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सम्पादकीय
Ambedkar Jayanti 2022: प्रखर होते बाबा साहब से जुड़े प्रतीक, नई राजनीतिक गोलबंदी का केंद्र बने आंबेडकर
Gulabi Jagat
14 April 2022 1:56 PM GMT
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प्रखर होते बाबा साहब से जुड़े प्रतीक
बद्री नारायण। Ambedkar Jayanti 2022 आज हम बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की 131वीं जयंती मना रहे हैं। इस अवसर पर सार्वजनिक जीवन से जुड़े कई वर्ग विभिन्न मंचों के माध्यम से उन्हें स्मरण कर रहे हैं। जैसे-जैसे समाज शिक्षित एवं जागरूक हुआ है, वैसे-वैसे बाबा साहब के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संदेशों की स्वीकार्यता बढ़ी है। यह सुखद है कि बाबा साहब का नायकत्व अब किसी जाति, धर्म एवं प्रांत की सीमाओं में बंधा न रहकर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभर रहा है।
भारत के अलावा अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा और नीदरलैंड जैसे देशों में भी उनकी जयंती मनाई जाने लगी है। इन देशों में रह रहे भारतवंशी उन्हें स्मरण करते हैं। उनसे जुड़े तमाम कार्यक्रमों की सूचना आपको इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर सहजता से मिल जाएगी। समय के साथ राजनीतिक परिदृश्य में भी आंबेडकर की पैठ बढ़ी है। दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी सभी अपने-अपने स्तर पर उन्हें आत्मसात कर रहे हैं। सभी उन्हें अपने-अपने रंग में ढालने में लगे हैं। किसी का रंग नीला है, किसी का लाल और किसी का भगवा। उत्तर प्रदेश में आपको आंबेडकर की प्रतिमाएं काफी संख्या में मिलेंगी। यहां गांव, कस्बों और शहरों में उनकी प्रतिमाएं लगी हैं। इन मूर्तियों में भी बाबा साहब के कोट का रंग भी कहीं नीला, कहीं काला और कहीं केसरिया दिखता है।
यदि हाल के वर्षो में बाबा साहब की स्मृतियों पर भगवा रंग चटख हुआ है तो इसके पीछे भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई संगठनों की अहम भूमिका रही है। भाजपा और संघ के अन्य संगठन बाबा साहब के प्रतीकों एवं संदेशों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए कई आयोजन करने में लगे हैं। भाजपा बाबा साहब की याद में राष्ट्रीय स्तर पर 'सामाजिक न्याय सप्ताह' मना रही है। इसके अंतर्गत वह तमाम कार्यक्रमों के माध्यम से जनता को बाबा साहब के मिशन को पूरा करने के लिए किए जा रहे अपने प्रयासों के बारे में बता रही है। जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 14 अप्रैल को ही नई दिल्ली में पीएम म्यूजियम का उद्घाटन करने जा रहे हैं तो वहीं उत्तर प्रदेश सरकार 14 अप्रैल से राज्य में कई जिलों में 'दलित मित्र' कार्यक्रम शुरू करने जा रही है। इसके तहत गोष्ठियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम, चित्र प्रदर्शन आदि माध्यमों से गरीब एवं दलित कल्याण के प्रति सरकार के प्रयासों के प्रति जनता को जागरूक बनाया जाएगा। यह अभियान चार महीने चलेगा। इसमें दलित महापुरुषों को केंद्र में रखकर अनेक आयोजन किए जाएंगे।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं इस कार्यक्रम को गति देने में लगे हैं। भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी ने इसी अवसर पर सामाजिक समाहन के लिए कार्यो एवं उन पर चर्चा के साथ अपना इतिहास 'ध्येय यात्र' शीर्षक से प्रकाशित किया है। भाजपा आंबेडकर के मिशन से संदेश लेकर दलितों एवं उपेक्षितों के सामाजिक एवं राजनीतिक समाहन, गरीब कल्याण के कार्य, दलित एवं वंचितों समुदायों के नायको को सम्मान एवं भागीदारी की दिशा में किए जाने वाले कार्यो को प्रसारित करने में लगी है। इससे संगठन का समाज के हाशिये के समाजों से संवाद एवं उनमें प्रसार बढ़ेगा। अपनी पुस्तक 'फैसिनेटिंग हिंदुत्व' और 'रिपब्लिक आफ हिंदुत्व' में मैंने समाज के हाशिये के समूहों में संघ परिवार, जिसमें भाजपा भी शामिल है, के बढ़ते प्रसार की चर्चा की थी। इस पर कइयों को आश्चर्य हुआ था, लेकिन उत्तर प्रदेश के हालिया चुनाव इस रुझान को भलीभांति समझाते हैं। इन चुनावों से यही पुष्टि हुई कि समकालीन हिंदुत्व एवं आंबेडकर मिशन में किस प्रकार सहकार बढ़ा है। वास्तव में हमें भारतीय राजनीतिक गोलबंदी के इन नए परिवर्तनों को स्वीकारना ही होगा।
दूसरी ओर आंबेडकर की स्मृति में आज कांग्रेस की भाषा में एक अंदाज दिखता है, जो प्रतिरोध के माध्यम से हाशिये के समूहों के सशक्तीकरण के तर्क को आगे बढ़ाता है। उनके नेताओं के बयानों एवं कार्यक्रमों में ऐसे तर्क उभरते हुए दिखाई देते है। वहीं आंबेडकर के विचारों और दलित पहचान से जुड़ी बसपा आज गहरे संकट से गुजर रही है। उसका आधार वोट बैंक दरकने लगा है। वह इस वर्ष समाज के दलित, शोषित, वंचितों के पार्टी के प्रति बढ़ रहे बिखराव को रोकने के लिए आंबेडकर के प्रतीक एवं स्मृति का सहारा लेने की दिशा में कार्य कर रही है। इसके संकेत उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजों के बाद मायावती के बयानों से ही मिलने लगे थे। सपा और वामपंथी दल भी अपने-अपने ढंग से बाबा साहब के प्रतीक से अपना सबंध जोड़ रहे हैं। इन सभी दलों की इस कवायद से जुड़ी शैली में कुछ समानताएं तो तमाम विभिन्नताएं भी हैं।
मुख्यधारा के मीडिया से लेकर इंटरनेट मीडिया पर इससे जुड़े तमाम संदेश दिखते भी हैं। इस संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रतीकों का महत्व तब और बढ़ता है जब उस प्रतीक से जुड़े सामाजिक समूह जनतंत्र में मजबूत और प्रभावी होते जाते हैं। उनमें विकास की आकांक्षा बढ़ती है। उनकी आवाज का वजन बढ़ता है। विगत सात-आठ दशकों के दौरान भारत में दलित एवं हाशिये के समूहों में राजनीतिक एवं जनतांत्रिक चेतना सशक्त हुई है। एक गांव में फील्डवर्ड के दौरान दलित वर्ग से जुड़ी एक महिला का यह कथन मुझे उल्लेखनीय लगा कि 'बाबा साहब के कारण ही हमारे समाज के तमाम लोग जेब पर कलम लगाकर घूम रहे हैं। हमें बाबा साहब को भूलने नहीं देना है।' भारतीय समाज के दलित एवं वंचित समाज का यही भाव बाबा साहब आंबेडकर की स्मृतियों को निरंतर प्रासंगिक बनाता जा रहा है।
(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)
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