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चीन की समग्र शक्ति में लगा नस्लवाद का घुन
भारत में शरणार्थी, दलाई लामा और उनके भक्तों के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार, बौद्ध संस्कृति और धर्म पर निरंतर प्रहार धार्मिक-सांस्कृतिक जड़ों को नहीं हिला पाए हैं। याद करें, सत्तर साल की सोवियत सत्ता के विघटन के बाद स्लाव रूस में हजारों चर्चों में एक साथ घंटियां बजने लगी थीं और स्वतंत्र हुए मध्य एशियाई जनतंत्र अजानों से गूंज उठे थे।
विस्तार
चीन की 90-95 फीसदी हान नस्ल का प्रतिनिधित्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव, देश के राष्ट्रपति और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के अध्यक्ष के नाते, सुप्रीम मिलिट्री कमांडर, शी जिनपिंग का नवीनतम आह्वान गौरतलब है। इस महीने की शुरुआत में बीजिंग में धार्मिक मामलों पर हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में शी ने विभिन्न धर्मानुयायियों के हानीकरण पर जोर देते हुए कहा कि धार्मिक विश्वासों की स्वतंत्रता पर पार्टी की नीति पूरी निष्ठा से क्रियान्वित की जानी चाहिए।
उन्होंने कहा कि धार्मिक संगठन एक पुल की तरह काम करें, जो पार्टी और सरकार से धर्मानुयायियों को जोड़कर रख सके। शी ने कहा, 'धार्मिक नेताओं के लोकतांत्रिक निरीक्षण में सुधार आवश्यक है। धार्मिक कार्यों में विधि के शासन को बढ़ाया जाए और विधि के शासन पर शिक्षा व प्रचार गहराई से किया जाए।' दुनिया की हर कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांतों के अनुरूप नास्तिक होती है, लेकिन धर्म के प्रति सबका व्यवहार एक जैसा नहीं रहा है। उदार धाराएं भी रही हैं।
शी की घोषणा मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुरूप नहीं है। ध्यान दें, उन्होंने हानीकरण, अर्थात हान नस्ल के अनुरूप, चीन की सीमाओं में रहने वाले समस्त लोगों को ढालने की बात कही। लेकिन यह तो दशकों से चल रहा है। शी नया क्या करना चाहते हैं? दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली महाशक्ति बनने और 2050 तक, जब कम्युनिस्ट शासन के सौ साल पूरे होंगे, अमेरिका से आगे निकल जाने की राष्ट्रवादी महत्वाकांक्षा के परिप्रेक्ष्य में इसे देखना होगा।
बौद्धों का निवास तिब्बत, और तुर्की जैसी भाषा बोलने वाले उइगुर मुसलमानों का निवास शिनजियांग (पूर्वी तुर्किस्तान) हान राष्ट्रवादियों के पैर का बहुत तकलीफदेह कांटा हैं। चीन के कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई भू-भाग तिब्बत और शिनजियांग में है। अमेरिका या भारत सहित अनेक देशों के गठजोड़ से युद्ध की स्थिति में यह एक तिहाई हिस्सा चीन के लिए भयावह स्थिति पैदा कर सकता है। हान सत्ता कतई आश्वस्त नहीं हो सकती कि लगातार कुचले गए बौद्ध और उइगुर मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।
बौद्धों को अशक्त करने के लिए हान हुकूमत ने तिब्बत का एक बड़ा हिस्सा पड़ोसी सूबों, सिचुआन, किंघाई और गांसू में मिला दिया। बीजिंग के प्रतिष्ठित शिंगह्वा विश्व विद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर मार्टिन जैक ने अपनी किताब व्हेन चाइना रूल्स द वर्ल्ड में इसे 'बांटो और शासन करो' की अच्छी मिसाल बताया है। बीजिंग-लाह्सा रेल लाइन ने तिब्बत के जनसांख्यिकीय स्वरूप को बदलने की प्रक्रिया तेज की है। तिब्बत के शहरी इलाके धीरे-धीरे हान बहुल हो रहे हैं। केंद्रीय निवेश का सबसे ज्यादा फायदा भी उन्हीं को मिल रहा है।
भारत में शरणार्थी, दलाई लामा और उनके भक्तों के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार, बौद्ध संस्कृति और धर्म पर निरंतर प्रहार धार्मिक-सांस्कृतिक जड़ों को नहीं हिला पाए हैं। याद करें, सत्तर साल की सोवियत सत्ता के विघटन के बाद स्लाव रूस में हजारों चर्चों में एक साथ घंटियां बजने लगी थीं और स्वतंत्र हुए मध्य एशियाई जनतंत्र अजानों से गूंज उठे थे। सिक्का उल्टा पड़ा, तो चीन तिब्बत में काल की इस गति से बच नहीं सकता। उससे बचने के लिए चीन बौद्ध आबादी को महत्वहीन अल्पसंख्यक बना रहा है।
शी जिनपिंग उइगुर मुसलमानों के हानीकरण के जरिये छठे भू-भाग, शिनजियांग की तरफ से निश्चिंत होना चाहते हैं। चीन के हुक्मरान 1971 के सबक को भूल नहीं सकते। बांग्लादेश युद्ध के दौरान चीन भारत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करने का मन बना चुका था। तब सोवियत संघ ने शिनजियांग सीमा पर अपनी सेना सक्रिय कर देने के साथ ही पूर्वी शिनजियांग स्थित मिसाइल अड्डे, लोपनोर को नष्ट कर डालने की चेतावनी दी थी। पचास सालों में शिनजियांग का महत्व कई गुना बढ़ चुका है।
वह चीन का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है। सत्तर साल पहले शिनजियांग की 90 प्रतिशत आबादी उइगुर थी। अब अस्सी फीसदी से कम बताई जा रही है। असंतुष्ट उइगरों का संगठन, ईस्ट तुर्किस्तान नेशनल आर्मी (ईटीएनए) चीन की नाक में दम किए हुए है। तालिबान से चीन की दोस्ती का एक राज यह है कि वह अफगानिस्तान और पाक-अफगान सीमावर्ती क्षेत्रों से ईटीएनए को खत्म करना चाहता है।
चीन की खैरात पर टिका पाकिस्तान जब तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और ईटीएनए को खत्म नहीं कर पाया, तो आपस में लड़ रहे कबीलाई तालिबान से कामयाबी की उम्मीद नहीं की जा सकती। विश्व के कई साम्राज्य क्यों नष्ट हो गए और सोवियत संघ का विघटन क्यों हुआ, इस पर चीन में कई बड़े-बड़े अध्ययन हुए हैं। लेकिन वर्चस्ववादी हान मानसिकता ने सही निष्कर्ष पर पहुंचने से रोका।
अक्तूबर क्रांति के बाद जिस सोवियत सत्ता को व्हाइट आर्मी बेदखल नहीं कर सकी, हिटलर की बीस डिवीजन सेना जिसके आगे नहीं टिक सकी, वारसा पैक्ट की जिस विराट सैन्य शक्ति से 'नाटो' देश आतंकित रहते थे, वह मिखाइल गोर्बाचोफ के पेरेस्त्रोइका ( पुनर्गठन) और ग्लासनोस्त (खुलापन) के ताजे झोंकों को सहन नहीं कर सकी। चीन जनसांख्यिकीय बदलाव के जरिये सीमाओं का सुदृढ़ीकरण करने की कोशिश कर रहा है।
वह इतिहास से यह सीख न लेने को बाध्य है कि असंतुष्ट जनता, खासतौर से, सीमावर्ती क्षेत्रों की जनता विनाशक टाइम बम का काम करती है। बहु-भाषीय, बहु-नस्लीय और बहु-धार्मिक देशों को युगोस्लाविया का उदाहरण याद रखना चाहिए। स्टालिन और ब्रेजनेव का सोवियत संघ युगोस्लाविया में सैनिक हस्तक्षेप करने से डरता रहा। भागीदारी की चुंबकीय शक्ति से देश को एक रखने वाले मार्शल टीटो के निधन के बाद वही यूगोस्लाव सत्ता खंड-खंड हो गई।
धर्म पर आधारित, द्विराष्ट्रीय सिद्धांत की कोख से जन्मे पाकिस्तान के टूटने और बांग्लादेश स्थापना की स्वर्ण जयंती हम इसी महीने मना रहे हैं। राष्ट्रों के बिखराव या बने रहने की परिस्थितियां भिन्न हो सकती हैं, लेकिन जनता के किसी वर्ग या वर्गों के असंतोष और परायेपन का अवश्यंभावी परिणाम विध्वंसक ही होता है।
अमर उजाला
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