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देश के नौजवानों को आईएएस और आईपीएस जैसे दमदार अफसर बनाने वाली सबसे कठिन सिविल सर्विस परीक्षा में एक बहुत ही प्रभावशाली एवं विचार प्रधान विषय पर निबंध लिखने को कहा गया था
डॉ॰ विजय अग्रवाल
देश के नौजवानों को आईएएस और आईपीएस जैसे दमदार अफसर बनाने वाली सबसे कठिन सिविल सर्विस परीक्षा में एक बहुत ही प्रभावशाली एवं विचार प्रधान विषय पर निबंध लिखने को कहा गया था. निबंध का विषय था, 'शोध क्या है, ज्ञान के साथ एक अजनबी मुलाकात.' निबंध के इस शीर्षक की मुझे तब याद आ गई, जब महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के जन्म दिन 14 मार्च (सन् 1879) के अवसर पर मैंने उनके सापेक्षता के सिद्धांत पर कुछ लिखने की सोची. उनके साथ भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था, दुनिया को देखने और समझने की दृष्टि को बदल देने वाले अद्भुत ज्ञान के साथ एक अचानक-अनचिन्ही मुलाकात.
तो क्या हुआ था आइंस्टीन के साथ ऐसा, आइये जानते हैं.
यह सन् 1926 की बात है, सापेक्षता के सिद्धांत की घोषणा के इक्कीस वर्ष बाद की बात. आइंस्टीन की पत्नी के कहने पर अपने समय के महान कलाकार चार्ली चैप्लिन ने इन दोनों को अपने घर पर बुलाया. तब आइंस्टीन की पत्नी एल्सा ने चार्ली को इस 'अजनबी मुलाकात' वाली घटना सुनाई थी. एल्सा अपने इस वैज्ञानिक पति को 'प्रोफेसर' कहती थीं, क्योंकि आइंस्टीन के कैरियर का सबसे लम्बा वक्त भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में ही रहा था.
इस प्रोफेसर की पत्नी ने यह वाकया बड़े दिलचस्प तरीके से कुछ यूं सुनाया था –
"अपने ड्रेसिंग गाउन में प्रोफेसर सुबह-सुबह नाश्ता करने के लिए नीचे आये. पर उन्होंने डाइनिंग टेबल पर रखी हुई किसी भी चीज को छुआ तक नहीं. बस, अपना मुँह बनाये बैठे रहे. उन्हें इस तरह देखकर मैं डर गई कि कहीं कोई चीज खराब तो नहीं बना दी मैंने. मैंने उनसे दो बार पूछा, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. मैंने सोचा कि अब मैं उन्हें झिंझोड दूं. पर अचानक उनमें थोड़ी हरकत हुई. उन्होंने कॉफी की दो घूंट भरी और बोले, 'क्या बात सूझी है मुझे.'
वे तुंरत उठे, और जाकर वायलिन बजाने लगे. उन्होंने अभी एक धुन भी पूरी नहीं की थी कि बजाना छोड़कर कुछ लिखने लगे. लिखना छोड़कर फिर वायलिन और थोड़ी ही देर में वायलिन छोड़कर लिखना, यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा.
'क्या बात है, क्या चीज है…', वे फिर बोले.
मैंने कहा, 'मुझे बताओ तो सही कि बात क्या है. क्यों बेवजह सस्पेंस बना रहे हो.'
'मैं अभी इसका विश्लेषण नहीं कर पाऊंगा. मुझे थोड़ा समय चाहिए.'
यह कहते हुए प्रोफेसर ऊपर अपने अध्ययन कक्ष में चले गये. साथ ही हिदायत भी दे गये कि उन्हें बिल्कुल भी डिस्टर्ब न किया जाए.
दो सप्ताह हो गये. वह शाम को सिर्फ पांच मिनट की चहलकदमी के लिए नीचे आते, बस. मैं उनका भोजन ऊपर ही भेजती रही. ठीक दो हफ्ते के बाद की शाम को वे नीचे उतरे बेहद थके-थके से, और बोले- 'हो गया, यह रहा.'
उनके हाथ में केवल दो पन्ने थे. मुझे नही पता था कि ये दो पन्ने ही दुनिया को हिलाकर रख देंगे. वह था – 'सापेक्षता का सिद्धांत.'
अभी तक भौतिकी की दुनिया में आइजक न्यूटन की तूती बोलती थी. दूसरे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे ब्रिटेन के ही चार्ल्स डार्विन, जिन्होंने इस पृथ्वी पर जीव के विकास का सिद्धांत दिया था. अब आ गये थे आइंस्टीन, जिन्होंने सापेक्षता का सिद्धान्त क्या दिया कि न्यूटन का सिद्धान्त पुराना ही नही, बल्कि कुछ-कुछ गलत भी साबित हो गया.
आइये जानते हैं इस सिद्धांत की मूलभूत बात, और वह भी व्यावहारिक स्तर पर.
आइंस्टीन ने कहा कि ब्रह्माण्ड में गुरुत्वाकर्षण का जो खिंचाव देखा जाता है, उसका असली कारण है कि प्रत्येक वस्तु अपने मान (भार) और आकार के अनुसार अपने इर्द-गिर्द के दिक् (स्पेस) और काल (समय) में एक मरोड़ पैदा करती है. पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति इसी कारण से है.
उदाहरण के रूप में यदि हम एक चादर को पूरी तरह फैलाकर बांध दें, और उसके बीचों-बीच एक वजनी पत्थर रख दें, तो चादर में मरोड़ आ जायेंगे, और पत्थर बीच तक लुढ़क जायेगा.
इसी आधार पर आइंस्टीन ने न्यूटन के सिद्धांत के विरूद्ध यह बताया कि यदि दो वस्तुयें एक किलोमीटर की दूरी पर रखी हुई हों, और उनमें कोई भी गति न हो रही हो, तब भी उनकी यह दूरी दिक् और काल के खिंचाव या सिकुड़न के कारण अधिक या कम हो सकती है. यह दूरी बढ़कर सवा किलोमीटर या घटकर पौन किलोमीटर हो सकती है.
आइंस्टीन ने अपने इस सिद्धांत में इसका भी उत्तर दिया था कि फिर मनुष्य इसे देख क्यों नहीं पाता. उन्होंने सिद्ध किया कि जब कोई वस्तु तेज गति से चलती है, तो उसके लिए समय की रफ्तार धीमी हो जाती है. यदि किसी का मित्र अपने हिसाब से दस वर्ष तक प्रकाश से आधी गति पर यात्रा करके लौटे, तो उसके दस साल गुजरेंगे, लेकिन उसके दोस्त के साढ़े ग्यारह वर्ष बीत चुके होंगे.
चूंकि मनुष्य का आकार बहुत छोटा है, और उसकी गति बहुत ही कम है, इसलिए उसे अपने जीवन में सापेक्षता का सिद्धान्त नजर नहीं आता है.
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