सम्पादकीय

तीनों कृषि कानून वापस: क्या चुनाव जीतने के लिए मजबूरी में लिया फैसला?

Gulabi
19 Nov 2021 1:53 PM GMT
तीनों कृषि कानून वापस: क्या चुनाव जीतने के लिए मजबूरी में लिया फैसला?
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तीनों कृषि कानून वापस
मिट गया जब मिटने वाला ,फिर सलाम आया तो क्या
दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या
सरकार का सलाम किसानों तक पहुंचा, लेकिन अब काफी देर हो चुकी है। इस गांधीवादी आंदोलन से जितनी किरकिरी उसकी होनी थी,वह हो चुकी है। अब उत्तर प्रदेश तथा चार अन्य प्रदेशों में चुनाव जीतने के लिए इस फ़ैसले का लाभ मिलेगा, इसमें संदेह है। फिर प्रधानमंत्री विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने का ऐलान करने पर क्यों मजबूर हो गए? महात्मा गाँधी के देश में साल भर से चल रहे इस शांतिपूर्ण आंदोलन पर दुनिया भर की नज़रें टिकी थीं।सरकार की किरकिरी हो रही थी। भले ही किसानों ने आंदोलन का स्वरूप गैर राजनीतिक रखा हो, लेकिन यह हक़ीकत है कि इसे विपक्षी दलों, समाज के तमाम वर्गों, कारोबारियों, ब्यूरोक्रेसी और भारतीय जनता पार्टी की अनेक उपधाराओं का समर्थन हासिल था।
राष्ट्रपति के संवैधानिक प्रतिनिधि राज्यपाल सतपाल मलिक तो खुल्लम खुल्ला किसान आंदोलन को समर्थन दे चुके थे। इसे राष्ट्रपति भवन का मूक समर्थन भी मान लिया गया था। यदि राष्ट्रपति अपने राज्यपाल से सहमत नहीं होते तो अब तक उन्हें हटा चुके होते या उनसे इस्तीफ़ा ले चुके होते। चूंकि राष्ट्रपति बजट सत्र की शुरुआत अपनी सरकार की उपलब्धियों से ही करते हैं और संविधान भी केंद्र सरकार को राष्ट्रपति की सरकार मानता है। ऐसे में बहस यह भी छिड़ गई थी कि क्या राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है?
फैसले ने उपजा दिए हैं कई सवाल
सवाल यह है कि सत्याग्रही किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी,देशद्रोही,विदेशी पैसे पर चलने वाला बताने के बाद केंद्र सरकार को यू टर्न क्यों लेना पड़ा? आज़ादी के बाद पहली बार किसी ग़ैर कांग्रेसी पार्टी ने अपनी दम पर बहुमत हासिल किया था और इसी ठसक तथा दबंगी के साथ राज कर रही पहली ग़ैर कांग्रेसी पार्टी ने घुटने क्यों टेके? इन प्रश्नों का उत्तर किसी ताले में बंद नहीं है।यही छिपा हुआ नहीं है कि महाराष्ट्र और बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी अपने बेहद कठिन दौर से गुजर रही है। दक्षिण में उसका वजूद असरदार नहीं है। पूरब और पश्चिम में वह पटखनी खा चुकी है।अब उसके कामकाज का लिटमस टेस्ट उत्तर में होने वाला है।
उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। योगी सरकार का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है।लखीमपुर खीरी हादसे ने लोगों को हिला दिया है। उसमें एक केंद्रीय मंत्री और उनके बेटे की भूमिका ने उन्हें खलनायक बना दिया है। मुख्यमंत्री योगी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच टकराव रंजिश की शक़्ल ले चुका है।इसके अलावा पंजाब में भी भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किल घड़ी है।वहां दशकों पुराना उसका सहयोगी अकाली दल छिटक गया है।अब कांग्रेस से किनारा कर चुके पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह बीजेपी के लिए कुछ सहारा बन सकते हैं,लेकिन वे तभी समर्थन देने या लेने को तैयार थे, जबकि केंद्र सरकार कृषि क़ानून वापस लेती।
इसी कड़ी में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने के बाद भी अंतर्कलह थमने का नाम नहीं ले रही है।ऊपर से केंद्र सरकार की नाकामियों के प्रेत भी मंडरा रहे हैं। किसान आंदोलन चुनाव वाले प्रदेशों में एक गंभीर मुद्दा बनकर उभरा है। इस आंदोलन के चलते भारतीय जनता पार्टी के पास मतदाता के सामने जाने का कोई नैतिक आत्मबल नहीं बचा था।
उत्तर प्रदेश का चुनाव है केंद्र
अन्य प्रदेशों में तो एक बार पार्टी सारा ज़ोर लगाकर चुनाव मैदान में कूद सकती थी लेकिन उत्तर प्रदेश का मामला अलग है। इस राज्य से राष्ट्रपति चुने गए हैं, प्रधानमंत्री चुने गए हैं, रक्षामंत्री निर्वाचित हैं, और भी कई केंद्रीय मंत्री इस प्रदेश से हैं,पार्टी का सबसे बड़ा हिन्दू चेहरा मुख्यमंत्री के रूप में उनके साथ है, राहुल गाँधी को कांग्रेस के गढ़ में हराने वाली स्मृति ईरानी जैसी फायर ब्रांड नेत्री इसी राज्य से हैं और आधा गांधी ख़ानदान बीजेपी के साथ है (यह बात अलग है कि वरुण गांधी और मेनका गांधी इन दिनों अपने दल से प्रसन्न नहीं हैं )।
इसके अलावा प्रदेश की बड़ी समस्याओं से निपटने में सरकार विफ़ल रही है।हाल ही में कांग्रेस पार्टी की नेत्री प्रियंका गांधी और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की रैलियों में जिस तरह लोग उमड़े हैं ,उसने यक़ीनन भारतीय जनता पार्टी की नींद उड़ा दी होगी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी अपना हारना पचा नहीं पाएगी। यह उसके अपने राजनीतिक भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
आनन-फानन के फैसले
तीनों कृषि क़ानून जिस ढंग से संसद में पास कराए गए थे ,उसे पूरे देश ने देखा था।इससे केंद्र सरकार की बदनामी ही हुई थी। जानकार लोग हैरान थे कि जब बीजेपी केंद्र सरकार अपने दम पर चला रही है तो किसी भी क़ानून को पास कराने में लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा क्यों की गई? पार्टी पर बड़े पूंजीपतियों के हित संरक्षण का आरोप लगा और हिन्दुस्तान ने अब तक का सबसे लंबा अहिंसक आंदोलन देख लिया। इन पूंजीपतियों को तो बाद में भी फायदा पहुंचाया जा सकता है, लेकिन एक बार उत्तर प्रदेश का क़िला अगर भारतीय जनता पार्टी ने हाथ से निकल जाने दिया तो फिर यह तथ्य स्थापित हो जाएगा कि नरेंद्र मोदी का तिलिस्म अब टूटने लगा है।
निश्चित रूप से संसार का सबसे बड़ा यह दल नहीं चाहेगा कि ऐसी स्थिति निर्मित हो।इसीलिए बिना कैबिनेट की बैठक बुलाए या दिग्गजों को भरोसे में लिए प्रधानमंत्री ने कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा कर दी। देर आयद दुरुस्त आयद की कहावत कितनी काम आती है - यह देखना है।
अमर उजाला
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