतहाशा खर्च से अमेरिका में असमानता, गरीबी और सामाजिक टकराव बढ़ा रहा है। अमेरिका इस युद्ध में विफल रहा क्योंकि न तो तालिबान खत्म हुआ और न ही अफगानिस्तान में शांति स्थापित हुई। जब अमेरिकी सैनिकों की वापसी हो जाएगी तब यह देखना होगा कि इसमें पाकिस्तान, रूस, चीन, भारत और तुर्की क्या भूमिका निभाते हैं। अमेरिकी सैनिकों की वापसी भारत के नजरिए से बहुत गंभीर है। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद वहां एक बार फिर तालिबान के सत्ता में आने की आंशका बन रही है। पाक सेना की तरफ से तैयार आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर के सदस्य पहले ही अफगानिस्तान में मौजूद हैं। इस बात की चिन्ता है कि पाकिस्तान की आईएसआई तालिबान और अलकायदा की मदद से फिर से भारत विरोधी ऑपरेशन कर सकती है।
समय बदल चुका है कभी सोवियत फौजों को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए वहां मुजाहिद्दीन का उदय हुआ तब अमेरिका और अन्य देशों ने मुजाहिद्दीन को हथियार और धन देकर खड़ा किया और सोवियत फौजों को शर्मिंदा होकर लौटना पड़ा था। हालांकि अब अफगान मुुजाहिद्दीन को अफगान तालिबान के नाम से जाना जाता है और रूस तालिबान का समर्थक बन चुका है। भारत दौरे के दौरान भी रूस के विदेश मंत्री सर्गेइ ने अफगानिस्तान की भावी सरकार में तालिबान को शामिल करने की बात की। भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। भारत सरकार ने अफगानिस्तान के भविष्य में अफगान तालिबान की भूमिका स्वीकार करने की हरी झंडी दिखा दी है। पाकिस्तान ने अफगान सरकार से बातचीत करने के लिए तालिबान को राजी करने में बेहद अहम भूमिका निभाई है, वह चाहता है कि शांति प्रक्रिया में अमेरिका उसे पूरा महत्व दे।
उधर तालिबान ने तब तक किसी सम्मेलन में भाग न लेने का फैसला किया हुआ है जब तक सभी विदेशी सैनिकों की वापसी नहीं हो जाती। अमेरिका के पांव खींचने के बाद चीन वहां अपनी जगह बनाने की कोशिश करेगा। रूस और चीन की दोस्ती इन दिनों कई गहरे सवाल खड़ा करती है। ईरान भी चीन की राह आसान बनायेगा। पाकिस्तान, चीन, ईरान गठजोड़ भारत के लिए अच्छा नहीं है। भारत को अपने हितों की सुरक्षा के लिए बहुत ही सतर्कता और खुले दिमाग से काम करना होगा। नए दोस्त और नए समीकरण भी बन सकते हैं। देखना यह भी है कि कई देशों का अखाड़ा बन रहे अफगानिस्तान में कहीं गृह युद्ध की स्थितियां न पैदा हो जाएं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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