सम्पादकीय

संकट में खेती, बदहाल किसान

Gulabi Jagat
23 Jan 2025 12:24 PM GMT
संकट में खेती, बदहाल किसान
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विजय गर्ग: भारत जैसे कृषिप्रधान देश में किसान बदहाली का जीवन जीने को अभिशप्त हैं। अगर वे आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने को मजबूर हो जाएं, तो देश के विकास का सपना बेमानी लगने लगता है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि सरकार को किसानों की जितनी सुध लेनी चाहिए, उतनी उसने नहीं ली। गांवों में विकास कार्य जिस गति से होना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ। गौर करने वाली बात यह है कि हमारे देश में अब भी किसानों की औसत कमाई इतनी कम है कि इससे उनका भरण-पोषण नहीं हो सकता। यह विडंबना ही है कि भारत में अन्नदाताओं की की आय इस समय किसी चतुर्थवर्गीय कर्मचारी से भी कम है। सरकार के दावों के बावजूद देश के किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। उनकी इस बदहाली के पीछे कहीं न कहीं सरकार की नीतियां ही जिम्मेदार हैं, जहां कृषि को कभी देश के विकास की मुख्यधारा का मानक समझा नहीं गया।
यह भी निराशाजनक है कि बीज और खाद आदि के नाम पर छिटपुट सबसिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज भी कोई विशेष सरकारी सुविधा नहीं है। यही वजह है कि किसानों के सामने हमेशा संकट बना रहता है। । प्राकृतिक आपदा अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई, तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण किसानों के सामने रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं और यह निराशा आत्महत्या तक ले ले जाती है। वहीं जरूरत से ज्यादा उत्पादन भी आफत का कारण बन जाता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। नतीजा उसे औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। यदि किसान का उत्पादन अधिक हो जाए, तो सरकार हाथ खड़े कर देती और कम कम रहे, तब भी सरकार परेशान हो जाती है।
बहरहाल, सरकार और किसानों के बीच लगातार खाई बढ़ती जा रही है। हाल में उपराष्ट्रपति ने भी किसानों की समस्या पर चिंता जताई थी। ऐसे में सवाल है कि आखिर किसानों को बार-बार दिल्ली क्यों कूच करना पड़ता है? गौरतलब है कि किसान संगठन अपनी मांगों को लेकर तीसरी बार देश की राजधानी दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि सरकार उनकी मांगों को मानना ही नहीं चाहती। देश की राजधानी में बार-बार हो रहे इस किसान आंदोलन के मसले पर पहले भी कई सवाल उठते रहे हैं, लेकिन हाल में उपराष्ट्रपति ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में केंद्रीय कृषिमंत्री के सामने ही पूछ लिया कि किसानों की मांगों को लेकर आखिर सरकार कर क्या रही है ?
भारत में तकरीबन साठ फीसद आबादी कृषि से जुड़ी है। यह ठीक है कि सरकार की ओर से किसानों की आय बढ़ाने के लिए तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं। फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। पिछले डेढ़-दो दशकों से जो भी सरकारें बनीं, उसने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की। बेशक कृषि क्षेत्र के लिए कई परियोजनाएं शुरू की गईं, लेकिन उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया गया। राष्ट्रीय कृषि
विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा मिशन और राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी न जाने कई योजनाएं चल रही हैं। इसके अलावा भारत निर्माण, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम और वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत काफी क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रस्ताव भी है, लेकिन सही तरीके से क्रियान्वयन न होने की वजह से इसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है।
अक्सर यह कहा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है। मगर चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार नहीं मिटा पाती कि दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भारत में ही है। यह एक सच्चाई है, जिसे कोई सरकार स्वीकार करना नहीं चाहेगी। भले ही ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना हो, लेकिन खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषिप्रधान देश की ऐसी दुर्दशा निश्चित ही गंभीर बात है। वहीं भारत की आबादी एक अरब 41 करोड़ से ऊपर जा चुकी है। 'द मिलेनियम प्रोजेक्ट' की रपट में कहा गया है कि 2040 तक भारत की आबादी लगभग एक अरब 7 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में सभी लोगों को भोजन मुहैया कराना बड़ी चुनौती होगी। हकीकत यह है कि अगर सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें, तो देश में अनाज की भारी किल्लत हो जाएगी। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का का ही एक चेहरा है। असल में, कृषि क्षेत्र जिस घोर संकट में फंसा है, उसका एक बड़ा कारण किसानों को उनकी का वाजिब मूल्य न मिलना है।
भारत में किसान कितनी मुश्किलों से गुजर रहे हैं, यह जानने के लिए किसी अध्ययन या शोध की जरूरत सरकार को नहीं होनी चाहिए। इन हालात में, खास खाद्यान्न संकट के मद्देनजर सरकार एक और हरित क्रांति की जरूरत पर जोर दे रही। है। अगर भारतीय कृषि और किसान को गहरे संकट से उबारना है, तो कुछ बड़े और कड़े फैसले सरकार को करने पड़ेंगे। भले ही पिछले दशक में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण गमें चाहे जितना इजाफा किया गया हो, लेकिन आज भी छोटे और सीमांत किसान अपनी जरूरतों की पूर्ति लिए सेठ- ठ-साहूकारों की ही मदद लेते हैं। ऐसा लगता है कि बैंकों की ऋण सुविधाओं का अधिकतर लाभ भी वही किसान उठा रहे हैं, जो कर्ज चुकाने की स्थिति में हैं। यदि किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया, स्थिति भयानक हो सकती है।
साफ है, लागत खर्च बढ़ने से देश के किसानों की स्थिति दिन- प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। यहां तक कि उन्हें अपनी फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल रहा है। यही वजह है कि अब किसानों के लिए खेती लाभप्रद व्यवसाय नहीं रह गई है। खेती से मोहभंग के कारण वे लगातार रोजगार के वैकल्पिक उपायों को अपना रहे हैं। अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ तेजी से बढ़ जाएंगे। यह देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है। खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घंटी है। आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है और गरीबी मिटानी है, तो कृषि क्षेत्र की दशा सबसे पहले सुधारनी होगी। विकास के कुछ दावे कागजों से निकल कर खेत-खलिहानों की ओर जाएं, तो ज्यादा अच्छा होगा।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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