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जब महात्मा गांधी यरवदा जेल में थे तो उन्होंने भारतीय सभ्यता पर कुछ लिखना चाहा
आशीष मेहता
जब महात्मा गांधी यरवदा जेल में थे तो उन्होंने भारतीय सभ्यता पर कुछ लिखना चाहा. "दुनिया में कोई भी सभ्यता भारतीय सभ्यता की तुलना में नहीं है," उन्होंने लिखा. इसके बाद उनकी कलम रुक गई और वह कुछ देर विचारों में खोए रहे. तभी उनकी आंखों में आंसू भर आए. यह परियोजना वहीं समाप्त हो गई; ये किताब कभी लिखी ही नहीं गई. "पहला वाक्य लिखने के बाद मेरी अंतरात्मा ने मुझसे पूछा,' जब आप सत्याग्रही हैं तो फिर ऐसा वाक्य कैसे लिख सकते हैं? " मेरे मन की आंखों के सामने अछूतों की छवियां आने लगी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं कैसे ऐसा लिख सकता हूं कि इस सभ्यता की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है जब कि इन लोगों की स्थिति ऐसी है? यह साबित नहीं किया जा सकता है कि ये गांधीजी के ही शब्द हैं लेकिन एक गुजराती विचारक-कार्यकर्ता स्वर्गीय मनुभाई पंचोली ने याद करते हुए ऐसा ही कहा था.
डॉ बी आर अंबेडकर उन नेताओं में सबसे महान थे जिन्होंने भारतीय सभ्यता पर लगे उस दाग को हटाने की कोशिश की. सौभाग्य से, गांधी (और नेहरू नहीं) की तरह अम्बेडकर भी उन आइकनों में एक हैं जिनका नाम सभी राजनीतिक समूह लेना चाहेंगे. ये समझ में आता है कि दक्षिणपंथी पार्टियां ऐतिहासिक आइकन की कमी का सामना करती है. इसने ऐसे व्यक्ति की विरासत को भी हथियाने की कोशिश की है जिसकी हत्या उनकी विचारधारा ने की: जैसे कि गांधी. और यहां तक कि कम्युनिस्ट भगत सिंह की विरासत पर भी उन्होंने दावा ठोक दिया है.
अम्बेडकर का जीवन और उनके संघर्ष को देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि विभिन्न राजनीतिक संरचनाओं में कोई भी दल उनकी विरासत को आगे बढ़ाने में उपयुक्त नहीं है. खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है. खुद को अम्बेडकर का एक वैचारिक सह-यात्री साबित करने के लिए असाधारण स्पिन की आवश्यकता होती है. खास तौर से जब हम अम्बेडकर का यह बयान सुनते हैं: "यदि हिंदू राज एक हकीकत बन जाता है तो निस्संदेह ही यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी. हिंदू चाहे कुछ भी कहें लेकिन हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है. इसी वजह से यह लोकतंत्र के लिए परस्पर विरोधी होगा. हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए."
भारत विश्वगुरु है और विचारों को लेकर दुनिया का नेता है
ये नोट करने वाली बात है कि अम्बेडकर की हिंदुत्व विचारधारा की आलोचना सिर्फ दलितों की स्थिति को लेकर ही नहीं थी. वह लोकतंत्र के तीन सबसे बुनियादी सिद्धांतों पर हिन्दुत्व विचारधारा का मूल्यांकन करते हैं और इसमें काफी कमी पाते हैं. हालांकि गांधी ने पाया कि भारतीय सभ्यता उनके आदर्शों के अनुरूप नहीं है, लेकिन भाजपा इस बात पर जोर देती है कि भारत विश्वगुरु है और विचारों को लेकर दुनिया का नेता है. जाति (और यहां तक कि लिंग भेद को लेकर) के संदर्भ में हिंदू दक्षिणपंथी भारत के अतीत को आलोचना करने लायक नहीं मानते हैं. उन्होंने जिस अतीत की कल्पना की है वह उच्च जातियों द्वारा विकसित की गई खुद की छवि को ही अपील करती है. उस विश्वदृष्टि में, दलित निश्चित रूप से उच्च जातियों से नीचे हैं. ये उन वजहों को बताता है कि आखिर धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों के खिलाफ भी हिंसक हमले क्यों बढ़ रहे हैं. इस तरह के हमलों की बारंबारता में एक अनोखी समानता है जब हम देखते हैं घोड़े की सवारी करने का सपना देखने वाले दलित दूल्हों और कथित तौर पर वध के लिए गायों की तस्करी करने वालों पर हमला होता है. वास्तव में, दलित कभी-कभी खुद को दूसरी श्रेणी में भी पाते हैं.
अनुसूचित जाति के अपराध और अत्याचार कम नहीं हुए हैं
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, अहमदाबाद में 2018 में अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ अपराध/अत्याचार के 145 मामले सामने आए और अगले साल यह संख्या बढ़कर 161 हो गई. मुमकिन है कि COVID-19 और लॉकडाउन की वजह से 2020 में यह संख्या घटकर 136 रह गई. 'महानगरीय शहरों' में दुर्भाग्य से लखनऊ एक ऐसा शहर था जहां अनुसूचित जाति के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर्ज किए गए- 229, 234 और 295 मामले क्रमशः 2018, 2019 और 2020 में दर्ज हुए. इन तीन वर्षों में सिर्फ 19 शहरों में 1,340, 1,667 और 1,485 मामले दर्ज किए गए. लेकिन ये आंकड़े पूरी तस्वीर पेश नहीं करते हैं. सबसे पहले तो सभी पीड़ित पुलिस के पास जा ही नहीं पाते हैं और अगर पुलिस के पास चले भी गए तो उनके मामले दर्ज नहीं होते हैं. दूसरे, ये आंकड़े उन शीर्ष 19 शहरों के हैं जहां ये उम्मीद की जा रही है कि इन शहरों की आधुनिकता दलितों को ग्रामीण इलाकों के सदियों पुराने पूर्वाग्रहों से बचाएगा. इन ग्रामीण इलाकों में सदियों से ये दलित पिंजरे में कैद रहे हैं. तीसरा, सारे भेदभाव आपराधिक प्रवृति के नहीं होते हैं. दरअसल, भेदभाव के अधिकांश रूपों को तो अपराध के रूप में गिना भी नहीं जाता है. लेकिन इस तरह के भेदभाव से उनके सामने जीवन यापन के विकल्प काफी सीमित हो जाते हैं. उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों (जेल को छोड़कर) में बहुत कम प्रतिनिधित्व मिलता है.
Rani Sahu
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