सम्पादकीय

कृषि कानून : अक्खड़पन के जोखिम और मुक्त बाजार के समर्थक

Neha Dani
21 Nov 2021 1:50 AM GMT
कृषि कानून : अक्खड़पन के जोखिम और मुक्त बाजार के समर्थक
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अहंकार तथा अक्खड़पन के खिलाफ सत्य की विजय है। यह अधिनायकवाद पर लोकतंत्र की एक दुर्लभ जीत है।

मुक्त बाजार के समर्थकों ने हाल ही में वापस लिए गए तीन कृषि कानूनों का समर्थन यह मानकर किया था कि इनसे कृषि उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ेगी। जबकि वामपंथी अर्थशास्त्रियों ने इस आधार पर इन कृषि कानूनों का विरोध किया था कि इनके कारण बड़े व्यापारियों की सनक से किसानों का जीवन मुश्किल हो जाएगा। इन पंक्तियों के लेखक को समस्या इन कृषि कानूनों से नहीं, बल्कि इन्हें तैयार और पारित करवाने की कपटपूर्ण तरीकों से थी।

हमारे संविधान के तहत कृषि राज्यों का विषय है। इसके बावजूद कृषि कानून राज्यों को विश्वास में लिए बगैर तैयार किए गए, यहां तक कि भाजपाशासित राज्यों से विचार-विमर्श की जरूरत भी नहीं समझी गई। ज्यादा संभावना यही है कि ये कानून प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तैयार किए गए होंगे, जिसमें केंद्रीय मंत्रियों, यहां तक कि कृषिमंत्री से भी सुझाव नहीं लिया गया होगा।
वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ऐसे एकतरफा फैसले लेने के लिए जानी जाती है, जिनसे लाखों भारतीयों का जीवन प्रभावित होता है। इसके बावजूद कृषि जैसे क्षेत्र के लिए, जो इस विशाल देश में बहुत विविधतापूर्ण है, शीर्ष स्तर पर लिए जाने वाले एकतरफा फैसले अज्ञानता के ही सूचक हैं। जब दो राज्यों की मिट्टी, जल प्रबंधन, फसल बोने के तरीके और खेतों पर मालिकाना हक में फर्क है, तब प्रधानमंत्री ने राज्यों से सलाह-मशविरे के बगैर कृषि कानून तैयार करने को हरी झंडी कैसे दी?
कृषि कानूनों को संसद में पेश करते हुए भी लोकतांत्रिक तरीकों की परवाह नहीं की गई। चूंकि इन कानूनों का जमीनी स्तर पर व्यापक असर होना था, ऐसे में, बुद्धिमानी इसी में थी कि इन्हें संसदीय समिति में भेजा जाता, जहां कृषि क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ इन पर बहस और जरूरी संशोधन करते। लेकिन कानून पारित करते हुए इस पर ध्यान नहीं दिया गया, यह भी इस सरकार की खासियत है।
चूंकि लोकसभा में भाजपा का विशाल बहुमत है, इसलिए वहां विधेयक आसानी से पारित हो गए। फिर इन्हें राज्यसभा में भेजा गया, जहां विपक्ष न सिर्फ प्रभावी था, बल्कि वह इन पर बहस करने की उम्मीद में था। पर राज्यसभा के उप-सभापति हरिवंश ने वोटिंग नहीं होने दी, इसके बजाय उन्होंने इन्हें ध्वनिमत से पारित कर इनके बहुमत से पारित होने का दावा किया।
जिस गोपनीयता से ये कानून बनाए गए और जिस जल्दबाजी में इन्हें संसद से पारित करवाया गया, उससे उत्तर भारत के किसानों में गुस्सा था। कानून बनाते समय अगर राज्यों के कृषि मंत्रियों से खुला और पारदर्शी विचार-विमर्श किया जाता, कृषि विशेषज्ञों के विचारों को स्थान दिया गया होता, अगर संसद में इन पर विस्तार से विचार-विमर्श करने दिया गया होता, तब शायद नतीजा अलग होता।
किसानों की चिंता इस कारण भी बढ़ गई थी, क्योंकि अंबानी और अदाणी जैसे कॉरपोरेट घराने बेहद आक्रामक तरीके से कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। आखिरकार एक टिप्पणीकार ने इस साल की शुरुआत में यह लिखा ही था, 'कृषि कानूनों की वास्तविकता को देखते हुए स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि अदाणी समूह इनका लाभ लेने के लिए तैयार है' (हरतोष सिंह बल, मंडी, मार्केट एंड मोदी, द कारवां, मार्च, 2021)।
कृषि कानूनों को संसद से पारित कराकर मोदी सरकार ने देश के संघीय ढांचे और संसद के प्रति अवमानना का ही प्रदर्शन किया। चूंकि लोकतंत्र के सभी मंचों की प्रधानमंत्री ने अनदेखी की, ऐसे में, क्षुब्ध किसानों ने सत्याग्रह का रास्ता चुना। वे देश की राजधानी की सीमाओं पर इकट्ठा हुए, उन्होंने खुले आकाश के नीचे रहना और सोना गवारा किया, कहानी सुनाते हुए तथा गीत गाते हुए खुद को ऊर्जस्वित रखा।
ये आंदोलनकारी अहिंसक थे, इसके बावजूद इनके प्रति सरकार का रुख बर्बर और क्रूर था। इन किसानों पर पानी की बौछार की गई, उनके रास्ते पर कीलें लगा दी गईं और इंटरनेट ठप कर दिया गया। इस सरकारी दमन को गोदी मीडिया का साथ मिला, जिसका कहना था ये आंदोलनकारी के वेश में खालिस्तानी हैं। पर सत्याग्रही टस से मस नहीं हुए। आंदोलन के दौरान सैकड़ों किसान मारे गए।
इसके बावजूद आंदोलन में किसानों का आना जारी रहा। ऐसे में, केंद्रीय मंत्री आंदोलनकारियों के साथ बातचीत के लिए मजबूर हुए, हालांकि प्रधानमंत्री ने उनसे मुलाकात नहीं की। उन्होंने सिर्फ एक बार इन किसानों का जिक्र किया, जब संसद में इन पर कटाक्ष करते हुए इन्हें आंदोलनजीवी कहा। वह संभवतः मान बैठे थे कि यह आंदोलन अपने आप खत्म हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ।
आखिरकार, जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर आ गए, और इनमें से कई राज्यों में भाजपा ने अपनी स्थिति खराब पाई, तब 19 नवंबर को प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए राष्ट्र को संबोधित किया। सत्रह मिनट के अपने भाषण में पंद्रहवें मिनट पर उन्होंने कृषि कानून वापस लेने का एलान किया। उनका पूरा भाषण इसी के इर्द-गिर्द था कि अपने पांच दशक के सार्वजनिक जीवन में उन्होंने किस तरह किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा। यह संभवतः पहला अवसर था, जब प्रधानमंत्री ने अपने किसी फैसले पर माफी मांगी।
यहां याद किया जा सकता है कि 2002 में गुजरात में उनके मुख्यमंत्री काल में जो नरसंहार हुआ था, उस पर तब नरेंद्र मोदी को पछतावा नहीं था। वर्षों बाद जब एक विदेशी पत्रकार ने उनसे इस बारे में पूछा, तो उन्होंने दंगे में मारे गए लोगों की तुलना (जिनमें ज्यादातर मुस्लिम थे) दुर्घटनावश कार के नीचे आने वाले पिल्ले से की।
वर्ष 2016 के नोटबंदी के फैसले पर मोदी ने अफसोस नहीं जताया, जिसने अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लाखों लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया, न ही उन्होंने 2020 के लॉकडाउन पर माफी मांगी, जिसका प्रवासी मजूदरों के जीवन पर भारी असर पड़ा। इसलिए कृषि कानूनों की वापसी का एलान करते हुए प्रधानमंत्री का क्षमा मांगना उनके पूर्व के आचरण के विपरीत और अभूतपूर्व है।
पांच साल पहले नवंबर में प्रधानमंत्री ने जब पांच सौ और एक हजार के नोटों को चलन से बाहर करने का एलान किया था, तब भी विशेषज्ञों ने उस फैसले को उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियों की नकदी पर चोट करने और भाजपा को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से प्रेरित बताया था। पिछले शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने किसानों से जो माफी मांगी, उसका कारण भी उत्तर प्रदेश का आसन्न चुनाव ही है।
मैंने कृषि कानूनों के कुछ उत्साही समर्थकों की टि्वटर पर हताश टिप्पणियां देखीं कि इनकी वापसी देश के लिए एक बड़ा झटका है। लेकिन इन कानूनों को तैयार करने, इन्हें लागू करने और आंदोलनकारियों पर सख्ती बरतने के जरिये संघीय ढांचे, लोकतंत्र और संविधान की गरिमा का जिस तरह मजाक उड़ाया गया, उन्हें देखते हुए इन कानूनों की वापसी सत्याग्रह की, अहंकार तथा अक्खड़पन के खिलाफ सत्य की विजय है। यह अधिनायकवाद पर लोकतंत्र की एक दुर्लभ जीत है।
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