सम्पादकीय

वंशवादी दलों के लिए खतरे की घंटी: उद्धव ठाकरे का जो हश्र हुआ, उनसे राजनीतिक पार्टियां चेत जाएं तो बेहतर

Gulabi Jagat
3 July 2022 7:22 AM GMT
वंशवादी दलों के लिए खतरे की घंटी: उद्धव ठाकरे का जो हश्र हुआ, उनसे राजनीतिक पार्टियां चेत जाएं तो बेहतर
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वंशवादी दलों के लिए खतरे की घंटी
संजय गुप्त। आखिरकार शिवसेना में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुआ विद्रोह उद्धव ठाकरे सरकार को ले डूबा। शिवसेना के अधिसंख्य विधायकों के शिंदे के साथ खड़े हो जाने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास आघाड़ी सरकार के दिन पूरे हो गए हैं। कायदे से उद्धव ठाकरे को पहले ही त्यागपत्र दे देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने यह काम तब किया, जब राज्यपाल के बहुमत परीक्षण के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इन्कार कर दिया। महाविकास आघाड़ी सरकार के पतन के बाद जब यह माना जा रहा था कि शिंदे गुट के समर्थन से देवेंद्र फडणवीस ही मुख्यमंत्री बनेंगे, तब भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कर सबको चौंका दिया।
लोग तब भी चौंके, जब देवेंद्र फडणवीस ने यह कहा कि वह सरकार में शामिल नहीं होंगे। बाद में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की पहल से वह उप मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार हुए। जो लोग इस पर उनका उपहास उड़ा रहे हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी ही राजनीतिक सक्रियता से महाविकास आघाड़ी सरकार का पतन हुआ और वह भविष्य में फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं, क्योंकि एक तो उम्र उनके साथ है और दूसरे, यह मानना सही नहीं होगा कि उप मुख्यमंत्री बनने से उनका कद कम हुआ है।
ऐसा लगता है कि भाजपा नेतृत्व ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला अंतिम क्षणों में लिया, ताकि उद्धव ठाकरे को यह कहकर लोगों की हमदर्दी हासिल करने का अवसर न मिले कि भाजपा ने सत्ता पाने के लिए उनके रूप में एक शिवसैनिक को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाने का काम किया।
खुद को असली शिवसेना बता रहे एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के बाद उद्धव ठाकरे के लिए यह सिद्ध करना और कठिन होगा कि केवल वही बाल ठाकरे की विरासत का नेतृत्व कर रहे हैं। एकनाथ शिंदे जिस तरह खुद को शिवसेना की विचारधारा का नेतृत्व करने वाला बता रहे हैं और उन्होंने जिस प्रकार अपनी प्रोफाइल फोटो में खुद को बाल ठाकरे के अनुयायी के रूप में दिखाया, उसके बाद उद्धव ठाकरे को अपने बचे-खुचे को समर्थकों को अपने साथ बनाए रखना कठिन हो सकता है।
इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि महाविकास आघाड़ी सरकार एक बेमेल सरकार थी। शिवसेना ने पिछला विधानसभा भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था। उसे 56 सीटें मिली थीं और भाजपा को 105। कायदे से दोनों दलों को मिलकर सरकार बनानी चाहिए थी, लेकिन शिवसेना अचानक इस पर अड़ गई कि मुख्यमंत्री का पद उसे दिया जाए।
भाजपा इसके लिए तैयार नहीं हुई और इसका कारण यह था कि उसने ऐसा कोई वादा नहीं किया था कि मुख्यमंत्री पद शिवसेना को दिया जाएगा। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनने के लिए इतना लालायित थे कि उन्होंने समान विचारधारा वाली भाजपा से नाता तोड़कर उस कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला लिया, जो उसकी कट्टर विरोधी थीं और उसे हर समय सांप्रदायिक बताती रहती थीं। चूंकि महाविकास आघाड़ी हर लिहाज से एक अस्वाभाविक गठबंधन था, इसलिए उसे न केवल विफल होना था, बल्कि यह भी तय था कि उसकी कीमत शिवसेना को चुकानी पड़ेगी। आखिरकार ऐसा ही हुआ।
एकनाथ शिंदे के साथ शिवसेना के 40 के करीब विधायक खड़े हो गए तो इसीलिए, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि उद्धव ठाकरे की रीति-नीति शिवसेना का बेड़ा गर्क कर रही है। इन विधायकों के लिए अपने लोगों के इस सवाल का जवाब देना भी मुश्किल हो रहा था कि वे कांग्रेस और राकांपा के साथ सत्ता में भागीदारी कैसे कर सकते हैं? ये विधायक यह जान रहे थे कि उनके लिए अगला चुनाव जीतना कठिन होगा, लेकिन उद्धव ठाकरे इसे समझने से इन्कार करते रहे। इसी कारण उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी। आने वाले समय में इसकी पूरी संभावना है कि शिवसेना के काडर का एक बड़ा हिस्सा एकनाथ शिंदे के साथ चला जाए।
उद्धव ठाकरे कुछ भी दावा करें, उनमें बाल ठाकरे जैसा करिश्मा नहीं। एक समय राज ठाकरे को बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी माना जाता था, लेकिन शायद बाला साहब पुत्र मोह का शिकार हो गए। भले ही उद्धव ठाकरे के समर्थक उन्हें एक काबिल मुख्यमंत्री का दर्जा देते रहे हों, लेकिन वह एक कमजोर मुख्यमंत्री के रूप में ही सामने आए। वह कुछ अपने स्वभाव और कुछ कोविड महामारी के चलते न केवल आम जनता, बल्कि अपने विधायकों और मंत्रियों से भी कट गए। रही-सही कसर इस धारणा ने पूरी कर दी कि महाविकास आघाड़ी सरकार तो शरद पवार चला रहे हैं। यह धारणा इसलिए और मजबूत हुई, क्योंकि उद्धव ठाकरे कई मुद्दों पर शिवसेना की विचारधारा के विपरीत जाकर काम और बात करते नजर आए।
उनके पास यह अवसर था कि वह बहुमत परीक्षण का सामना करते और उसी दौरान अपनी बात सदन में कहते, लेकिन उन्होंने फेसबुक लाइव का सहारा लिया और उसी समय त्यागपत्र देने की घोषणा की। ऐसा करके उन्होंने अपने को एक कमजोर नेता ही साबित किया। अब ठाकरे परिवार के लिए बीएमसी का चुनाव जीतना कठिन हो सकता है, जहां उसका एक लंबे समय से दबदबा है। बीएमसी देश में सबसे अधिक बजट वाली महानगर पालिका है। अगर उद्धव ठाकरे के हाथ से बीएमसी निकला तो महाराष्ट्र की जनता को यही संदेश जाएगा कि उनकी ताकत कम हो रही है। इससे शिवसेना की आय का स्रोत भी सूख जाएगा। इन दिनों इस पर खूब बहस हो रही है कि आखिर भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री क्यों बनाया, लेकिन यह पहली बार नहीं, जब उसने ऐसा किया हो।
बिहार में भी उसने ऐसा ही कर रखा है, जबकि जदयू के विधायकों की संख्या भाजपा के विधायकों से कहीं कम है। विपक्षी दल यह तंज भी कस रहे हैं कि फडणवीस मुख्यमंत्री बनने वाले थे, लेकिन उप मुख्यमंत्री बन कर रह गए, लेकिन वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भाजपा की इस पहल ने ठाकरे परिवार की सारी रणनीति पर पानी फेर दिया है। उद्धव ठाकरे का जो हश्र हुआ, उनसे अन्य राजनीतिक दलों और खासकर वंशवादी दलों को चेत जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि भाजपा ने ऐसे दलों के खिलाफ अपनी मुहिम और तेज कर दी है। यह कोई छिपी बात नहीं कि समाजवादी पार्टी, डीएमके, टीडीपी, राकांपा, झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे तमाम क्षेत्रीय दल परिवारवाद के पर्याय बन गए हैं। चूंकि ये दल निजी कंपनियों की तरह चल रहे हैं, इसलिए इन दलों में भी एकनाथ शिंदे जैसे नेता उभर सकते हैं।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]
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