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पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव परिणामों की घोषणा के साथ ही एक बार फिर से 'एक देश एक चुनाव एक देश एक चुनाव की बात सामने आती दिख रही है
लालजी जायसवाल।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव परिणामों की घोषणा के साथ ही एक बार फिर से 'एक देश एक चुनाव एक देश एक चुनाव की बात सामने आती दिख रही है। इन पांच राज्यों के चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जनता का अपार समर्थन मिलने का बड़ा कारण केंद्रीय योजनाओं से लोगों का व्यापक रूप से लाभान्वित होना था। इसी का परिणाम रहा है कि चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को जनता ने एक कार्यकाल के लिए फिर से बहुमत प्रदान किया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार 'एक देश एक चुनाव पर भरपूर जोर दे रही है।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों संसदीय समिति ने संसद के दोनों सदनों में पेश अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि अगर देश में एक ही बार में सभी प्रकार के चुनाव संपन्न किए जाएंगे, तो न केवल इससे सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा, बल्कि राजनीतिक दलों का खर्च कम होने के साथ साथ मानव संसाधन का भी अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही, मतदान के प्रति मतदाताओं की जो उदासीनता बढ़ रही है, वह भी कम हो सकेगी। बता दें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई बार कह चुके हैं कि एक देश एक चुनाव अब केवल चर्चा का विषय नहीं है, बल्कि यह भारत की सामयिक आवश्यकता भी है, क्योंकि देश में हर महीने कहीं न कहीं बड़े चुनाव हो रहे होते हैं। इससे विकास के कार्यों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे देश भली-भांति वाकिफ है। सर्वविदित है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो राजनीतिक दल भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज्यादा समय दे पाएंगे।
हालांकि एक देश एक चुनाव की बात कोई नई नहीं है, क्योंकि वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। लेकिन वर्ष 1967 के बाद कई बार ऐसी घटनाएं सामने आई हंै, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा अलग-अलग समय पर भंग होती रही है। इसका एक बड़ा कारण कई राज्य विधानसभाओं में विश्वास मत प्राप्त नहीं होने के कारण समय से पहले सरकारों का भंग होना रहा है। साथ ही कई कारणों से सत्ता में रहे दलों का आपसी गठबंधन टूटने से भी कई राज्यों में सरकारें अपना कार्यकाल नहीं पूरा कर पाई हैं। कई बार तो ऐसी परिस्थितियों लोकसभा में भी आ चुकी है, जिस कारण केंद्र सरकार का कार्यकाल भी पांच वर्ष पूरा नहीं कर सका है।
इन परिस्थितियों को देखते हुए 'वन नेशन, वन इलेक्शनÓ आज अपरिहार्य है। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी एक संबंधित रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता भी जताई गई। चूंकि पूर्व में विधानसभाएं समय रहते ही भंग होती रही हैं। लिहाजा कई राज्य विधानसभाओं की समय सीमा भी कम करनी होगी और कई की समय सीमा बढ़ानी भी पड़ सकती है। यही समस्या लोकसभा में भी हो सकती है। अत: इन तमाम समस्याओं का समाधान करने के लिए अनुच्छेद 83 (लोकसभा की अवधि पांच वर्ष तय है), अनुच्छेद 85 (राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की शक्ति), अनुच्छेद 172 (विधानसभा की अवधि इसके गठन से पांच वर्ष) और अनुच्छेद 174 (राज्यपाल को विधानसभा को भंग करने की शक्ति) में संशोधन करने की आवश्यकता होगी। साथ ही लोक प्रतिनिधि कानून में भी बदलाव की जरूरत होगी।
एक देश एक चुनाव के फायदे : एक देश एक चुनाव के अनेक फायदे हैं, जो देश की प्रगति को एक नई दिशा प्रदान करेंगे, क्योंकि बार-बार चुनावों में खर्च होने वाली धन राशि बचेगी। इसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संकट निवारण आदि ऐसे कार्यों में खर्च कर सकेंगे, जिससे लोगों के जीवन स्तर का सुधार संभव हो सकेगा। लोगों के आर्थिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन मे सुधार सुनिश्चित हो सकेगा। कई देशों ने विकास को गति देने के लिए एक देश एक चुनाव के समीकरण को अपना रखा है। जैसे स्वीडन में पिछले साल आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एक साथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है।
गौरतलब है कि एक साथ चुनाव से आर्थिक बोझ कम होगा, क्योंकि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में 11 सौ करोड़ रुपये, वर्ष 2014 में चार हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। पिछले लोकसभा चुनाव 2019 में लगभग छह हजार करोड़ का भारी खर्च हुआ था। इसी प्रकार, विधानसभाओं के चुनाव में भी यही स्थिति नजर आती रही है। साथ ही बार-बार चुनाव होने के कारण आचार संहिताओं से राज्यों को दो चार होना पड़ता है, जिससे सभी प्रकार के विकास कार्य बाधित होते हैं। इससे शिक्षा क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित होता है। इसका एक सामाजिक और आर्थिक दुष्प्रभाव यह भी होता है कि काले धन का प्रवाह बढ़ जाता है। यदि एक साथ चुनाव होगा तो काले धन के प्रवाह पर निश्चित ही रोक लग सकेगी। साथ ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने से आपसी सौहार्द बढ़ेगा, क्योंकि चुनाव में बार-बार ऐसे मुद्दे नहीं उठेंगे जिनसे सामाजिक सद्भाव बिगडऩे का अंदेशा रहता है।
समस्याएं भी कम नहीं : बता दें कि एक साथ चुनाव देश के हित में विकास को परिलक्षित करता है। निश्चित ही एक साथ चुनाव कराने से कुछ समस्याओं का सामना भी करना होगा, लेकिन सदैव के लिए इससे मुक्ति पाने के संदर्भ में एक देश एक चुनाव जरूरी है। इससे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर संकट आ सकता है और उनके क्षेत्रीय संसाधन सीमित हो सकते हैं। एक बड़ा मसला केंद्रीय अर्धसैनिक बलों से संबंधित है, क्योंकि ऐसा होने पर इनकी आवश्यकता अधिक संख्या में होगी। अत: केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में भारी संख्या में नियुक्ति की जरूरत पड़ेगी। एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम की पर्याप्त आवश्यकता पड़ेगी।
एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में 12 से 15 लाख ईवीएम उपयोग करने के लायक हैं। लेकिन जब एक साथ चुनाव होंगे तो उसके लिए 30 लाख तक ईवीएम की आवश्यकता हो सकती है। इसके साथ ही इन सभी ईवीएम में वीवीपैट भी लगाने होंगे। इन सब को पूरा करने के लिए चार से पांच हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। इससे निश्चित रूप से पूंजीगत खर्च बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं, एक साथ इतनी अधिक संख्या में ईवीएम की जरूरत को पूरा करना होगा और प्रति तीन बार चुनाव यानी 15 वर्षों के बाद इनको बदलना भी होगा, क्योंकि इनका जीवनकाल पंद्रह साल तक ही होता है। हालांकि एक साथ चुनाव से होने वाले लाभों को देखते हुए इस पर किया जाने वाला खर्च कहीं अधिक तार्किक ओर प्रासंगिक जान पड़ता है। इससे सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा और यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में लगी रहे।
बार बार चुनाव से धन की बर्बादी % कहना गलत नहीं होगा कि आम चुनाव में तमाम राजनीतिक दल लगभग साठ-सत्तर हजार करोड़ रुपये यूं ही खर्च कर देते हैं और राज्य विधानसभा चुनावों में भी करीब इतना ही खर्च हो जाता है। अगर दोनों को मिलाकर देखा जाए तो लगभग सवा लाख करोड़ रुपये के आसपास राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाते हैं। अब जब एक देश एक चुनाव से प्रचार अभियान भी पांच वर्षों में केवल एक ही बार संचालि होगा तो निश्चित रूप से खर्च भी घटकर आधा रह जाएगा। इतने धन की बचत होगी तो देश की दशा और दिशा का सही तरीके से निर्धारण हो पाएगा और लोगों को अच्छा जीवन स्तर मिल सकेगा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि देश में एक चुनाव को सहमति प्रदान करना देश की प्रगति में चार चांद लग सकता है। विदित हो कि देश में निरंतर विधानसभा चुनाव होते रहते हैं। जैसे अभी पांच राज्यों का संपन्न हुआ है, इस वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश का संभावित है, फिर अगले वर्ष के आरंभ में त्रिपुरा और कुछ अन्य राज्यों है, जबकि अगले वर्ष के अंतिम समय में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव आसन्न हैं। साथ ही पिछले वर्ष बंगाल समेत कुछ अन्य राज्यों में विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं। यानी यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। साथ ही इसमें स्थानीय निकाय चुनाव और उनके खर्चों को जोड़ दिया जाए तो एक साथ चुनाव कराने के अनेक फायदे सामने आते दिख रहे हैं।
इस संबंध में एक बड़ी चिंता काले धन से भी जुड़ी है। ऐसे में चुनाव सुधारों की प्रक्रिया का मुख्य फोकस लोकतंत्र के मूल अर्थ को व्यापक बनाना, इसे नागरिकों के अधिक अनुकूल बनाना ही है। यह भी सही है कि आज के समय में चुनाव भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत बन चुका है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद से करोड़ों रुपये की नकदी जब्त होना एक परंपरा सी बन गई है। जितनी धनराशि चुनाव लडऩे के लिए तय की गई है, उम्मीदवार उससे कहीं अधिक धन खर्च करते हैं।
एक देश एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं दिखती है, किंतु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जाता रहा है, उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य लागू कर पाना संभव नहीं हो सकेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिए एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। लेकिन अब सरकार की प्रतिबद्धता से निश्चित ही यह कार्य संभव हो सकेगा। सरकार का विकासात्मक एजेंडे का ही एक भाग वन नेशन, वन इलेक्शन भी है।
वास्तव में यह देश के हित में भी है। प्रधानमंत्री लंबे समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय बंटी हुई रही है। पिछले साल जब एक संबंधित आयोग ने इस मसले पर राजनीतिक दलों से सलाह ली थी, तब समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियों ने एक देश, एक चुनाव के सोच का समर्थन किया था। अत: अब समय आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दलों को एकजुटता के साथ सरकार के एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर चर्चा कर इसे लागू कराने पर अपनी सहमति देनी चाहिए।
Rani Sahu
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