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- सुविधा पर सहमति
Written by जनसत्ता; सत्ता पक्ष और विपक्ष में अक्सर छत्तीस का संबंध देखा जाता है। सरकार कोई भी फैसला करे, तो कई बार बेवजह भी विपक्ष विरोध में उठ खड़ा होता है। मगर जब बात प्रतिनिधियों के वेतन, भत्ते और सुविधाओं की आती है, तो उसमें सारे मतभेद हवा हो जाते हैं। सारे एक मत से उसका स्वागत करते हैं। दिल्ली विधानसभा में पारित विधायकों के वेतन-भत्ते संबंधी विधेयक इसकी ताजा मिसाल हैं।
दिल्ली सरकार ने इससे संबंधित पांच विधेयक सदन में रखे और सभी पर विपक्ष ने भी सहमति दे दी। नए विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद दिल्ली में विधायकों का वेतन छत्तीस हजार रुपए बढ़ जाएगी। इसी अनुपात में टेलीफोन, निर्वाचन क्षेत्र आदि में यात्रा के लिए मिलने वाला भत्ता, वाहन भत्ता, सचिवालय भत्ता आदि भी बढ़ जाएंगे। विधायकों के वेतन और भत्तों में यह बढ़ोतरी बढ़ती महंगाई के मद्देनजर की गई है।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने यह भी तर्क दिया कि प्रतिभाशाली लोगों को राजनीति में आकर्षित करने के लिए भी वाजिब तनख्वाह जरूरी है। यह फैसला ऐसे समय में आया है, जब सेना की नौकरियों में पेंशन हटाने को लेकर बहस हो रही है और लोग जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते, पेंशन अदि पर भी व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने की जरूरत पर बल दे रहे हैं। मगर इस फैसले पर सर्वसम्मति बन गई!
हालांकि कुछ साल पहले भी दिल्ली सरकार ने विधायकों के वेतन और भत्तों में काफी बढ़ोतरी करके राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा था, पर वहां उसे अस्वीकृत कर दिया गया। तब भी तर्क दिया गया था कि जिस तरह महंगाई और खर्चे बढ़ रहे हैं, उसमें विधायकों को अपना खर्चा चला पाना मुश्किल है। तब सरकार ने यह जाहिर करने का प्रयास किया था कि विधायकों के पास अपने वेतन के अलावा खर्च पूरा करने का और कोई जरिया नहीं होता। मगर यह बात आम लोगों के गले नहीं उतरी थी।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बढ़ती महंगाई में जनप्रतिनिधियों के लिए लोगों से लगातार संपर्क बनाए रखने, अपना दफ्तर चलाने आदि का बोझ उठाना भारी पड़ता होगा। मगर यह समस्या केवल विधायकों की नहीं है। आम लोगों पर महंगाई की मार कुछ अधिक ही पड़ रही है। जहां तक प्रतिभाशाली लोगों को राजनीति में आकर्षित करने की बात है, दूसरे महकमों में भी यही नियम लागू करने पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता। दिल्ली सरकार के फैसले को मंजूरी मिलते ही दूसरी राज्य सरकारें भी इस दिशा में कदम उठाने को प्रेरित होंगी और आश्चर्य नहीं, जब वहां भी बिना किसी अड़चन के विधायकों के वेतन-भत्ते आदि में बढ़ोतरी हो जाएगी।
दरअसल, जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्ते बढ़ाने को लेकर फैसले खुद उन्हें ही करने होते हैं। वेतन आयोग की तरह उसके लिए स्थितियों का आकलन-अध्ययन करने की जरूरत नहीं होती। इसलिए जब भी वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी की बात आती है, सारे दल मिल कर उस पर अपनी सहमति दे देते हैं। इसलिए कई मौकों पर सवाल उठते रहे हैं कि जनप्रतिनिधियों को अपने वेतन-भत्ते तय करने का अधिकार क्यों होना चाहिए।
कमोबेश ऐसे ही फैसले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के कुछ खर्चों को लेकर किए जाते हैं। निस्संदेह महंगाई के मद्देनजर वेतन में बढ़ोतरी होनी चाहिए, मगर उसका तार्किक आधार होना चाहिए। जब भी जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी होती है, वह लोगों को खटकती है। इस असंतोष को दूर करने के उपाय होने ही चाहिए।