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- मध्यपूर्व में अमेरिका...
ब्रह्मदीप अलूने: सौदेबाजी की कूटनीति अमेरिकी हितों के लिए मददगार नहीं हो सकती। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अब उन्हीं नीतियों पर चलने को मजबूर हो गए हैं जो उन्हें विरासत में मिली हैं। अमेरिका इजराइल का सबसे बड़ा आर्थिक मददगार है। अब बाइडन ने फिलस्तीन को दी जाने वाली सहायता भी बहाल कर दी है।
मूल्यों और मानवाधिकारों की बात करने वाले बाइडन अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की उन्हीं नीतियों पर चल रहे हैं जिनसे अमेरिकी हितों को पूरा किया जा सके। दुनियाभर के देशों को खुले हाथों कर्ज बांटने की चीन की नीति को भी अमेरिका अपने सुरक्षा संकट के रूप में देख रहा है। रूस, चीन और ईरान की बढ़ती साझेदारी से निपटने के लिए बाइडन ने मध्यपूर्व की हाल की यात्रा में यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि आने वाले समय में रूस और चीन को रोकना तथा ईरान में अस्थिरता और सत्ता परिवर्तन उनके मुख्य लक्ष्य होंगे। इसके लिए अमेरिका किसी भी हद तक जाएगा।
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मानवाधिकार पर जोर देने वाले और चुनाव प्रचार के दौरान सऊदी अरब को खराब मानवाधिकार की वजह से अलग-थलग कर देने का दावा करने वाले बाइडन ने मध्यपूर्व की यात्रा में मूल्यों पर आधारित नीतियों को दरकिनार कर अमेरिकी हितों को ही सामने रखा। अमेरिका की विदेश नीति में मूल्यों और आदर्शों से कहीं अधिक शक्ति की नीति को प्राथमिकता दी जाती है। अमेरिकी लोगों का मानना रहा है कि विदेश नीति को सैनिक कार्यक्रम के द्वारा मदद मिलनी ही चाहिए, जिससे राष्ट्र को सुरक्षित रखा जा सके।
बाइडन की इस यात्रा पर उनके देश में एक समूह ने उन्हें सऊदी अरब न जाने की नसीहत देते हुए मानवाधिकारों का मुद्दा उठाया था, जिसमें पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या में सऊदी अरब की भूमिका की बात कहीं गई थी। वे बाइडन की सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से मुलाकात का भी विरोध कर रहे थे क्योंकि अमेरिकी खुफिया एजंसियों ने क्राउन प्रिंस पर खाशोगी की हत्या होने का आरोप लगाया था। लेकिन अमेरिका के सऊदी अरब के साथ गहरे आर्थिक और रणनीतिक हित जुड़े हैं। इसीलिए बाइडन ने फिलस्तीन और इजराइल के बाद सऊदी अरब की यात्रा भी की और अपने सैन्य हितों को ऊपर रख कर मानवाधिकार जैसे मुद्दों को कहीं पीछे छोड़ दिया।
इसके साथ ही बाइडन ने सऊदी अरब को इजराइल से आने-जाने वाले विमानों के लिए अपना हवाई क्षेत्र खोल देने के लिए भी राजी कर लिया। बाइडन ने इस यात्रा के पूर्व ही उद्देश्यों को साफ करते हुए कहा था कि रूस की आक्रामकता का मुकाबला करने और खुद को चीन से बेहतर स्थिति में रखने के लिए अमेरिका को उन देशों से सीधे संबंध बनाने होंगे, जो इन नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। सऊदी अरब उनमें से एक है।'
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी से मध्यपूर्व में अमेरिका की साख को गहरा धक्का लगा है। फिर, रूस-यूक्रेन संघर्ष और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आक्रामक तेवरों से अमेरिका और परेशान है। उधर, ईरान की परमाणु महत्त्वाकांक्षा बदस्तूर जारी है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए बाइडन ने मध्यपूर्व की यात्रा को बहुआयामी बनाया। सऊदी अरब अगर तेल उत्पादन बढ़ाता है तो रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण बढ़ी तेल की कीमतें घट सकती हैं और बाइडन को इसका फायदा नवंबर में होने वाले मध्यावधि उप-चुनावों में मिल सकता है।
बाइडन ने फिलस्तीन के प्रति उदार रवैया दिखा कर इस्लामिक दुनिया का समर्थन हासिल करने की कोशिश की है। इजराइल अमेरिकी हितों का प्रमुख रक्षक है, इसलिए अमेरिका लगातार सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर आदि देशों से इजराइल के रिश्ते मजबूत करने की नीति पर काम कर रहा है। कुछ महीने पहले इजराइल में चार अरब देशों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था।
इसमें अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भी पहुंचे थे। सम्मेलन में संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और मिस्र के विदेश मंत्री ने हिस्सा लिया था। यह पहली बार था कि जब इजराइल में अरब देशों के नेताओं की बैठक हुई। इसकी नींव ट्रंप प्रशासन ने 2020 में रखी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदगी में हुए शांति समझौते के तहत यूएई और बहरीन ने इजराइल में अपने दूतावास स्थापित करने के साथ ही साथ पर्यटन, व्यापार, स्वास्थ्य और सुरक्षा सहित कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को बढ़ाने का संकल्प लिया था। ईरान के मोर्चे पर भी अमेरिका खासा सक्रिय है। वह ईरान पर दबाव बनाने की नीति पर बढ़ रहा है।
ईरान और इजराइल की दशकों पुरानी शत्रुता किसी से छिपी नहीं है। सुन्नी मुसलिम देशों की नजरों में भी ईरान चुभता रहा है। अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद भी ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को और तेज कर दिया है। ईरान की बढ़ती ताकत खाड़ी के कई देशों के साथ अमेरिका के लिए भी समस्या बढ़ाने वाली रही है। ईरान खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका और अन्य पश्चिमी सेनाओं की मौजूदगी का कड़ा विरोधी रहा है।
इस्लामिक क्रांति (1979) के बाद से ईरान अरब देशों से अमेरिकी सेना को इस इलाके से निकालने के लिए कहता रहा है। इतना ही नहीं, ईरान ने सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद को मान्यता देने के साथ यमन में हूती विद्रोहियों और लेबनान में हिजबुल्लाह को पैसे, हथियार और अपनी सेना भेज कर इन देशों में अपनी स्थिति मजबूत बना ली है।
पिछले कुछ समय में सऊदी अरब और अमीरात ने रूस और चीन से अपने रिश्ते मजबूत बनाए हैं। अमेरिका का उद्देश्य साफ है कि वह सऊदी अरब को कम कीमत पर अपना तेल बेचने के लिए तैयार करे, क्योंकि पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद रूस के तेल और गैस राजस्व पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। अमेरिका जानता है कि सऊदी के समर्थन के बिना रूस की अर्थव्यवस्था पर चोट करना मुश्किल है।
यूक्रेन पर हमले से पहले संयुक्त अरब अमीरात आने वाले पर्यटकों का चौथा सबसे बड़ा समूह रूसी लोगों का था। इस हमले के बाद अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने रूस पर नए आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इससे ये दुनिया के सबसे अधिक प्रतिबंधों से ग्रस्त देशों में से एक बन गया, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात ने अब तक रूस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। संयुक्त अरब अमीरात जैसे अमीर देशों के साथ रूस की साझेदारी से अमेरिका को हजम नहीं हो रही है।
खाड़ी देशों से तेल खरीदने वालों में चीन बड़ा ग्राहक है। मध्यपूर्व से अमेरिका की घटती दिलचस्पी के बीच सऊदी अरब भी नए विकल्प तलाश रहा है। खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) और चीन के बीच मुक्त बाजार व्यवस्था की बात भी आगे बढ़ रही है। इस साल जनवरी में सऊदी अरब, कुवैत, ओमान और बहरीन के विदेश मंत्रियों ने चीन का दौरा भी किया था। चीन ने अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना-बन बेल्ट वन रोड के तहत एशिया, मध्यपूर्व और अफ्रीका में भारी निवेश का वादा कर रखा है। चीन और जीसीसी में रणनीतिक साझेदारी को लेकर सहमति बनी है।
अमेरिका इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को अपने लिए बड़ी चुनौती के रूप में देख रहा है। अमेरिका मध्यपूर्व में नाटो की तर्ज पर एक संगठन बनाने की फिराक में है जिसमें इजराइल और अरब देश शामिल हों और यह अमेरिकी हितों के अनुकूल हो। जाहिर है, बाइडन अब समझ चुके हैं कि अमेरिका के वैश्विक प्रभाव को बनाए रखने के लिए किसी भी कीमत पर चीन, रूस और ईरान जैसे देशों के प्रभाव को रोकना होगा। इसीलिए वे नियंत्रण और संतुलन पर आधारित नई साझेदारियों को आगे बढ़ा रहे हैं।