सम्पादकीय

वायु प्रदूषण : धुंध में शासन और बेदम लोग

Neha Dani
23 Nov 2021 1:39 AM GMT
वायु प्रदूषण : धुंध में शासन और बेदम लोग
x
स्वास्थ्य का सार्वजनिक अधिकार मौसम की दया या वरुण देव की प्रार्थना पर नहीं छोड़ा जा सकता।

दो भारत हैं! एक वह जो वायु प्रदूषण के खत्म होने का अंतहीन इंतजार कर रहा है और दूसरा वह, जो इस मुद्दे को हल करने में हमेशा से लगा रहा है और इसकी शर्मनाक बढ़ोतरी पर पनप रहा है। शासन द्वारा कामकाज का परित्याग अब सरकारों की रणनीति का हिस्सा है। अप्रत्याशित रूप से बुधवार को देश के प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि 'नौकरशाही जड़ता में चली गई है' और अदालतों के निर्देश की प्रतीक्षा कर रही है। उन्होंने कहा कि इतिहास पहले खुद को त्रासदी और फिर तमाशे के रूप में दोहराता है। वायु प्रदूषण की कहानी केवल प्रणालीगत विफलताओं की झांकी है।

वर्ष 2000 में सरकार ने संसद में स्वीकार किया था कि 'महानगरों में वायु प्रदूषण आर्थिक गतिविधियों, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण में वृद्धि को प्रदर्शित करता है।' वर्ष 2008 में, सरकार ने संसद को सूचित किया कि केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा वायुमंडलीय वायु गुणवत्ता की निगरानी की जाती है और उपायों की प्रभावकारिता निर्धारित करने के लिए आंकड़े प्रसारित किए जाते हैं।
आपको लगता होगा कि शुरुआती चेतावनियां और निगरानी मायने रखती हैं। लेकिन वर्ष 2015 में जाकर 'वायु आपातकाल' शब्द प्रचलन में आया। दिसंबर, 2015 में प्रकाश जावड़ेकर ने कृषि अपशिष्ट (पराली) निपटान, कचरा जलाने, लैंडफिल, निर्माण, परिवहन उत्सर्जन आदि से पार्टिकुलेट सामग्री के उत्सर्जन और घातक स्तर, दोनों उत्पन्न करने वाले कारकों से निपटने के लिए वायु अधिनियम की धारा 18 के तहत 39 कदमों की घोषणा की।
यह योजना कैसी रही? इसका उत्तर है, निगरानी और कार्यान्वयन, दोनों ही उपाय पूरी तरह सफल नहीं हुए। वर्ष 2017 में स्कूल बंद करने पड़े, विदेशी राजनयिकों ने विरोध किया और अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रोक दी गईं। वर्ष 2019 में आपातकालीन उपायों की घोषणा की गई और क्रिकेट खिलाड़ियों ने मास्क पहनकर प्रशिक्षण लिया। वर्ष 2021 में एक ग्रेडेड रेस्पॉन्स ऐक्शन प्लान लागू है, फिर भी आपात स्थिति है।
दो दशक बाद ऐसा लगता है कि कुछ नहीं बदला है। और एक बार फिर दो भारत हैं। एक दिल्ली है, जिस पर राष्ट्रीय राजनेता ध्यान देते हैं और दूसरा शेष भारत है, जो चुपचाप पीड़ित है। दिल्ली का खास भूगोल स्पष्ट रूप से एक राष्ट्रीय समस्या की भयावहता को उजागर करता है।
अगस्त, 2021 में सरकार ने 1,114 निगरानी केंद्रों का आंकड़ा संसद में साझा किया, जो बताता है कि 132 शहर पीएम (पार्टिकुलेट मैटर) के स्तर के मामले में राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक पर खरा नहीं उतरते। इनमें से 17 शहर उत्तर प्रदेश के हैं और 23 महाराष्ट्र के। दिल्ली, कानपुर, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अमृतसर, लुधियाना, आगरा जैसे 50 से अधिक शहरों ने 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ऊपर पीएम स्तर की सूचना दी, जो कि 31 माइक्रोग्राम/एम3 के स्वीकार्य मानक से तीन गुना अधिक है। रविवार को उत्तर प्रदेश के 37 से अधिक शहरों में पीएम 10 का स्तर 100 से अधिक दर्ज किया गया, जो कि पीएम के सामान्य स्तर का तीन गुना है।
खराब वायु गुणवत्ता के दुष्प्रभाव होते हैं। सितंबर 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खुलासा किया कि वायु प्रदूषण दुनिया भर में 70 लाख से अधिक असामयिक मौतों का कारण था। इनमें से करीब 25 फीसदी मौतें भारत में होती हैं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी-2019 के अनुमानों के अनुसार, वायु प्रदूषण भारत में 17 लाख से अधिक मौतों का कारण है-यानी एक घंटे में 1,900 से अधिक मौतें।
वर्ष 1998 के बाद से पेश किए गए सबूतों के बावजूद एक के बाद एक आने वाली सरकार ने प्रदूषण और मौतों के संबंध को नकारने का काम किया है। जैसा कि अगस्त, 2021 में संसद में फिर बताया गया कि 'खासकर वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु/बीमारी का सीधा संबंध स्थापित करने के लिए देश में कोई निर्णायक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।'
हवा की गुणवत्ता जमीनी स्तर पर नीतियों के फासले को दर्शाती है। अनिवार्य रूप से, यह सभी क्षेत्रों में नीतियों और क्षमता निर्माण को साथ लाने का आह्वान करता है, ताकि गैसों के उत्सर्जन और पर्टिकुलेट मैटर के उत्पादन, दोनों को कम किया जा सके। मसलन, पराली निपटान कृषि उपज को प्रभावित करता है, पर किसानों को विकल्पों की आवश्यकता होती है। बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज बनाने (पराली को दूसरे क्षेत्र की उत्पादन गतिविधियों में उपयोग) के लिए स्टार्ट-अप इको सिस्टम का लाभ क्यों नहीं उठाया जाता?
शहरीकरण (निर्माण के गंदे परिदृश्य से लेकर आवागमन की निरंकुशता तक) वायु प्रदूषण का एक स्पष्ट कारण है। क्या हर भारतीय को घंटों जाम में फंसने के लिए मजबूर होना चाहिए? व्यक्तिगत परिवहन की आवश्यकता जन परिवहन प्रणालियों की कमी के कारण होती है। अब कोमा में चले गए 'स्मार्ट सिटीज' पहल को फिर से आकार देने पर इसका समाधान निकल सकता है।
कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों पर शहरों की निर्भरता भी एक मुद्दा है। यदि संयंत्रों को बंद करना है, तो इनका विकल्प लाने की जरूरत है। अब जब भारत नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है, तो रूफटॉप सोलर को क्यों न प्रेरित करें, मेगावाट के बजाय प्रति/किलोवाट के संदर्भ में सोचें और घरों और शहरी वाणिज्यिक स्थानों के लिए ऑफ-ग्रिड समाधानों को प्रोत्साहित करें।
खराब वायु गुणवत्ता का नतीजा व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। इसका अर्थव्यवस्था की सेहत पर असर पड़ता है, नतीजतन संभावित विकास भी प्रभावित होता है। ब्रिटेन स्थित गैर-लाभकारी स्वच्छ वायु कोष, प्रबंधन फर्म डालबर्ग एडवाइजर्स और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के एक अध्ययन का अनुमान है कि वायु प्रदूषण के प्रभाव से अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के तीन प्रतिशत या लगभग सात लाख करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होता है।
ऐसा नहीं है कि समस्या नई है या समाधान पता नहीं। सफलता के लिए स्पष्ट राजनीतिक इच्छाशक्ति वाला चैंपियन चाहिए, जो स्वच्छ हवा के लिए संघर्ष करे। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट से कहा गया था कि बारिश से हवा साफ हो सकती है। स्वच्छ हवा और अच्छे स्वास्थ्य का सार्वजनिक अधिकार मौसम की दया या वरुण देव की प्रार्थना पर नहीं छोड़ा जा सकता।


Next Story