सम्पादकीय

'बहुत अच्छे इंसान' थे अहमद पटेल

Gulabi
25 Nov 2020 4:36 PM GMT
बहुत अच्छे इंसान थे अहमद पटेल
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वायरस से अहमद पटेल की मौत।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। उफ! वायरस से अहमद पटेल की मौत। वक्त कैसा अनुभव करा दे रहा हैं! क्या सोचू? मैं फरवरी से वायरस में बरबादी के पूर्वानुमान लिए हुए हूं और दस महिनों से सोचते हुए अब इस नतीजे पर हूं कि दुनिया का जो हो सो हो मगर भारत राष्ट्र-राज्य के लिए वायरस का महाकाल वह अनुभव होगा जो समकालीन इतिहास की विभाजक रेखा बनेगी। मतलब तब और अब। मनमोहन सरकार का वक्त बनाम नरेंद्र मोदी का वक्त। कांग्रेस का राज बनाम भाजपा का राज। सेकुलर राजनीति बनाम हिंदू राजनीति। तभी अहमद पटेल के इंतकाल की खबर पर जानकारों का फोन पर यह पूछना बेमतलब लगा कि कांग्रेस का क्या होगा? कौन कोषाध्यक्ष बनेगा? कांग्रेस क्या खत्म नहीं हो जाएगी आदि, आदि। इन बातों का खास मतलब नहीं है। देश और उसकी राजनीति की स्लेट में चेहरे वक्त के आते-जाते प्रतिनिधी होते है। अहमद पटेल वक्त विशेष के प्रतिनिधी थे। उनकी शख्शियत भारत राष्ट्र-राज्य के दस साला वक्त की पर्याय थी, मनमोहन सरकार की पर्याय थी तो सोनिया गांधी की कांग्रेस की भी पर्याय थी। तभी सवाल है कि उस वक्त को तराजू पर आज के विनाश काल के साथ तौले तो अहमद पटेल कितने अच्छे और भारी निकलेंगे?

हां, उस वक्त को आज के वक्त के पल़ड़े के बराबर रख कर अहमद पटेल पर विचार करें तो वे निष्कर्ष बनेंगे जिसकी पहले कल्पना नहीं थी।

अहमद पटेल से मेरा परिचय पैंतीस साल पहले हु्आ था। दिल्ली के विज्ञान भवन के सामने मोतीबाग के छोटे फ्लैट के एक झूले में बैठे अहमद पटेल से मैं 1985 में पहली बार मिला। संदर्भ जनसत्ता में गपशप कॉलम मैं राजीव दरबार पर मेरी टिप्पणीयां थी। जब उनसे मिला तो यह जान हैरानी हुई कि एक गुजराती मुस्लिम सांसद इतनी अच्छी हिंदी बोलता है और वह गपशप कॉलम का बारीक पाठक है और मीनमेख निकाले हुए है। तब वे राजीव गांधी के संसदीय सचिव थे। तभी से मेरे नियमित पाठक रहे। उन दिनों वी जार्ज, माखनलाल फोतेदार, आरके धवन पॉवऱफुल हुआ करते थे तो राजीव गांधी के दरबार में अरूण सिंह, अरूण नेहरू से लेकर बूटासिंह, आरिफ मोहम्मद, वीपीसिंह, वीरबहादुर आदि से दरबारी राजनीति खूब खिली हुई थी। मतलब मेरे गपशप कॉलम के लिए जहां बहुत कुछ था तो कॉलम भी तब चेहरों पर केंद्रीत था। इन दिनों की तरह मुद्दों, मसलों और देश की दशा-दिशा पर विचार करते हुए नहीं।

वह वक्त और आज का वक्त! तब इंडियन एक्सप्रेस समूह, रामनाथ गोयनका और जनसत्ता क्योंकि गैर-कांग्रेसवाद, सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी स्टेंड के पुरोधा थे और मैं राष्ट्रीय राजनीति-खबरों की रिपोर्टिंग, गपशप कॉलम लिखने वाला था तो मुझे कांग्रेस में स्वभाविक तौर पर विरोधी माना जाता था। मैंने राजीव सरकार का जितना मजाक उड़ाया, वीपीसिंह को जितनी हवा दी और शाहबानों-बोफोर्स-फेयरफेक्स आदि मसलों पर जैसा बेबाक रहा तो उससे मणिशंकर अय्यर हो, गोपी अरोड़ा हो या अहमद पटेल, फोतेदार सब मुझे अपना तो कतई नहीं मानते थे। मै विरोधी दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और हिंदूवादी था।

उस वक्त और वक्त के उन लोगों से आज के वक्त के चेहरों की तुलना करूं तो समझ नहीं आएगा कि इतिहास में उन दिनों का लोकतंत्र क्या गजब था। कांग्रेस के सभी नेता (मणिशंकर अय्यर, गोपी अरोड़ा, सुमन दुबे जैसे तब के शक्तिमान भी) मुझे अपने सत्ता गलियारों में बुला कर न केवल मेरे नजरिए का मान-सम्मान करते थे बल्कि किसी ने रत्ती भर नहीं चाहा, यह द्वेष नहीं रखा कि हमारे कहे अनुसार लिखों या तुम हमारे विरोधी हो तो तुमसे क्या बात करनी और तुम्हे तो हम देख लेंगे।

उन लोगों में अहमद पटेल भी एक थे। यों अहमद पटेल का राजनैतिक दबदबा सन् 2004 में कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद बना। उससे पहले वे हाशिए के गुजरात के छोटे खिलाड़ी थे। सन् 2004 के चुनाव तक अंबिका सोनी पर सोनिया गांधी अधिक निर्भर थी। उनके साथ फोतेदार, वी जार्ज, आरके धवन, सतीश शर्मा आदि को भी सोनिया गांधी ज्यादा मानती थी। अहमद पटेल का कमाल सन् 2004 के बाद याकि अपने को सोनिया गांधी, कांग्रेस और मनमोहन सरकार का सूत्रधार बनाने का था। ऐसा होने के बाद वी जार्ज, आस्कर फर्नाडिज, फोतेदार, धवन, अंबिका सोनी आदि हाशिए में खिसकते गए और वे एकलौते सर्वशक्तिमान हुए।

बावजूद इसके अहमद पटेल वहीं रहे जो पहले थे। वैसे ही मिलनसार, विनम्र, वफादार, संकटमोचक और एक अच्छे इंसान! सोचे क्या होता है अच्छा इंसान होना? अपनी राय में खुले दिल, खुले मन मिलने वाला और अंहकार, घमंड से दूर रहते हुए अपना जो काम है, जो जिम्मेवारी है उसे गंभीरता से पूरे करते जाना। कई लोग कांग्रेस के सत्यानाश के लिए अहमद पटेल को दोषी मानते है। उन्हे कांग्रेस में मैनेजरों, बिना जमीनी आधार वाले नेताओं को प्रमोट करने वाला और पैसे-प्रबंध से पार्टी पर कब्जा करने वाला बताते रहे है।

मैं उन बातों को इसलिए बेतुकी- सियासी नासमझी वाला मानता हूं क्योंकि सोनिया गांधी को अचानक जैसे सत्ता मिली और उनकी जमीनी राजनीति में जो सीमाएं है उसमें अहमद पटेल या किसी के भी बस में कामराज के वक्त की कांग्रेस बनाना संभव नहीं था। नरसिंहराव के अनुभव के बाद नेहरू-गांधी परिवार के खूंटे में कांग्रेस का बंधना परिस्थितिजन्य था तो अहमद पटेल के लिए परिवार का वफादार बन कर बतौर ढ़ाल नेता की रक्षा दायित्व था। कोई पूछे अहमद पटेल का सबसे बड़ा योगदान क्या है? तो व्यवहारिक राजनीति के तकाजे में अहमद पटेल का नंबर एक योगदान सोनिया गांधी, उनके परिवारजनों पर कोई आंच नहीं आने देने का है। सोनिया गांधी पर आज एक दाग, एक आरोप प्रमाणित नहीं है तो ऐसा अहमद पटेल के चुपाचप सबकुछ करने से ही तो है।

हां, पिछले छह साल से मोदी सरकार का एक मिशन सोनिया गांधी परिवार के खिलाफ सुराग की तलाश है। अगस्ता-वेस्टलेंड का मिशेल तिहाड जेल में बंद है तो 'एपी' उर्फ अहमद पटेल के टेंटुए से सोनिया गांधी को फंसाने की रणनीति में है लेकिन बात कहां बनी? अहमद पटेल ने अपने पर फोकस, विवाद बनने दे कर सोनिया गांधी को बचाएं रखने, पूरी निष्ठा से परिवार-पार्टी की सेवा का वह रोल अदा किया जिसके उदाहरण आजाद भारत की राजनीति में बिरले है।

सोचे, तुलना करें कि बतौर राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल ने सरकार चलवाई और सन् 2009 का पार्टी को चुनाव जीतवाया तो क्या कभी सुना कि सोनिया के चाणक्य ने क्या खूब कमाल किया! दर्जनों राज्यों में सरकारे, मुख्यमंत्री बनवाएं मगर उन्होने अपने सूरमा होने जैसा कोई छिछोरापन और वह अंहकार, वह सत्ताभूख नहीं दिखाई जो पिछले छह सालों की भारत दास्तां का नंबर एक रोग है!

तभी त्रासद है कांग्रेसियों के तब के वक्त और मोदीशाही के छह साल के वक्त के फर्क में चेहरों पर विचारना।

बअहमद पटेल की कमी थी उनका मुसलमान होना। मैं अपने जीवन अनुभव में मुसलमान पर सोचते हुए मानता हूं कि वे धर्म ईमान में सच्चे होते है और वफादारी में बेमिसाल। सो अहमद पटेल ने कौम, मुसलमानों के लिए इतना सोचा कि कांग्रेस को तुष्टीकरण के भंवर में फंसा डाला। अपना मानना है कि प्रधानमंत्री के मुंह से देश के संसाधनों में अल्पसंख्यकों के पहले हक की बात हिंदू राजनीति में तुष्टीकरण की आंधी का बेसिक बवंडर था। उसके साथ मुंबई पर आंतकी हमले में सरकार की स्थितप्रज्ञता, दिग्विजयसिंह के बयान, चिंदबरम-सुशील कुमार शिंदे आदि के हिंदू आंतकवाद, साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित, मोदी-शाह को आरोपी बनाने की कोशिशों ने बवंडरों की वह सीरिज बनवाई कि हिंदू सुनामी का भूकंप बनना ही था।

अहमद पटेल, सोनिया गांधी, कांग्रेसी नेताओं की अदूरर्शिता थी जो आंतकवाद की इस्लामी सुनामी में हिंदू आंतकवाद का नैरेटिव बनाना चाहा। अहमद पटेल के कारण सोनिया, राहुल गांधी, चिदंबरम सब भ्रमित हुए, भटके। इस बात को सन् 2014 तक अहमद पटेल मानने को तैयार नहीं थे। मैंने सन् 2009 से 2014 तक लोगों की बदलती सोच, नरेंद्र मोदी के मिशन-हवा को लेकर गपशप में बहुत लिखा। अपने सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में भी बहुत चर्चा की लेकिन अहमद पटेल हमेशा पूरी विनम्रता से असहमति जताते हुए कहते थे कि पंडितजी आप मोदी को ले कर जैसे सोच रहे है वैसा नहीं होना है। भाजपा में ही मोदी को नहीं माना जाएगा। फंला-फंला राज्यों में इतनी सीटे नहीं मिल सकती, जैसे उनके तर्क थे।

सो अहमद पटेल अपने विश्वास में जीये। पार्टी-नेता के प्रति वफादारी में जीये। चरित्रगत खूबियों में जीये! सन् 2014 में हार के बाद वे नैराश्य, डर और असुरक्षा में जीने लगे। उन्होने कांग्रेस को बदलने नहीं दिया। वे कितने भ्रष्ट थे, उनके क्या किस्से है इन बातों का मौजूदा मोदी राज में इसलिए मतलब नहीं है क्योंकि पिछले छह वर्षों में इस देश के उद्योगपतियों ने, दरबार के जानकारों ने अंहकार, घमंड, क्रोनी पूंजीवाद, मनमानी, लोकतंत्र की बरबादी के जैसे विविध अनुभव किए है और देश जिस दशा में पहुंचा हुआ है वह अंध भक्तों को छोड़ जग जाहिर है।

जो हो, इतिहास उसी राजनेता को अच्छा मानता है जिनकी पहचान सत्ता के बावजूद 'अच्छे इंसान' की हो। अच्छी सरकार अच्छे इंसानों से चिंहित होती है। डा मनमोहनसिंह-सोनिया गांधी-अहमद पटेल का मौजूदा वक्त से जो अर्थ बदला है वह अगले दस सालों में और ज्यादा इसलिए खिलेगा क्योंकि बबूल बनाम आम की फसल के नतीजों का फर्क कौन नहीं बूझेगा। कोई न माने लेकिन हकीकत है कि सर्वशक्तिमान और मुस्लिमपरस्त होते हुए भी अहमद पटेल ने डा मनमोहनसिंह को अमेरिका के साथ एटमी समझौता करने से रोका नहीं। अहमद पटेल ने सलाहकार परिषद् व अन्य सलाहकारों की सलाह में सरकार के वे सब (आरटीआई एक्ट, मनरेगा, आधार, खाद्य सुरक्षा) काम करने दिए जिससे लोकतंत्र और जनअधिकार की विरासत बनी। हां, अहमद पटेल यदि सोनिया गांधी और कांग्रेस के हनुमान थे तो डा मनमोहनसिंह के भी थे। उससे शासन में मंत्रियों को स्वतंत्रता थी तो लोकतंत्र और जन अधिकारों, नागरिक चेतना की पौ बारह थी। तब देश केवल अंबानी-अदानी को बनाते हुए नहीं था बल्कि अहमद पटेल के घर उद्योगपतियों का रैला लगा होता था जिन्हे धमकाया नहीं जाता था बल्कि चाय-सिंगदाना विनम्रता से खिलाया जाता था।

बात बार-बार वक्त के फर्क पर लौट आती है। सचमुच मैं आज जो सोच रहा हूं, लिख रहा हूं वह 2014 में नहीं लिखता। क्यों? इसलिए कि तब मेरे पास मोदीशाही के छह साल राज के अनुभव का पलड़ा नहीं था। तभी अहमद पटेल के आज के मूल्यांकन का सार है अच्छा इंसान! उस अच्छे इंसान के इंतकाल पर मेरी विनम्र श्रदांजलि।

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