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तालिबान की डेडलाइन से एक दिन पहले ही 30 अगस्त, 2021 को अमेरिका के सारे सैनिक 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान से वापस चले गए
रवि पाराशर। तालिबान की डेडलाइन से एक दिन पहले ही 30 अगस्त, 2021 को अमेरिका के सारे सैनिक 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान से वापस चले गए. वर्ष 2001 से 2019 के बीच अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अपने युद्धक अभियान पर 822 अरब डॉलर ख़र्च कर चुका था. इसी तरह ब्राउन विश्वविद्यालय के अध्ययन के मुताबिक़ पूरे अभियान के दौरान अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में दूसरे मदों में अमेरिका ने 978 अरब डॉलर से ज़्यादा ख़र्च किए. इसके अलावा उसके ढाई हज़ार से ज़्यादा सैनिक शहीद हो गए और सैकड़ों घायल होकर हमेशा के लिए अपाहिज भी हो गए.
क्या अमेरिका सबसे ताक़तवर है?
अफ़ग़ानिस्तान में पूरे 20 वर्ष की उपस्थिति के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी को बड़ी कूटनैतिक और रणनैतिक नाकामी करार दिया जा रहा है. दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश होने के अमेरिका के ख़िताब को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. लेकिन क्या यह समझ लिया जाना उचित होगा कि अपने सैनिकों को हटाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान और आसपास के पूरे क्षेत्र को लेकर अमेरिका अब पूरी तरह से निर्लिप्त हो गया है? क्या इस क्षेत्र को लेकर अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होगी या रहेगी?
अमेरिका अब इस क्षेत्र की हलचलों से तटस्थ रहेगा और यहां के भू-राजनैतिक परिदृश्य में पहले की तरह सक्रिय और जिज्ञासु स्टेक होल्डर की भूमिका में नहीं होगा, यह मानने वाले सही नहीं हैं. अफ़ग़ानिस्तान और उसके पड़ोस के हालात में अमेरिकी दिलचस्पी कम कभी नहीं हो सकती. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अब प्रत्यक्ष मौजूदगी के अभाव में अमेरिका के नाक, आंख और कान की भूमिका का निर्वाह कौन करेगा?
इस प्रश्न का उत्तर बहुत जटिल नहीं है. सबसे आसान उत्तर तो पाकिस्तान ही है. क्योंकि हक्कानी नेटवर्क के साथ पाकिस्तान की मज़बूत गोलबंदी के पुख़्ता सुबूत अब सामने आ गए हैं, इसलिए भले ही अमेरिका अब पाकिस्तान पर पहले जैसा यक़ीन नहीं करे, लेकिन वह उसके साथ घोर शत्रु जैसा बर्ताव भी नहीं कर सकता. अफ़ग़ानिस्तान से इस तरह हताशा भरी वापसी के बाद अमेरिका अब हरगिज़ नहीं चाहेगा कि आतंकवाद के ख़ात्मे को लेकर उसकी प्रतिबद्धता पर शेष विश्व बड़े सवालिया निशान लगाकर दुनिया के दुर्दमनीय दादा के उसके तमग़े का तेज कम कर दे.
पाकिस्तान भी जानता है कि चीन उसे भले ही जेब ख़र्च देता रहे, लेकिन सारे ख़र्चों के लिए पूरी तरह उस पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता. उसे अंतर्राष्ट्रीय कर्ज़ का औक़ात से बहुत ज़्यादा बड़ा बोझ भी सिर से उतारना है. भविष्य में कर्ज़ और आर्थिक सहायता की निरंतर ज़रूरत पाकिस्तान को होगी. इसलिए अमेरिका पर पाकिस्तान की प्रत्यक्ष और परोक्ष निर्भरता जारी रहनी ही है. यानी भरोसा खोने के बावजूद पाकिस्तान अमेरिका की मजबूरी है.
भारत को तुरंत ख़तरा नहीं
यह भी साफ़ हो ही चुका है कि तालिबान फिलहाल भले ही पाकिस्तान के इशारों पर नाचता दिखाई दे रहा है, लेकिन धीरे-धीरे वह ख़ुदमुख़्तार की भूमिका में आता जाएगा. चीन से बातचीत के लिए तालिबान को अब पाकिस्तान की मध्यस्तता की ज़रूरत नहीं है. रूस से भी उसके तार सीधे जुड़ रहे हैं. पाकिस्तान भले ही चाहे कि तालिबान भारत के ख़िलाफ़ जल्द से जल्द सक्रिय हो जाए, लेकिन जिस तरह के साफ़ संकेत तालिबान ने भारत को अभी तक दिए हैं, उससे निकट भविष्य में ऐसा होता दिखाई नहीं देता. हालांकि भारत को भविष्य की हर स्थिति के लिए तैयार रहना होगा, लेकिन मौजूदा हालात में हमारे लिए तत्काल किसी बड़े ख़तरे के आसार नहीं हैं.
क्या बन सकते हैं नए समीकरण?
इन सारे हालात में एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या अमेरिका और तालिबान के बीच सभी तरह के संबंध विच्छेद हो गए हैं? क्या तालिबान अब भी अमेरिका के लिए कट्टर आतंकवादी संगठन ही रहेगा या फिर बदले हालात में अमेरिका उसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में किसी ईंधन या उत्प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल करने की भी सोच रहा है या सोच सकता है? ख़बरों के मुताबिक़ तालिबान ने शपथ ग्रहण समारोह का न्यौता चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान, कतर और टर्की को देते हुए फिलहाल भले ही उन्हें जिगरी यार का दर्जा दिया है, लेकिन उसके दोस्तों की लिस्ट और लंबी नहीं होगी, यह नहीं कह जा सकता.
कूटनैतिक कारणों से अमेरिका प्रत्यक्ष तौर पर भले ही तालिबान के दोस्तों की लिस्ट में कभी शामिल नहीं हो, लेकिन अपने अंदरूनी घमासान से निपटने के लिए उसे पर्दे के पीछे से ही सही, भविष्य में (एक-दो साल में ही) अमेरिका की उंगलियां थामनी ही पड़ेंगी, क्या यह प्रबल संभावना या ऐसे आसार बनते दिखाई देते हैं?
हां, अगर अमेरिका काबुल हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती हमले में शहीद हुए अपने 13 सैनिकों को भूल सकता है, अमेरिका अगर आईएसआईएस-खुरासान के प्रति अपनी खुन्नस को भूल सकता है, अमेरिका अगर यह भूल सकता है कि आतंकवाद से लड़ाई में वह दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त नहीं रह गया है, तब तो संभव है कि तालिबान और अमेरिका के रास्ते बिल्कुल जुदा हो जाएं… लेकिन ऐसा होता लगता नहीं है. चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान, कतर और टर्की अगर तालिबान सरकार को मान्यता देते हैं, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और ज़ाहिर है कि अमेरिका भी अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के प्रति स्थाई शत्रुता का भाव नहीं रख पाएगा.
दूसरी बात यह है कि निष्कंटक इतना आगे बढ़ने के बाद अब तालिबान नहीं चाहेगा कि हक्कानी नेटवर्क, नॉर्दर्न अलाएंस, अलक़ायदा और खुरासान के ख़ुराफ़ातियों से जूझता रहे. ऐसे में उसे चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ-साथ अमेरिका की ओर से भी नर्म रवैये की दरकार साफ़ तौर पर रहेगी. कुल मिलाकर अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से भले ही सशरीर विदा हो गया हो, लेकिन वह इस क्षेत्र में बाक़ायदा सक्रिय स्टेक होल्डर बना रहेगा. वह ऐसा कैसे करेगा, यह देखने वाली बात होगी.
अमेरिका ने क्यों छोड़े हथियार?
एक तथ्य पर और नज़र डाल लेनी चाहिए. काबुल पर क़ब्ज़े के बाद जो तस्वीरें ख़ास तौर पर दुनिया ने देखीं, उनमें अफ़ग़ानिस्तान में छोड़े गए अमेरिकी युद्धक विमानों, हेलीकॉप्टरों, वाहनों और अस्त्र-शस्त्रों की तस्वीरें शामिल थीं. ये दलीलें भी दी गईं कि अमेरिका ने जाते-जाते सारे विमानों, हेलीकॉप्टरों और हथियारों को कबाड़ में तब्दील कर दिया था. लेकिन क्या यही अंतिम सच्चाई है? हमने तालिबान के प्रवक्ता को सुना जिसने बड़े गुरूर से कहा कि अमेरिका द्वारा छोड़े गए सारे सामान पर अफ़ग़ानिस्तान का अधिकार है.
उसने यह भी कहा कि तालिबान के इंजीनियर (कथित तौर पर) तोड़े गए सामान की मरम्मत कर उसका इस्तेमाल करेंगे. यह ख़बर भी आई कि काबुल हवाई अड्डे पर खड़े अमेरिकी सेना के कुछ हेलीकॉप्टर तालिबान के इंजीनियरों ने ठीक कर दिए हैं. हमने काबुल के आसमान पर तैरती ऐसी तस्वीरें भी देखीं कि अमेरिकी ब्लैक हॉक हेलीकॉप्टर से लटका कर गद्दारी के आरोप में किसी अफ़ग़ानी को फांसी दी गई. पंजशीर पर क़ब्ज़े के दावों की ख़बरों के बीच हमने वहां की राजधानी के एक मैदान में खड़े दो हेलीकॉप्टरों की तस्वीरें भी देखीं.
अफ़ग़ान सेना ने भी छोड़े हथियार
हम यह भी जानते हैं कि 20 साल के अपने अभियान के दौरान अमेरिका ने अफ़ग़ान सेना को भी तमाम आधुनिक युद्धक साज़-ओ-सामान से लैस किया था. अफ़ग़ान सेना के घुटने टेक देने के बाद उनके अत्याधुनिक हथियारों, विमानों, हेलीकॉप्टरों पर भी तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया. कुल मिलाकर तालिबान दुनिया के ऐसे आतंकी संगठनों में शुमार हो गया है, जिसके पास हथियारों और दूसरी युद्धक सामग्री भरपूर मात्रा में है. अगर यह बात सही है कि अमेरिका ने अपने जो विमान और दूसरी संवेदनशील सामग्री अफ़ग़ानिस्तान में छोड़ी है, उसे चलाने वाली इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली बेकार कर दी है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह प्रणाली सही भी की जा सकती है.
बाद के हालात में क्षेत्र में अगर तालिबान अमेरिकी हित साधन का माध्यम बनता है और इसके लिए उसे ताक़तवर बनाना अपरिहार्य हो जाता है, तो क्या गारंटी है कि अमेरिका तमाम इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली तालिबान की सेना को नहीं परोस देगा? क्या कोई दावे से कह सकता है कि दोहा या दूसरी जगहों पर तालिबान और अमेरिका के बीच चले बातचीत के लंबे दौर में भविष्य की ऐसी किसी संभावना पर विचार-विमर्श नहीं हुआ?
अमेरिका को क्यों याद नहीं आए सैन्य अड्डे?
इस जिज्ञासा का समाधान भी होना चाहिए कि अमेरिका ने अपने बड़े विमान (डिसएबल ही सही) अफ़ग़ानिस्तान में छोड़ने का फ़ैसला क्यों किया, जबकि आसपास के क्षेत्र में उसके कई बड़े सैन्य अड्डे हैं? ऐसे विमानों में बहुत सी युद्धक सामग्री भर कर अमेरिका अपने सैन्य अड्डों पर ले जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. अब ज़रा देखते हैं कि दुनिया भर में अमेरिका के सैन्य अड्डे कहां-कहां हैं. जनवरी, 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सैन्य शक्ति का आंकलन करने वाले ग्लोबल फायर पॉवर इंडेक्स ने 2019 में 137 देशों की सेनाओं का लेखा-जोखा जारी किया था.
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय तब माना था कि दुनिया में उसके 800 सैन्य ठिकाने हैं. इनमें 100 से ज्यादा खाड़ी देशों में हैं, जहां तब 60 से 70 हजार जवान तैनात थे. फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स, इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के आंकड़ों के अनुसार पश्चिम एशिया में अकेले ईरान के इर्द-गिर्द अमेरिकी सेना के 67,906 जवान हर वक्त मुस्तैद हैं. तुर्की में अमेरिका के 2500 सैनिक तैनात हैं. पिछले दिनों तुर्की और अमेरिका के बीच तनाव के कारण वहां के सैन्य ठिकाने को बंद करने पर विचार किया गया. लेकिन संबंध सामान्य हो गए और वहां अमेरिकी सेना की संख्या बढ़ा दी गई. सऊदी अरब में भी अमेरिका की तीनों सेनाओं की अच्छी-ख़ासी तैनाती है.
इसके अलावा कुवैत, जॉर्डन, बहरीन, कतर, जिबूती, यूएई, ओमान, कजाकिस्तान, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया, बोत्सवाना, सोमालिया, कांगो, केन्या, इथोपिया, लेबनान, ट्यूनिशिया, माली, नाइजर, चाड, सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक, युगांडा, गेबॉन, कैमरून, घाना, बुर्किना फासो, सेनेगल, स्पेन, बेल्जियम, इटली, जर्मनी, दक्षिण कोरिया, ग्रीस, साइप्रस, ब्रिटेन, आयरलैंड और क्यूबा, सिंगापुर, थाइलैंड, कज़ाख़िस्तान, मालदीव्स के पास ब्रिटेन के डियेगो गार्सिया द्वीप में अमेरिकी सैन्य मौजूदगी है. जापान में अमेरिका के दस सैन्य अड्डे हैं. अमेरिका अपना सैन्य साज़-ओ-सामान विमानों में भर कर कहीं क्यों नहीं ले गया?
क्या तालिबान होगा अमेरिका का शूटर?अफ़ग़ानिस्ता में अमेरिकी फ़ौज के नेतृत्व में चले सैन्य अभियान के दौरान पाकिस्तान का चेहरा पूरी तरह बेनक़ाब हो गया है. पाकिस्तान की चालबाज़ी की जानकारी अमेरिका को बहुत पहले से थी. यही कारण भी रहा कि कई बार हक्कानी नेटवर्क की मदद का आरोप लगाकर अमेरिका ने पाकिस्तान को बुरी तरह झिड़का और माली मदद में कटौती भी की. लेकिन अब स्थितियां पूरी तरह स्पष्ट हैं. तय है कि अवसरवादी पाकिस्तान अमेरिका के साथ नहीं है.
चीन, रूस, ईरान भी अमेरिका के सहयोगी नहीं हो सकते. क्योंकि भारत अब विश्व शक्ति की राह पर है, इसलिए क़रीबी होते हुए भी वह अमेरिका के कहने भर से उसके व्यक्तिगत सामरिक हितों को साधने वाली कोई सीधी कार्रवाई आंखें बंद कर नहीं करेगा. ऐसे में दक्षिण एशिया में अमेरिका का अगला शूटर कौन है या हो सकता है या होगा? इस सवाल का जवाब सोचते हुए क्या फिलहाल तालिबान का धुंधला सा या स्पष्ट चेहरा आपके ज़ेहन में भी उभरता है?
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