सम्पादकीय

आह संसद, असहाय संसद : देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है तो संसदीय तंत्र कमजोर

Gulabi
19 Aug 2021 4:44 PM GMT
आह संसद, असहाय संसद : देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है तो संसदीय तंत्र कमजोर
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विधानसभाओं में जिस तरीक़े से विधि निर्माण हो रहा है उस पर उन्होंने गहरी चिंता प्रकट की है

राहुल देव।

विडंबनापूर्ण स्थिति है. हमारे संसदीय लोकतंत्र की लोकतांत्रिकता तो अपनी तमाम अपूर्णताओं और विद्रूपताओं के बावजूद तत्वतः मज़बूत और गहरी बनी हुई है लेकिन यह बात उसकी संसदीयता के बारे में उतने ही विश्वास से कहना कठिन होता जा रहा है. यही स्थिति रही तो अगले दशकों में, जब हम स्वतंत्रता की शताब्दी के क़रीब पहुंच रहे होंगे, भारत का तंत्र कितना संसदीय यानी संसद-संचालित रह जाएगा यह चिंता गंभीर हो चली है. कई अध्येताओं ने पहले भी इस ओर देश और सरकारों का ध्यान खींचा है लेकिन उन्हें सुना नहीं गया. अब स्वयं देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमन्ना ने यह बात उठाई है. पिछले कई वर्षों से हमारी संसद और विधानसभाओं में जिस तरीक़े से विधि निर्माण हो रहा है उस पर उन्होंने गहरी चिंता प्रकट की है.


इस चिंता को संसद के विरुद्ध कही गई बात के रूप में निरूपित करके संसद और न्यायपालिका को आमने-सामने खड़ा करने की कोशिशें दुर्भाग्यपूर्ण हैं. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के समारोह में अपने संक्षिप्त भाषण में उन्होंने कई बातों के साथ यह चिंता प्रकट की. उनके भाषण में एक शब्द भी संसद के महत्व ओर गरिमा के विरुद्ध नहीं है. समझदारी तो इसमें है कि उनकी अत्यंत सहजता के साथ कही गई बातों के महत्व को समझा जाए. उनमें सरकारों, संसद और विधानसभा सदस्यों तथा समूचे राजनीतिक प्रतिष्ठान के लिए बहुत विचारणीय तत्व हैं. ऐसा करना हमारे संसदीय लोकतंत्र को बेहतर बनाएगा.


इस बार का मानसून सत्र संसदीय इतिहास का सबसे ज्यादा अराजक सत्र रहा है
समस्या के दो पहलू हैं. पहला स्थूल है. वह यह कि दोनों सदनों के बैठने के दिन और घंटे लगातार घट रहे हैं. पहली लोक सभा में प्रति वर्ष 135 बैठकें हुईं. पिछली यानी 16वीं लोक सभा में यह संख्या आधी से भी कम हो गईं- मात्र 66. विधान सभाओं और विधान परिषदों का हाल और बुरा है. देश की सबसे बड़ी उत्तर प्रदेश विधान सभा सबसे ज़्यादा अगंभीर रही. 2017 से 2019 के बीच उसकी वार्षिक बैठकें हुईं कुल 24. यह संख्या पश्चिम बंगाल और केरल में क्रमशः 40 और 53 रही. घंटों में यह स्थिति रही क्रमशः 100, 122 और 306. देखा जा सकता है कि केरल विधानसभा न केवल उप्र विधानसभा से दोगुने से अधिक दिन बैठी बल्कि उसने काम उप्र से तीन गुना किया. हालांकि ये सारे आंकड़े भी घोर चिंताजनक हैं.

हमने जिस यूके से संसदीय प्रणाली ली है वहां संसद के दोनों सदनों की बैठकों की औसत वार्षिक संख्या 150 है. अमेरिकी संसद में पिछले दो चार वर्षों का औसत 180 बैठकें रहा है. इससे हमें कुछ समझ में आ सकता है कि उनकी और हमारी संसदीय गंभीरता में कितना अंतर है. अभी अपने तय समय से दो दिन पहले ही समाप्त हुआ संसद का मानसून सत्र इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति का सबसे ताज़ा और शायद सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है. यह सत्र संसदीय इतिहास के सबसे ज़्यादा अराजक, अनुत्पादक और अशालीन व्यवहार के कुछ निकृष्टतम दृश्यों से भरे सत्रों में गिना जाएगा.

संसद में बिना बहस के कानून पास करना दुर्भाग्यपूर्ण
ऐसे दृश्य जब बार-बार टीवी पर दिखाए जाते हैं तो नागरिकों पर विशेषत: युवा पीढ़ी के मन में संसदीय व्यवहार के बारे में, अपने सांसदों के बारे में और स्वयं संसद के प्रति निष्ठा और आस्था में जो छवि बनती है, जो क्षति पहुंचती है उसका अनुमान लगाया जा सकता है. संसद ठीक से चले इसके लिए जिम्मेदार सरकारें और विपक्ष अपने आचरण से कल के नागरिकों और अगली पीढ़ियों को संसद और संसदीय राजनीति के प्रति विरक्त और उदासीन बना रहे हैं. यह विरक्ति वितृष्णा भी पैदा करने लगे इससे ज़्यादा ख़तरनाक क्या हो सकता है लोकतंत्र के लिए?

लेकिन न्यायमूर्ति रमन्ना ने यह नहीं कहा. पिछले कई लोकसभाओं से हम देख रहे हैं कि महत्वपूर्ण विधेयक भी सदनों में विस्तृत बहस और चर्चा के बिना, लगभग धकिया कर पारित कर दिए जाते हैं. संसद की पुरानी और अत्यंत महत्वपूर्ण परंपरा और प्रक्रिया रही है कि महत्वपूर्ण विधेयकों को जिनमें ज्यादा विस्तार और गहराई के साथ चर्चा और विश्लेषण की ज़रूरत होती है स्थायी संसदीय समितियों या प्रवर समिति को भेजा जाता है. पिछले वर्षों में यह भी लगातार कम हो रहा है.

भारतीय संसद कानून बनाने के अपने मूल कर्तव्य से चूक रही है
संसद का मूल काम है कानून बनाना. अच्छे कानून समय मांगते हैं. विधेयकों पर सदन में गंभीर चर्चा उनके विभिन्न आयामों को, गुण- दोषों को सामने लाकर उन्हें बेहतर बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाती है. सरकार को जवाबदेह बनाती है. लेकिन हो क्या रहा है? पिछले सत्र में कई विधेयक 2-3 मिनट की चर्चा के बाद ही पारित कर दिए गए. सत्र भर चले जबरदस्त हंगामे के बीच 20 विधेयक पारित करा लिए गए. सरकार इसे चाहे तो अपनी उपलब्धि मान सकती है लेकिन दरअसल यह संसदीय प्रक्रिया और कानून बनाने की प्रक्रिया का मजाक है. पिछले कई वर्षों में कुछ बहुत महत्वपूर्ण विधेयक बेहद अपर्याप्त बहस के साथ या बिना बहस के ही संसद में पारित हो गए. धारा 370 को संशोधित करके अप्रासंगिक बना देने वाला ऐतिहासिक विधेयक ऐसे ही पास हो गया था.

स्पष्ट है कि धीरे-धीरे धीरे भारतीय संसद कानून बनाने के अपने मूल कर्तव्य से ही चूक रही है, उसके प्रति अगंभीर हो रही है. बिना ज़्यादा विस्तार में गए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमन्ना ने कहा कि जल्दबाजी में बनाए गए कानून कच्चे रह जाते हैं, उनमें स्पष्टता का अभाव होता है. इसके कारण अदालतों में मुकदमेबाजी बढ़ती जा रही है. अच्छे इरादों से बनाए गए कानूनों के भी क्रियान्वयन में समस्याएं पैदा हो रही हैं. कुल मिलाकर इससे सरकार और जनता दोनों का नुकसान होता है. उन्होंने स्वाधीनता के बाद की शुरुआती लोकसभाओं में विधेयकों पर संसदीय बहसों के स्तर, गंभीरता और बारीकियों से बेहतर कानून बनने का उल्लेख किया.

उनकी बातों का एक पहलू यह भी था कि पहले राजनीति में, संसद और विधानसभाओं में वकील बहुत बड़ी संख्या में आते थे. इस कारण सदन में पेश किए जाने वाले विधेयकों पर, उनकी कानूनी बारीकियों पर, गुण-दोषों और संभावित परिणामों पर विस्तृत बहस होती थी. इससे बेहतर कानून बनाने में मदद मिलती थी. अब संसद और विधानसभाओं में वकीलों की संख्या घट गई है, दूसरे कार्यक्षेत्रों से आने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है.

सांसदों को संसद में बोलने की ज़रूरत है
न्यायमूर्ति रमन्ना की इस बात पर अलग से बहस की जा सकती है कि क्या वकील ही सांसद या विधायक बनने के लिए सर्वाधिक योग्य हैं. लेकिन यह तो सबको निर्विवाद रूप से मान्य होगा कि संसद में चर्चा का स्तर और समय दोनों के घटने से बहुआयामी नुकसान होता है. अधिकारियों के बनाए हुए विधेयकों पर बिना अच्छी बहस के बने हुए कानून बहुत ठोस नहीं बनते. इससे आगे चलकर क्रियान्वयन में समस्याएं होती हैं. उन्हें न्यायिक चुनौतियां मिलती रहती हैं. क्रियान्वयन अटक जाता है.

दूसरे, संसद में बहस देश की जनता के लिए भी राजनीतिक प्रशिक्षण का काम करती है. इससे न केवल सम्पूर्ण सदन के सामने बल्कि जनता के सामने भी किसी विधेयक या मुददे पर उसके कई आयाम और पक्ष सामने आते हैं. एक व्यापक, समग्र समझ बनाने में मदद मिलती है. कोई भी व्यक्ति हो या विधेयक अच्छी ईमानदार और गंभीर आलोचना उसे बेहतर बनने में सहायता ही करती है

चाहे केन्द्र हो या राज्य इस संसदीय परिघटना से सत्तारूढ़ दलों को और सत्तापक्ष के लिए तो यह बड़ी सुविधाजनक रहती है. अपने बहुमत का लाभ उठाकर वे आराम से मनचाहे कानून बना लेते हैं. लेकिन यह लोकतंत्र के लिए बुरा है. इसका एक पहलू यह भी है कि नए सांसदों और विधायकों को कानून बनाने की प्रक्रिया का भी पूरा प्रशिक्षण और अभ्यास नहीं मिल पाता. उन्हें विधेयकों पर बोलने का समय और अवसर पर्याप्त नहीं मिलते.

अपने साल के संसद के कार्य के दौरान मैंने पाया कि अधिकांश नए सांसद इसकी शिकायत करते रहते थे कि उन्हें सदन में बोलने का मौका ही नहीं मिलता. इससे सांसदों में विभिन्न विषयों के अध्ययन और अभ्यास की प्रेरणा भी कम होती है और इच्छा भी. दलबदल रोकने के लिए बने कानून ने सांसदों की बौद्धिक सक्रियता और स्वायत्तता को काफी हद तक सीमित कर दिया है. अब हर सांसद और विधायक अपने अपने दल के व्हिप का कैदी है. वह अपनी मर्जी से न तो किसी मुद्दे पर पार्टी लाइन से हट कर कुछ बोल सकता है, न स्वतंत्र विचार प्रकट कर सकता है, न सरकार से जवाब तलब कर सकता है और न ही अपनी असहमति जता सकता है. इसने सांसदों की स्वतंत्र चिंतन की प्रवृत्ति को कुंठित किया है. वे अब जानते हैं कि उन्हें ज्यादा पढ़ने अध्ययन करने की जरूरत नहीं है, उनका काम केवल मतदान के समय हाथ उठाकर अपनी पार्टी के व्हिप का पालन कर देना है.

देश या प्रदेश के लिए विधि निर्माण के सर्वोच्च अधिकार और कर्तव्यों से अधिकृत जनता के प्रतिनिधियों के लिए और लोकतंत्र की बुनियादी केंद्रीय भावना के लिए यह एक निराशाजनक स्थिति है. विधानसभाओं में विधि निर्माण की प्रक्रिया और विधायकों दोनों में यह घटती गंभीरता और मुखर रुप से सामने आती है.

संसद और विधानसभाओं का काम जनता के मुद्दों को उठाना है
यह क्षति केवल कानून बनाने तक ही सीमित नहीं है. संसद का दूसरा काम सरकारों, प्रशासन के कामकाज और कानूनों के पालन की निगरानी करना, उन्हें जवाबदेह बनाना और उनकी कमियों को बाहर लाकर व्यवस्था को बेहतर बनाना भी है. यह बेहद महत्वपूर्ण काम है. वैसी ही गंभीर बहस और समय मांगता है जैसे कानून बनाना. संसद और विधानसभाओं का तीसरा काम जनता के मुद्दों, तकलीफों और समस्याओं को सरकार और सदन के सामने लाना और उनपर देश का ध्यान केन्द्रित करते हुए समाधान तलाशना है. अपने चुनाव क्षेत्र के प्रतिनिधि होने के नाते उसकी समस्याओं जरूरतों को प्रभावी ढंग से उठाना सांसद और विधायक का सबसे प्रमुख काम है.

लेकिन जब सदन की बैठकें ही कम होती जा रही हैं, ऊपर से सत्रों का बड़ा हिस्सा शोर शराबे, हंगामे और अराजकता में गुजर जाता है तो ये तीनों ही संसदीय लोकतंत्र के मुख्य काम ठीक से नहीं हो पाते. इससे संसद जैसी देश की सर्वोच्च संस्था की प्रभावशीलता तो कम हो ही रही है साथ ही अगली पीढ़ियों की संसदीय लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं, गरिमा, महत्व और भूमिका में आस्था तथा सम्मान भी कम हो रहे हैं. हमारे लोकतंत्र के लिए ये खतरनाक संकेत हैं.


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