सम्पादकीय

यूक्रेन में तबाही के लिए रूस के साथ अमेरिका और उसके सहयोगी देश भी कम जिम्मेदार नहीं

Rani Sahu
8 March 2022 3:20 PM GMT
यूक्रेन में तबाही के लिए रूस के साथ अमेरिका और उसके सहयोगी देश भी कम जिम्मेदार नहीं
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युद्ध विनाश का कारण बनते हैं, लेकिन कभी-कभी वे अपरिहार्य हो जाते हैं

राजीव सचान।

युद्ध विनाश का कारण बनते हैं, लेकिन कभी-कभी वे अपरिहार्य हो जाते हैं। जैसे 1971 का बांग्लादेश युद्ध। यह याद रखें कि आज जो अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन पर रूस के हमले पर भारत को अपने पक्ष में लाना चाहते हैं, उन्होंने 1971 में किस तरह पाकिस्तान की सैन्य सहायता करने की कोशिश की थी। इन दिनों अमेरिका एवं उसके साथी देश और इन देशों का अधिकांश मीडिया पुतिन को खलनायक साबित करने में जुटा है। नि:संदेह यूक्रेन पर रूस के हमले का समर्थन नहीं किया जा सकता। इस हमले ने यूक्रेन में तबाही मचाने के साथ विश्व शांति और विश्व अर्थव्यवस्था को गंभीर खतरे में डाल दिया है, लेकिन कल्पना करें कि यदि चीन कल को बांग्लादेश को अपने प्रभाव में लेकर वहां अपने सैन्य अड्डे बनाने लगे तो क्या यह भारत का स्वीकार होगा? क्या चीन की ऐसी किसी पहल पर भारत को यह कहते हुए बांग्लादेश पर हमला कर देना चाहिए कि एक समय तो यह हमारा ही हिस्सा था? इस कल्पना से बाहर निकल कर इस यथार्थ को देखें कि चीन गुलाम कश्मीर यानी हमारे भूभाग पर गलियारा बना रहा है। क्या इसके चलते पर भारत को वहां हमला कर देना चाहिए?

इसमें संदेह नहीं कि यूक्रेन एक संप्रभु राष्ट्र है, लेकिन उसे रूस की सुरक्षा चिंताओं की अनदेखी नहीं करनी चाहिए थी। किसी भी देश की सुरक्षा केवल उसकी भौगोलिक स्थिति पर ही नहीं, बल्कि उस पूरे क्षेत्र पर निर्भर करती है। इसी कारण भारत श्रीलंका, मालदीव, नेपाल जैसे देशों को चीन के चंगुल से बचाने की कोशिश कर रहा है। क्या अतीत में इन देशों के चीन के पाले में जाने की कोशिश पर भारत यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेता कि ये संप्रभु देश हैं और यदि ये चीन की गोद में बैठना चाहते हैं तो उनकी मर्जी?
रूस लगातार इसका विरोध कर रहा था कि यूक्रेन को अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का हिस्सा नहीं बनना चाहिए, लेकिन अमेरिका उसे इस सैन्य समूह का हिस्सा बनाने के लिए आमादा था। नाटो का गठन सोवियत संघ के जमाने में साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए किया गया था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब उसके नेतृत्व वाले वारसा पैक्ट का भी अस्तित्व खत्म हो गया, तब यदि नाटो अपनी दुकान नहीं समेटता तो भी कम से कम उसका विस्तार तो रोक ही देता। उसने रूस की आपत्तियों के बाद भी अपना विस्तार जारी रखा। अमेरिका और यूरोपीय देश सोवियत संघ एवं वारसा पैक्ट का हिस्सा रहे देशों को भी नाटो के दायरे में ले आए। जब वे यूक्रेन को भी नाटो का हिस्सा बनाने की दिशा में आगे बढ़े तो रूस ने उन्हें आगाह किया। अमेरिका और यूरोपीय देश इसके बाद भी यह समझने को तैयार नहीं हुए कि यूक्रेन को नाटो का हिस्सा बनाने की कोशिश रूस को भड़काने वाली कार्रवाई होगी। रूस की सुरक्षा चिंताओं को समझने के बजाय अमेरिका और यूरोपीय देश यूक्रेन को न केवल सैन्य मदद देने लगे, बल्कि उसकी सेनाओं के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास करने लगे। ऐसे दो सैन्याभ्यास पिछले साल जून और सितंबर में हुए। शायद इसी के बाद पुतिन इस नतीजे पर पहुंचे कि पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा है। उन्होंने यूक्रेन पर हमला कर दिया। उन्हें लेने के देने पड़ सकते हैं, क्योंकि यूक्रेन के लोग अपने देश को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। फिलहाल यूक्रेन तबाह हो रहा है, पर अमेरिका-यूरोपीय देश शांति की कोई ठोस पहल करने के बजाय उसे हथियारों से लैस कर रहे हैैं। इससे बात बनने के बजाय बिगड़ रही है। लगता है अमेरिका-यूरोप को अपनी हथियार निर्माता कंपनियों के हितों की चिंता अधिक है।
अमेरिका ने पुतिन को तानाशाह करार दिया है, लेकिन यह वही अमेरिका है जिसका एक समय दुनिया भर के तानाशाहों से याराना था-चाहे वे पाकिस्तान के जनरल जिया हों या इराक के सद्दाम हुसैन अथवा लीबिया के गद्दाफी। जब सद्दाम अमेरिकी हितों की पूर्ति में बाधक बनने लगे तो अमेरिका और उसके साथ ही पश्चिमी मीडिया को इराक में जनसंहारक हथियारों का जखीरा 'दिख' गया। इसके बाद उस पर हमला कर उसे तबाह कर दिया गया। इस तबाही से ही खूंखार आतंकी संगठन आइएस यानी इस्लामिक स्टेट जन्मा, जिसने सीरिया में भी अपनी जड़ें जमाईं। इसी समय अमेरिका को लगा कि सीरिया में बशर अल असद के बजाय उसके हिसाब से चलने वाला शासक होना चाहिए। यह कुछ वैसी ही चाहत थी, जैसी आज रूस यूक्रेन के मामले में दिखा रहा है। अमेरिका ने असद को सत्ता से बाहर करने के लिए वहां भी सैन्य हस्तक्षेप किया। इससे आइएस को मदद मिली। यह संगठन इराक में भले ही पस्त हो गया हो, लेकिन उसके आतंकी न जाने कितने देशों में फैल गए हैं। एक समय ट्रंप ने कहा था कि आइएस के संस्थापक तो बराक ओबामा हैं। बड़बोले ट्रंप किसी को कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन 2009 के नोबेल पुरस्कार विजेता ओबामा ने अकेले 2016 में इराक, सीरिया, लीबिया, सोमालिया, यमन में हमले कर 24 हजार से अधिक बम बरसाए। ये आंकड़े ब्रिटिश अखबार 'द गार्जियन' के हैं। इन देशों में हमलों के दौरान अमेरिका का साथ अन्य नाटो देश भी दे रहे थे। जब यह सब हो रहा था तब पश्चिमी मीडिया यह कह रहा था कि इन देशों को तानाशाहों से मुक्त कर वहां लोकतंत्र का प्रसार करने की पहल की जा रही है। आज इन देशों की हालत किसी से छिपी नहीं। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि जो गलत काम अमेरिका ने किए, वही रूस भी करे, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि इस युद्ध का कोई एक खलनायक नहीं।
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