सम्पादकीय

गणतंत्र के लिए स्वतंत्र सत्ता के संघर्ष का रूपक 'मुक्ति का महायज्ञ'

Gulabi
26 Jan 2022 7:40 AM GMT
गणतंत्र के लिए स्वतंत्र सत्ता के संघर्ष का रूपक मुक्ति का महायज्ञ
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सिद्ध गीतकार और लेखक डॉ. रामवल्लभ आचार्य की लेखनी से रचा यह एक ऐसा अनुपम रूपक है
छब्बीस जनवरी… समय की संधि पर ठहरी एक ऐसी तारीख़ जब गणतंत्र के नाम पर भारतीय जन-मन की कामनाओं का ज्वार वतनपरस्ती में परवान चढ़ता है. देश की मान और शान में दिशाओं तक गूंजते हैं वे तराने, जिनमें आज़ादी के अरमानों के साथ बलिदानों की दास्तानें मुखर हैं. एक उन्मादी कारवां हमारे रूह-रक्त में रोमांच जगाता है. आज़ादी के अमृत महोत्सव के निमित्त स्वराज और स्वाधीनता के पहलुओं को जब नए सिरे से याद करने और देखने-परखने का सिलसिला जारी है, तब 'मुक्ति का महायज्ञ' शिद्दत से जेहन में कौंधता है.
सिद्ध गीतकार और लेखक डॉ. रामवल्लभ आचार्य की लेखनी से रचा यह एक ऐसा अनुपम रूपक है, जिसने रेडियो और दूरदर्शन से लेकर रंगमंच तक ख़ासा रोमांच और उद्वेलन जगाया. डॉ. आचार्य हिन्दी के आखर जगत में आलोकित एक ऐसे शब्द-शिल्पी के रूप में समादृत हैं, जिनके गीत अनूप जलोटा, हरिओम शरण और प्रभंजय चतुर्वेदी से लेकर कल्याण सेन और कीर्ति सूद जैसे जाने-माने गायकों की आवाज़ में प्रसिद्धि के गगन नापते रहे हैं. निश्चय ही रचनात्मक कसौटी पर यह रूपक एक अनुभव समृद्ध लेखक के कला-कौशल का प्रमाण है.
इस रूपक के लंबे पाठ से गुज़रते हुए उत्सर्ग की गाथाएं हेरने लगती हैं. गुलामी के कसैले अहसासों को जीते हुए एक दिन अचानक भारतवासियों की बुझी आंखों में आज़ादी का सपना लहलहाया था. समय ने करवट ली. एक दिन ऐसा आया, जब सारे मुल्क ने आज़ाद हवाओं में सांसें लेना शुरू किया. लेकिन यह पलक झपकते पूरा होने वाला सपना नहीं था, इस रोमांच के पीछे बरसों का संघर्ष है. सामूहिक समर्पण और एकता की मिसालें हैं.
इतिहास में महाविजय की इबारत
इतिहास के पन्नों पर नज़र जाती है तो अंग्रेज़ी हुकूमत और जुल्मों-सितम से जुड़ी एक-एक तारीख़ उभरती है. लेकिन मुक्ति के लिए छटपटाते हमारे मुल्क ने संगठित जन प्रतिरोध का स्वर मुखर किया. सच्चे राष्ट्रभक्त लामबंद हुए. प्रभावी नेतृत्व प्रकट हुआ हुआ और कश्मीर से कन्याकुमारी तथा गुवाहाटी से चौपाटी तक स्वाधीनता का आंदोलन हर देशवासी का मकसद बन गया. सिलसिला शुरू हुआ 1857 से. चिंगारी शोला बनती गई. हौसलों की रोशनी में आज़ादी के अरमान वक्त की राहों पर क़दम बढ़ाते रहे. 15 अगस्त 1947 की सुबह भारत की भाग्य रेखा ने दुनिया के इतिहास में महाविजय की इबारत उकेर दी.
…आज़ादी का यह संघर्ष, वतन परस्तों का त्याग, संकल्पों का संदेश आज हमारी धरोहर है. लेकिन क्या हमारी चेतना में कभी हमारा बीता कल कौंधता, क्या हम आज़ादी के उसूलों की हिफाज़त के फर्ज़ अदा कर रहे हैं? इसी प्रश्नाकुलता और बेचैनी की बुनियाद पर रामवल्लभ आचार्य की कलम चल पड़ी. वे काव्य शैली में 1857 से 1947 तक की सैर कराते ज्वलंत अतीत को उजागर करते हैं.
इस रूपक के लिखे जाने के संयोग की भी एक रोचक कहानी है. वर्ष 1997-98 को शासन द्वारा स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की गई थी. तब वर्ष भर स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया गया था. इसी तारतम्य में दूरदर्शन द्वारा कमीशन्ड कार्यक्रमों के लिये कुछ विषय निर्धारित किये गए थे, जिनमें एक विषय स्वतंत्रता संग्राम संबंधी गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति का भी था. प्रस्ताव जमा करने की अंतिम तिथि से एक दिन पूर्व सायंकाल आचार्यजी के मित्र ने स्वतंत्रता संग्राम पर केन्द्रित 10 गीत मांगे.
जब स्‍वीकृत नहीं हुआ दूरदर्शन का प्रस्ताव
अगले दिन सुबह 10 बजे के पूर्व उन्हें ये गीत देने थे. रामवल्लभजी बताते हैं कि उस रात लगभग दो बजे उनकी नींद खुली और स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि मन-मस्तिष्क में घूमने लगीं. धीरे-धीरे एक के बाद दूसरे गीत की रचना होती गई. इस तरह आठ गीत सुबह छह बजे तक लिखा गए. तब दो पूर्व रचित राष्ट्र भक्ति गीत मिलाकर दस गीत उन्हें समय से पूर्व दे दिए. दूरदर्शन ने प्रस्ताव जमा कर दिया, लेकिन वह प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि आचार्यजी को निराशा तो हुई किन्तु बाद में इनमें से पांच गीतों को लेकर स्वतंत्रता के 90 वर्ष के संग्राम पर संगीत रूपक बनाने का विचार उन्हें आया.
इस पूरे इतिहास को मात्र 10-12 मिनिट में समेटना एक चुनौती थी और चुनौती यह भी थी कि यह सब विश्वसनीय, प्रामाणिक और निर्विवाद हो. आचार्यजी के अनुसार उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की पुस्तकें पढ़ीं, नोट्स लिये, घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण संकलित किया और प्रमुख स्वतंत्रता सेनाननियों की जानकारी संकलित की. इसके बाद रूपक का एक ढांचा तैयार किया. अनुभव किया कि इस संग्राम के मुख्यतः चार पक्ष थे.
पहला 1857 की असफल क्रांति का जिसमें विभिन्न राजे रजवाड़ों का अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष था. दूसरा महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अहिंसक आन्दोलन तथा तीसरा विप्लवी क्रान्तिकारियों का सशस्त्र प्रतिरोध था. चौथा पक्ष था नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज का सैन्य अभियान.
संगीत समारोह में 'मधुकली वृन्द' द्वारा वृन्दगान प्रस्तुति
अंत में, सूत्रधार द्वारा वर्तमान स्थितियों पर चिंतन की आवश्यकता प्रतिपादित करता यह संगीत रूपक मुकम्मल हुआ. इसे आकाशवाणी भोपाल के संगीत विभाग को प्रेषित किया. कुछ दिन बाद आचार्यजी को सूचित किया गया कि 15 अगस्त को दिनभर जिला स्थानों पर होने वाले कार्यक्रम प्रसारित किये जायेंगे अतः इसका प्रसारण संभव नहीं होगा. कुछ दिन बाद भोपाल के समाचार पत्रों में पं. लालमणि मिश्र संगीत समारोह में 'मधुकली वृन्द' द्वारा वृन्दगान प्रस्तुति का समाचार पढ़ा तो पं. ओम प्रकाश चौरसिया जी को इस संगीत रूपक की प्रति उन्होंने दी.
बकौल आचार्य, स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती के समापन के अवसर पर आकाशवाणी ने यह पांडुलिपि मांगी और इसके प्रसारण का अनुबंध कर लिया. 12 अगस्त को होने वाले पं. लालमणि मिश्र संगीत समारोह में भी इसकी प्रस्तुति का रास्ता खुल गया. भोपाल के रवीन्द्र भवन में मधुकली द्वारा इसे वृन्दगान के रूप में लगभग तीस वृन्द गायकों ने पेश किया और इस प्रस्तुति को व्यापक सराहना मिली. अनेक लोगों के आग्रह पर इसकी आडियो सीडी तथा कैसेट बनवाकर रिलीज किये गए. फिर किसी के सुझाव पर इसे रंगकर्मी मनोज नायर की कोरियोग्राफी के साथ पुनः प्रस्तुत किया गया तो इसका अद्भुत प्रभाव हुआ.
इसके बाद इसकी वीडियो सीडी भी बनायी गई. इसकी चर्चा देश भर में हुई और अनेक आयोजनों ने इसकी प्रस्तुति के लिये चौरसिया जी से संपर्क किया गया. बाद में इसकी प्रस्तुतियां भारत भवन भोपाल, मानव संग्रहालय भोपाल के अलावा सीहोर सागर एवं अन्य स्थानों के साथ ही बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के सभागार में भी किया गया. दूरदर्शन से भी इसका प्रसारण कई बार हुआ.
पंडित चौरसिया का सर्वथा अभिनव प्रयोग
पंडित चौरसिया के इस सर्वथा अभिनव प्रयोग में कविता, संगीत, वृन्दगान और नृत्य अभिनय के आयाम मिलकर एक नया रसायन पैदा करते हैं. ग़ौर करने का पहलू यह कि इस रूपक में मधुकली युव-वृन्द के शौकिया कलाकारों ने गायन और अभिनय का दोहरा दारोमदार बखूबी निभाया. बीएचयू (बनारस) का भव्य सभागार उस शाम दर्शकों से खचाखच था और प्रस्तुति के बाद बधाईयों का सिलसिला देर तक चलता रहा.
लगभग सवा घंटे के इस ध्वन्यांकित रूपक में वाचक स्वर विवेक मृदुल का है जबकि गायक समूह में रीना सिन्हा, संदीपा पारे, शोभना प्रधान, दिव्यता जैन, हर्षा, हिमानी, एकता गोस्वामी, देवना चौरसिया, उमा कोरवार, शुभा उपलपवार, पुनीत वर्मा, सुदीप सोहनी, गौरव शर्मा, गोपाल लेले, प्रशांत धवले, के.एस. अय्यर सहित करीब दो दर्जन कलाकार शामिल थे.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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