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दुनिया में लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता हर किसी के लिए चुनौती है
अभिषेक कुमार सिंह।
दुनिया में लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता हर किसी के लिए चुनौती है। यह शिकायत अनवरत कायम रही है कि दुनिया भर में अमीर लगातार ज्यादा अमीर तथा गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं। भारत और इस जैसे विकासशील देशों का हाल और भी बुरा बताया जाता रहा है। गरीबी उन्मूलन की दिशा में काम करने वाली संस्था 'आक्सफैम' कुछ साल पहले अपनी रिपोर्ट 'ऐन इकोनामी फार द 99 परसेंट' में बता चुकी है कि दुनिया की एक फीसद सबसे अमीर आबादी की संपत्ति का आंकड़ा बाकी 99 फीसद आबादी की कुल संपत्ति से भी ज्यादा है। भारत में इस तथ्य ने एक स्थापित राय की पदवी पा ली है कि हमारे यहां गरीबी-अमीरी की खाई कुछ ज्यादा ही चौड़ी है, पर हाल में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में इस राय के उलट निष्कर्ष निकलकर सामने आए हैं।
कहा गया है कि वर्ष 2011 से 2015 के बीच भारत में ग्रामीण गरीबी की दर 26.3 प्रतिशत से घटकर 21.9 फीसद पर आ गई। इस तरह इसमें कुल 4.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। वर्ष 2015 से 2019 के बीच ग्रामीण गरीबी इससे भी तेज रफ्तार यानी 10.3 फीसद से घटी और 11.6 फीसद पर आ गई। छोटी जोत वाले किसानों की आय में तेज वृद्धि हुई है, जो ज्यादा उल्लेखनीय है। निश्चय ही ये आंकड़े कोरोना से उत्पन्न महामारी कोविड से पहले के हैं, पर इनसे देश से गरीबी के उन्मूलन के प्रयासों की सार्थकता उजागर होती है।
सरकारी योजनाओं की भूमिका : देश में गरीबी में कमी आने के पीछे के कारणों की पड़ताल बताती है कि इसमें सबसे उल्लेखनीय भूमिका उन सरकारी योजनाओं की है, जिनका उद्देश्य देश में आय की असमानता को पाटने के साथ-साथ गरीबों का जीवन स्तर ऊपर उठाना भी है। विश्व बैंक से पहले कुछ ऐसे ही संकेत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) भी दे चुका है।
आइएमएप की रिपोर्ट 'महामारी, गरीबी और असमानता : भारत से मिले साक्ष्य' में कहा गया है कि 'प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के फलस्वरूप भारत में अत्यधिक गरीबी का स्तर 0.8 फीसद पर आ गया है।' आइएमएफ का यह आकलन वर्ष 2004-05 से कोराना वाले वर्ष 2020-21 तक का है। हालांकि इससे इन्कार नहीं है कि कोरोना के दो वर्षो के अंतराल में गरीबी कम करने के प्रयासों को एक झटका लगा होगा, लेकिन इसके आंतरिक पहलुओं की पड़ताल से पता चलता है कि पलायन आदि कारणों से जो कामगार तबका शहरों से विस्थापित होकर गांव-देहात में पहुंचा है, वह एकदम विपन्न नहीं है। बल्कि शहरों में कमाई गई पूंजी के बल पर वह ग्रामीण अंचलों में जरूरी सुविधाएं जुटाने में सफल रहा है।
आइएमएफ का कहना है कि भारत में गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना ने महामारी से प्रभावित वर्ष 2020 में ही अत्यधिक गरीबी को बिल्कुल निचले स्तर पर कायम रखने में भरपूर मदद की है। इस तरह की सब्सिडी के असर से आय की असमानता पिछले 40 वर्षो के इतिहास में सबसे निचले पायदान पर पहुंच गई है। ध्यान रहे कि वास्तविक असमानता गिनी सूचकांक के आधार पर मापी जाती है। गिनी सूचकांक में आबादी के बीच आय वितरण को नापा जाता है। प्राय: यह 0 से 1 तक होता है, जिसमें 0 किसी देश या समाज में पूर्ण समानता का प्रतिनिधित्व करता है और 1 पूर्ण असमानता का प्रतिनिधित्व करता है। इस संदर्भ में यदि विश्व बैंक की परिभाषा को लागू करें तो प्रति दिन 1.9 डालर से कम में जीवन यापन करने वाले लोग अत्यधिक गरीबी की श्रेणी में आते हैं। इसका अभिप्राय यह निकलता है कि भारत में अत्यधिक गरीबी में जीवन बिताने वालों की संख्या में अब कमी आ रही है। भारत और भारतीयों के नजरिये से यह सच में एक बड़ी राहत भरी खबर है कि देश में अत्यधिक गरीबी तेजी से घट रही है।
गांवों में आती खुशहाली : विश्व बैंक और आइएमएफ की रिपोर्ट में शहरों के मुकाबले गांव-देहात में आ रहे बदलावों को खास तौर से नोटिस किया गया है। जैसे विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2011 से 2019 के बीच शहरी इलाकों में गरीबी सिर्फ 7.6 फीसद घटी, जबकि इसी अवधि में ग्रामीण इलाकों में गरीबी 14.7 प्रतिशत घट गई। ग्रामीण इलाकों में जिन किसानों के पास खेती के लिए कम जमीन (छोटी जोत) थी, उनकी आय में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ। ऐसे किसानों की वास्तविक आय 2013 और 2019 के बीच सालाना आधार पर 10 फीसद की दर से बढ़ी। जबकि बड़ी जोत वाले किसानों की आय इसी अवधि में केवल दो फीसद की दर से बढ़ी। गरीबों की आय में बढ़ोतरी के ये संकेत सुखद हैं, लेकिन यहां दो-तीन बातों का ध्यान रखना जरूरी है। एक तो यह है कि इन रिपोर्ट में दिए गए तुलनात्मक आंकड़े कोरोना वायरस से उत्पन्न हालात से ठीक पहले तक के हैं। ऐसे में बहुत संभव है कि बीते दो वर्षो में शहरी और ग्रामीण गरीबी की स्थिति में कुछ ऐसा परिवर्तन आया हो, जो ज्यादा सकारात्मक न हो, लेकिन यह भी संभव है कि ये आंकड़े जिन रुझान को दर्शा रहे हैं, उनमें ज्यादा तब्दीली नहीं हुई हो। ऐसे में गरीबों की आय और स्थितियों में निरंतर सुधार आ रहा होगा।
फिर भी ध्यान में रखने योग्य जो दो अन्य बातें हैं, उनमें से एक यह है कि कोरोना काल के दौरान पूरी दुनिया में 7.7 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी की हालत में चले गए हैं। विश्व बैंक और आइएमएफ से उलट संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2019 में दुनिया में 81.2 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी की हालत में थे। ऐसे लोग रोजाना 1.90 डालर या उससे कम कमा रहे थे। कोविड महामारी के दो साल दौरान वर्ष 2021 तक ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर 88.9 करोड़ हो गई है। इन स्थितियों को रूस-यूक्रेन संघर्ष ने और जटिल बना दिया है, क्योंकि इससे पूरी दुनिया में 1.7 अरब लोगों को भोजन, ऊर्जा और खाद की ऊंची कीमतें चुकाने के लिए विवश होना पड़ रहा है। इन बदली स्थितियों के चलते वर्ष 2022 के आखिर तक विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति जीडीपी वर्ष 2019 से पहले के स्तर पर लौट सकती है। यही नहीं, यूक्रेन-रूस के बीच जारी जंग के कारण पड़ने वाले प्रभावों के अतिरिक्त असर भी होंगे, जिससे स्थितियां विकट हो सकती हैं।
इन सबके बावजूद भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं गरीबों की दशा सुधारने में एक उम्मीद जगा रही हैं। इसकी वजह गरीबी से लड़ने के उपायों पर गंभीरता से अमल किया जाना है। गरीबों को मुफ्त राशन, मनरेगा, उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि के कारण देश में गरीबों की आय में बढ़ोतरी हो रही है और आय की असमानता कम हो रही है। साथ ही देश अब एक बड़ी आर्थिक हैसियत वाला मुल्क बनने की ओर भी बढ़ रहा है। इसकी पुष्टि हाल में इंटरनेशनल प्रोफेशनल सर्विस प्रोवाइडर कंपनी- पीडब्ल्यूसी ने अपनी रिपोर्ट 'द वल्र्ड इन 2050' में कहा है कि वर्ष 2050 तक यदि चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा तो भारत का स्थान उसके ठीक बाद यानी दूसरा होगा। इसका अभिप्राय यह है कि अगले 28 वर्षो में भारत से गरीबी का संपूर्ण सफाया हो जाएगा।
अक्सर कहा जाता है कि अगर गरीब व्यक्ति अक्लमंदी से काम करे तो उसे अमीर बनने से नहीं रोका जा सकता है। इस उक्ति का विरोधाभास यह है कि जो लोग अमीर हैं, उनमें से बहुतों का रिश्ता पढ़ाई-लिखाई के बजाय कारोबारी समझ से ज्यादा होता है। विज्ञान ने इस रिश्ते को समझने की कोशिश की है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि कुछ लोग तमाम अक्लमंदी और शिक्षा-दीक्षा के बावजूद गरीब क्यों रह जाते हैं? इसी तरह जिन्हें अपनी अमीरी के बल पर हर सुविधा मिलती है, वे अपनी जिंदगी में अक्ल के मामले में पिछड़ क्यों जाते हैं?
कुछ समय पहले नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जेम्स हैकमैन ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर इससे संबंधित एक शोध किया। उस शोध में वे जिन नतीजों पर पहुंचे, वे दिलचस्प हैं। वह शोध हमें न सिर्फ अमीर बनने का, बल्कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में सफलता का राज भी समझाता है। असल में दुनिया भर में अक्ल का एक सूचकांक आइक्यू (इंटेलीजेंस कोशंट यानी बुद्धि का मानक) को माना जाता है। उन्होंने आइक्यू के आधार पर सफल और असफल, अमीर और गरीब लोगों का अध्ययन किया। उन्होंने इस पर भी ध्यान दिया कि एक ही व्यवसाय या बराबर मेहनत मांगने वाले काम में लगे दो अलग-अलग लोगों की आमदनी में कई बार जमीन-आसमान का अंतर क्यों होता है? उन्होंने अपने अध्ययन में जो पाया वह आम धारणाओं के एकदम विपरीत है। उनका कहना है कि किसी के अमीर होने में अक्ल का योगदान महज दो फीसद होता है। कुछ लोग इसमें किस्मत को भी महत्वपूर्ण मानते हैं, लेकिन अमीर होने में सबसे ज्यादा योगदान व्यक्ति की कुशलता, उसके सोच और व्यवहार का होता है। उनका कहना है कि स्कूल-कालेज में अच्छे नंबर लाने वाले और मेधावी माने जाने वाले लोग कई बार जीवन में बहुत सफल नहीं हो पाते, क्योंकि उनकी कुशलता, सोच एवं व्यवहार में खोट होता है। ऐसे सफल और अमीर लोगों की सूची बहुत लंबी है, जो कभी बहुत अच्छे छात्र नहीं रहे। यहां तक कि आइंस्टीन तक की गिनती कभी बहुत अच्छे छात्रों में नहीं होती थी।
हैकमैन का मत है कि स्कूल-कालेज के अच्छे नंबर लोगों को जिन कारणों से मिलते हैं, वे उनसे अलग होते हैं, जो सफल होने के लिए जरूरी हैं। लोगों को अच्छे नंबर अक्सर उनकी पढ़ाई-लिखाई की आदतों के चलते मिल जाते हैं। जैसे नियमित रूप से ध्यान लगाकर पढ़ना, चीजों को रिवाइज करना, उन्हें याद रखना और परीक्षा में उसे सही तरीके के से पेश कर देना, लेकिन बाद के जीवन में सफल होने के लिए जिस कुशलता की जरूरत पड़ती है, वह इससे एकदम अलग होती है। इसलिए स्कूली पढ़ाई में बहुत अच्छे अंक पाने वाले कुछ लोग बाद के जीवन में कई बार अपने लिए उपयुक्त काम तक नहीं खोज पाते हैं और निराश हो जाते हैं। कुछ को बुद्धि की श्रेष्ठता का बोध भी ले डूबता है। वैसे यह सब कोई नई बात भी नहीं, ढाई अक्षर के ज्ञान से पंडित बनने की बात तो हम सदियों से ही मानते रहे हैं।

Rani Sahu
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