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- आयातित संस्कृति के...
आजकल अपनी समस्याओं के समाधान के लिए अत्याधुनिक देशों से समाधान आयात करने की परंपरा का गरिमापूर्ण पालन शुरू हो गया है। समाधान उधार लिया न लगे, अतः उसे भारी भरकम हिंदी में शीर्षक अदा कर उसका स्वदेशीकरण कर दिया जाता है। फिर अपने इस मौलिक प्रयास पर राष्ट्र के कर्णधार अघा उठाते हैं। प्रशंसकों की कमी हो जाए तो अपने लिए स्वयं ही तालियां पीटने से परहेज़ नहीं करते। कदम-कदम पर मिलते इसके उदाहरण हमारी समझ का पालना झुलाने लगते हैं। 'हमारा भारत महान' की लोरी अपना स्वर बदल लेती है, देश नींद से जागने की बजाय और गहरी नींद में सो जाता है। नींद में कुनमुनाते हुए इन लोगों को थपकी दे सुलाते हुए मार्गदर्शक को यह सुझाया है, 'अरे बढ़ती हुई महंगाई से क्यों परेशान होते हो। थोक कीमतों का सूचकांक देख लो। ये पहले ज़ीरो से कितना कम था। अभी भी बढ़कर ज़ीरो ही तो हुआ है। क्यों याद दिलाते हो कि परचून कीमतों पर नियंत्रण का वायदा था? नहीं पूरा हुआ, क्या हुआ? कीमत स्तर वापस मनमोहन काल की कीमतों पर लौट आया तो क्या हुआ? अरे, भाई उससे बढ़ा तो नहीं?' मत याद दिलाइए कि रोज़मर्रा के खाद्य पदार्थों की कीमतें या आलू-प्याज़ के प्रति किलो की ओर बढ़ते हुए शतक औसत मूल्य सूचकांक वृद्धि का मुंह चिढ़ा नई परेशानी को अपकीर्ति स्तम्भ खड़े कर रहे हैं।