सम्पादकीय

कृषि क्षेत्र की आत्म निर्भरता

Gulabi
22 Feb 2021 8:29 AM GMT
कृषि क्षेत्र की आत्म निर्भरता
x
भारत में कृषि क्षेत्र का विकास इस तरह हुआ है कि किसानों को बाजार की शक्तियां कम से कम प्रभावित करें और उल्टे किसान बाजार को प्रभावित करें।

भारत में कृषि क्षेत्र का विकास इस तरह हुआ है कि किसानों को बाजार की शक्तियां कम से कम प्रभावित करें और उल्टे किसान बाजार को प्रभावित करें। कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के पीछे यही नीति थी जिसकी वजह से किसानों में सम्पन्नता की शुरुआत बहुत धीमी गति से इस तरह हो सकी कि किसान इसके समानान्तर अपनी उपज में बढ़ाैतरी करते चलें। प्रति हैक्टेयर उपज बढ़ाये बिना यह संभव नहीं था। इस कार्य को कृषि क्रान्ति का नाम देकर किसानों को खेती में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने को प्रेरित किया गया। यह चरण इस तरह पूरा हुआ कि भारत 1998-99 के आते बहुतायत में उपज पैदा करने वाला देश हो गया है और सरकार के सामने अन्न भंडारण की एक नई समस्या पैदा हो गई।


वास्तव में यह किसी चमत्कार से कम नहीं था क्योंकि साठ के दशक तक भारत अनाज का आयातक देश था परन्तु 1991 से भारत ने जो बाजार मूलक अर्थव्यवस्था अपनाई उसमें कृषि क्षेत्र के लिए ज्यादा स्थान नहीं था जिसका परिणाम यह निकला कि इस क्षेत्र में पूंजी सृजन (कैपिटल फार्मेशन) की रफ्तार लगातार धीमी पड़ती गई। इसकी मुख्य वजह कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में गुणात्मक कमी आनी थी। अतः उपज बढ़ने की प्रबन्धन व्यवस्था डगमगाने लगी और भारत इस नई समस्या से जूझने लगा। कृषि के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की रफ्तार पर 2004 से पुनः ध्यान दिया गया और गांवों के खेती के ध्वस्त हुए तन्त्र की तरफ सरकार का ध्यान जाना शुरू हुआ। इतना ही नहीं 2005 में तत्कालीन कृषि मन्त्री शरद पवार ने कृषि उपज मंडी समिति कानून की लोकसभा में जबर्दस्त वकालत की थी। यह सब अधिक उपज की प्रबन्धन व्यवस्था का ही एक हिस्सा था परन्तु तब विश्व व्यापार संगठन भारत पर कृषि क्षेत्र को बाजार की ताकतों पर छोड़ने के लिए भारी दबाव बना रहा था। इसकी वजह यह थी कि 2001 से कृषि आयात से पारिमाणिक प्रतिबन्ध (क्वान्टिटेटिव रेस्ट्रिक्शन) समाप्त हो चुका था और अधिक आयात होने की सूरत में इसके हाथ में एक सीमा तक 'एंटी डम्पिंग ड्यूटी' लगाने का अधिकार था। तब भारत ने व्यापार संगठन की वार्ता में शामिल होकर भारत की तरह के कृषि मूलक देशों का एक अलग गुट तैयार कर लिया और अभियान चलाया कि जब तक ऐसे देशों के किसानों की माली हालत यूरोपीय किसानों के समकक्ष नहीं हो जाती तब तक कृषि क्षेत्र को बाजार की ताकतों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता। उस समय यह नीति पूरी तरह उचित थी क्योंकि तब तक पेट्रोलियम क्षेत्र भी सरकारी नियन्त्रण में काम कर रहा था।

पेट्रोल व डीजल की कीमतें सरकार का एक आधिकारिक मंडल तय करता था। अब यह व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी है मगर किसानों का कृषि लागत खर्च बढ़ चुका है जिसकी भरपाई सरकार विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने के नाते नहीं कर सकती है। सरकार के सामने केवल एक ही रास्ता बचता है कि वह प्रमुख कृषि उपजों का समर्थन मूल्य इस प्रकार तय करे कि किसानों की लागत का बढ़ा हुआ खर्च निकल सके। इसमें खाद्य सुरक्षा कानून सरकार के लिए दिक्कत पैदा करता है जिसमें लगभग 80 करोड़ लोगों को रियायती दरों पर गेहूं या चावल देने का विधान है।

यूपीए शासन काल में अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत लगभग के हिसाब से प्रतिवर्ष वृद्धि दर दर्ज कर रही थी और गरीबी की परिभाषा बदल रही थी। खुले बाजार में अनाज की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ अधिक पर तय हो रही थीं और पुरानी गरीबी की रेखा से लोग ऊपर आ रहे थे (जिसका पूरा असर हमें 2005 से 20015 में देखने को मिला जिसमें 27 करोड़ से अधिक लोग सीमा रेखा से ऊपर उठे)। यह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के विकास छन कर पहुंचने ( ट्रिकल डाऊन थ्योरी) का प्रभाव था। इसलिए समय की मांग है कि हमें कृषि क्षेत्र में भी एक कदम आगे जाना चाहिए परन्तु यह कार्य किसानों की उद्यमशीलता को पूरी चारों तरफ से संरक्षित करके करना होगा। अतः प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने नीति आयोग की बैठक में किसानों की आत्म निर्भरता का जो सुझाव दिया है उसे उनके आन्दोलन को देखते हुए खारिज नहीं किया जा सकता। कृषि राज्यों का विषय होने की वजह से भारत की भौगोलिक विविधता के अधीन भी रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय बढ़ने के लिए कृषि कानूनों के माध्यम से विकल्प सूझाए हैं। कृषि सेक्टर में गतिरोध नहीं होना चाहिए। कृषि सुधारों का समर्थन तो हर दल कर रहा है लेकिन अब इसपर सियासत की जा रही हैं।

इस विविधता का लाभ किसानों को इस प्रकार मिलना चाहिए कि उन पर बाजार की ताकतें कब्जा न कर सकें। इसके लिए जरूरी होगा कि बाजार की जरूरतों पर किसान निगाह रखते हुए अपनी खेती का विविधीकरण करें। हाल ही के कुछ महीनों में भारत की मंडियों में खाद्य तेलों में भारी उछाला आया है। इसकी दो वजहें हैं, एक तो डालर का मजबूत होना और दूसरे विश्व बाजार में इन तेलों की कीमतें बढ़ जाना। भारत प्रति वर्ष 70 हजार करोड़ के मूल्य का खाद्य तेल आयात करता है। यदि पर्याप्त तिलहन का उत्पादन भारत में ही हो तो किसानों को इसका सीधा लाभ मिलेगा। यहीं अधिक ऊपज प्रबन्धन का सवाल भी जुड़ा हुआ है। जिन फसलों का उत्पादन संतृप्त बिन्दू तक हो चुका है उनके स्थान पर तिलहन जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जाये। आन्दोलनकारी किसानों को भी इस पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के इस कथन में वजन है कि किसान नये कृषि कानूनों को दो साल तक किनारे रखे जाने पर सहमत हो सकते हैं, बशर्ते जिद की जगह जिरह से काम लिया जाये।


Next Story