सम्पादकीय

एअर इंडिया की बिक्री निजीकरण की मास्टरक्लास, उम्मीद है कि एअर इंडिया की बिक्री से स्वस्थ निजीकरण के प्रति मानसिकता बदलेगी

Rani Sahu
21 Oct 2021 3:00 PM GMT
एअर इंडिया की बिक्री निजीकरण की मास्टरक्लास, उम्मीद है कि एअर इंडिया की बिक्री से स्वस्थ निजीकरण के प्रति मानसिकता बदलेगी
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उम्मीद है कि एअर इंडिया की बिक्री से स्वस्थ निजीकरण के प्रति मानसिकता बदलेगी

चेतन भगत एअर इंडिया बिक गई। पूरी की पूरी। इस बिक्री पर पिछले 20 वर्षों से काम चल रहा था, जिसमें कई असफल प्रयास हुए। कल्पना कीजिए किसी के लिए दूल्हा या दुल्हन ढूंढे जा रहे हों और रिश्ता 20 साल बाद मिले। हमें सच में कहना होगा, बहुत-बहुत बधाई हो।

भारत सरकार से टाटा तक, जो वास्तव में मूल संस्थापक-मालिक थे। निजीकरण और विनिवेश के प्रयासों पर नजर रखने वाले लोगों की बोरियत से भरी एअर और पढ़ाकू दुनिया में यह छोटा-सा चमत्कार हो सकता है। लेकिन अंदर से अब भी मुझे यह विश्वास नहीं हो रहा कि एअर इंडिया बिक चुकी है। एअर इंडिया के बेड़े के हवाईजहाज शायद भारत सरकार के सबसे महंगे खिलौने थे। तमाम प्रयासों के बावजूद इससे सरकार को हर साल हजारों करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था।
बिक्री के समय कंपनी पर 65 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज था। टाटा को बोली जीतने के बाद मौजूदा कर्ज में से करीब 15 हजार करोड़ ही चुकाने होंगे, जबकि बाकी का कर्ज (40 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा) सरकार संविलयन कर खुद चुकाएगी। यह नुकसान उन कई हजार करोड़ रुपयों में जुड़ जाएगा, जो सरकार पिछले कुछ दशकों से लगातार एअर इंडिया पर खर्च कर रही थी। और फिर भी इन तथाकथित 'नुकसानों' के बावजूद, सरकार की इस डील को पूरा करने के लिए सराहना होनी चाहिए।
एअर इंडिया महज एक एअरलाइन नहीं थी, वह निरंतर घाटे वाली कंपनी थी, जो अब पैसे नहीं कमा पा रही था, खासतौर पर बड़े कर्ज के ब्याज का बोझ उठाने के कारण। सरकार द्वारा एअर इंडिया को बेचने का मतलब है, उसे होने वाले नुकसान का तुरंत बंद हो जाना, जो कुछ अनुमानों के मुताबिक 20 करोड़ रुपए प्रतिदिन तक था। यह ऐसा पैसा है जो विकास और जनकल्याण पर खर्च किया जा सकता है।
बेशक, सरकार कर्ज का संविलयन कर सकती थी और एअरलाइन को समान प्रबंधन के तहत एक नई शुरुआत दे सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे अहसास हुआ कि सिर्फ कर्ज समस्या नहीं थी, कर्ज में डूबने के पीछे का कारण यानी खराब प्रबंधन समस्या था। कर्ज को साफ करते रहने, बिलों का भुगतान करते रहने और एअरलाइन को पहले ही तरह ही चलाते रहने से कुछ नहीं बदलता और नुकसान जारी रहता।
किसी अनजाने कारण से एअर इंडिया 'राष्ट्रीय गर्व' का प्रतीक बन गई थी, जिससे इसे बेचना और मुश्किल हो गया था। खासतौर पर ऐसी सरकार के लिए जिसके लिए राष्ट्रवाद मुख्य राजनीतिक आधारों में से एक है। फिर भी सरकार ने इसे बेच दिया। एअर इंडिया कोई भारतीय एअर फोर्स नहीं है। एक घाटे वाली, पैसा बर्बाद करने वाली, वैश्विक रेटिंग्स में निचले स्तर पर बैठी एअरलाइन राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक नहीं हो सकती, चाहे उसका मालिक, इतिहास या नाम कुछ भी रहा हो। राष्ट्रीय गर्व उत्कृष्टता से आता है और एअर इंडिया फिलहाल इसके लिए नहीं जानी जाती।
किसी भी सामान्य समय में घाटे वाली, सरकारी कर्मचारियों के स्टाफ वाली एअरलाइन को बेचना मुश्किल काम है, पर उसे ऐसे समय में बेचने के लिए अतिरिक्त सराहना होनी चाहिए, जब ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय यात्राएं प्रभावित हैं। इस सौदे पर काम करने वाली भारत सरकार की पूरी टीम बधाई की पात्र है।
एअर इंडिया का निजीकरण कोई साधारण बात नहीं है। यह एक हाई-प्रोफाइल और सभी जगह नजर आने वाली कंपनी है। एअर इंडिया की 100% बिक्री बताती है कि निजीकरण किया जा सकता है और नागरिकों को इसपर कोई एतराज नहीं है। बिक्री की घोषणा पर इसका थोड़ा-बहुत ही विरोध हुआ था।
यह निजीकरण का मौसम है, सरकार को ऐसे और निजीकरण करने चाहिए। एअर इंडिया की बिक्री में भविष्य के विनिवेशों के लिए अच्छे सबक हैं। यह रहे शीर्ष तीन बुनियादी सच, जिन्हें दिमाग में रखना जरूरी है, ताकि सार्वजनिक क्षेत्र के किसी और उपक्रम को बेचने में 20 साल न लगें।
1. निजीकरण को जीवन के हिस्से के रूप में स्वीकारें, इसपर बहस करने का कोई फायदा नहीं है
इस पर अब पर्याप्त डेटा मौजूद है कि सरकार को ज्यादातर बिजनेस नहीं चलाने चाहिए। हां, यह सच है कि किसी को सभी निजीकरणों पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। हालांकि, प्रत्येक निजीकरण को 'भारी छूट पर बिक्री' या 'कौड़ियों के भाव अपनी मूल्यवान चीज से छुटकारा पाना' नहीं मानना चाहिए।
सच कहूं तो ऐसी चीज, जो आगे जाकर मूर्खतापूर्ण निवेश साबित होगी, उसे अपने पास बनाए रखने से अच्छा है, उसे बेच दिया जाए। निजीकरण बनाम राष्ट्रीयकरण बहसों में वैधता है, लेकिन इन्हें दो मूर्खतापूर्ण बातें नहीं कहा जा सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ उपक्रमों (पीएसयू) को निजीकरण की जरूरत है और होगी, इसे स्वीकार करें।
2. सौदे के लिए सही कीमत लगाएं
एअर इंडिया को बेचने के प्रयास वर्ष 2001, 2018 और यहां तक कि 2020 में भी असफल हुए थे। ज्यादातर बार बात कीमत पर अटकी। सरकार हमेशा ही ऋण के कुछ हिस्से के संविलयन को तैयार थी, लेकिन मुद्दा था कितना? आज, टाटा को एअरलाइन की सिर्फ 30% देनदारी का बोझ उठाना होगा। इससे पहले के प्रयास असफल रहे क्योंकि निजी कंपनियों से 50% या 40% देनदारियों का बोझ उठाने की उम्मीद की जा रही थी। पीएसयू की बिक्री कौड़ियों के भाव चांदी बेचने जैसा नहीं है। पीएसयू वित्तीय संपत्तियां हैं, जिनका सही मोल लगाना जरूरी है।
वर्ना, कोई भी इन्हें खरीदने आगे नहीं आएगा। इस सौदे में टाटा का भी लाभ होना चाहिए। टाटा कंपनी इस उम्मीद में बड़ा जोखिम उठा रही है कि वह एअरलाइन का कायाकल्प कर पाएगी और सरकारी फायदे उठाने के आदी स्टाफ का प्रबंधन कर पाएगी। इसके लिए टाटा को कुछ पैसा कमाना होगा। इसलिए उन्हें यह डील या खरीदारी उचित मूल्य पर ही करनी थी।
3. नियंत्रण छोड़ें
एअर इंडिया को बेचने के पिछले प्रयासों में एअरलाइन की 40% और फिर 76% हिस्सेदारी बेचने के प्रयास असफल रहे थे। इस बार 100% की बिक्री सफल रही। सरकार अगर आगे भी, बहुत कम क्षमता के साथ भी, इससे जुड़े रहना चाहती, तो इससे एअरलाइन के कायाकल्प पर असर पड़ सकता था। सरकार को जनहित में कार्य करने की आदत है, जबकि एक कंपनी को वाणिज्यिक रिटर्न के आधार पर चलाने की जरूरत है। सरकार को पीछे हटना ही होगा। नवदंपति को अकेला छोड़ दें।
उम्मीद है कि एअर इंडिया की बिक्री से स्वस्थ निजीकरण के प्रति मानसिकता बदलेगी, जो भारतीयों की उत्पादकता को बढ़ाएगा। यह डील इसकी मास्टरक्लास भी है कि आखिर निजीकरण कैसे किया जाता है। इसके लिए दृढ़निश्चय, सही कीमत, नियंत्रण छोड़ना और हां शादी का जश्न मनाकर नवदंपति को अकेले छोड़ना जरूरी है। अभी भी बहुत से पीएसयू बच्चे बाकी हैं, जिनके लिए रिश्ते खोजना है!
डील से मिले जरूरी सबक
एअर इंडिया का निजीकरण कोई साधारण बात नहीं है। इसकी 100% बिक्री बताती है कि निजीकरण किया जा सकता है और नागरिकों को इसपर कोई एतराज नहीं है। यह निजीकरण का मौसम है, सरकार को ऐसे और निजीकरण करने चाहिए। इस बिक्री में काफी सबक छिपे हुए हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बिक्री कौड़ियों के भाव चांदी बेचने जैसा नहीं है। ये वित्तीय संपत्तियां हैं, जिनका सही मोल लगाना जरूरी है। वर्ना, कोई भी इन्हें खरीदने आगे नहीं आएगा।
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