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By: divyahimachal
हिमाचल का विकास जिन राहों को नजरअंदाज कर रहा है, उन्हें पुन: खोजना होगा। विकास के लक्ष्यों में अतीत का सवाल उन इमारतों, रिवायतों, ग्रामीण आर्थिकी या समाज से पूछ लेना चाहिए, जो राजनीति की भीड़ में कहीं पीछे रह गए। सरकारी भवनों से जुड़ते नए ब्लॉक, शहरों से जुड़ते नए गांव और पुराने हो रहे मुकाम को फिर से पाने की कोशिश न की, तो विकास का बदलता भूगोल बहुत कुछ चौपट कर देगा। प्रदेश की नियुक्तियों में सबसे पीछे रह गया पद उस चौकीदारी व माली का है जो सार्वजनिक इमारतों की उम्र व प्रासंगिकता बढ़ा सकता है। हद तो यह कि न्यायालयों, जिलाधीश व अन्य सार्वजनिक कार्यालयों की इमारतों में नए को पुराना बनाने की होड़ ने आवश्यकता के पैमाने बदल दिए।
हम सुनते हैं कि सरकारें दबादब तरीके से भवनों की कतार लगा रही हैं, लेकिन जहां ढांचा बर्बाद हो रहा है, उसकी खबर किसी को नहीं। ड्राइंग व डिजाइन की वजह से भी भवनों की उपयोगिता व भविष्य की मांग पूरी नहीं हो रही, जबकि वर्तमान ढांचे के सदुपयोग पर चर्चा ही नहीं होती। अब कहीं जाकर निर्माणाधीन पुलों की जांच का विषय उठा तो महकमे ने आनन-फानन में कदम उठाने का फैसला किया, वरना पिछले दिनों चंबा, हमीरपुर, कांगड़ा व मंडी जिलों में पुलों की सूरत में उनके ध्वस्त होने की कहानी ही सामने आई। यह सिर्फ इमारतों का खेल नहीं, बल्कि उस भूमि के आबंटन का भी है जो वर्षों से दबाए कुछ विभाग इसके महत्त्व व जरूरत को ही नजरअंदाज कर रहे हैं। प्रदेश के बड़े शहरों में सरकारी आवासीय कालोनियां हैं, तो कार्यालयों की जमीन पर साहबों की कोठियां कैसे बन रहीं। दुर्भाग्यवश सरकारी संपत्ति को हर सरकार का विकास नहीं मापता, नतीजतन जहां अस्पताल होना चाहिए वहां स्कूल और जहां बस स्टैंड होना चाहिए वहां कोई कार्यालय भवन चस्पां कर दिया जाता है। ऐसे में सरकारी भवनों की देखरेख, सदुपयोग व बेहतर योजना के लिए एक केंद्रीय एजेंसी या सार्वजनिक संपत्ति एवं एस्टेट विकास प्राधिकरण का गठन होना चाहिए, जो मांग व आपूर्ति के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करे कि सरकारी संपत्तियों का सदुपयोग कैसे बढ़ाया जाए। इसके साथ यह विचार भी करना होगा कि हर शहर में एक जैसा विकास संभव नहीं। पालमपुर को अगर टी सिटी की रुहानियत में आगे बढ़ाना है या मनाली को पर्यटन डेस्टिनेशन, तो वहां अधोसंरचना निर्माण की प्राथमिकताएं अलग होनी चाहिए। हमने इसी होड़ में अनावश्यक रूप से पर्यटन की कई परियोजनाएं व इकाइयां बर्बाद कर दीं। शहरों में पशु अस्पताल, तत्संबंधी कार्यालय या फिशरीज आफिस खोलने की दरकार नहीं है। बहुत सारे कार्यालय ग्रामीण परिदृश्य में अपनी प्रासंगिकता बढ़ा सकते हैं। इसीलिए एक बार फिर शिमला से कुछ राज्य स्तरीय कार्यालय राज्य के अन्य भागों में स्थानांतरित करने होंगे। बहरहाल भवनों का लावारिस रह जाना गहन चिंतन का विषय है।
शहरी सरकारी स्कूलों या इसी तरह अन्य कार्यालयों में उद्देश्य का हारना न रोका गया, तो भविष्य में राज्य सिर्फ नई इमारतों का जंगल बनकर रह जाएगा। प्रदेश के कई शहरों में सरकारी स्कूलों के पास भवन तथा जमीन की कमी नहीं, बस इन्हें निजी स्कूलों के मुकाबिल करने की जरूरत है। आरंभिक तौर पर कुछ चयनित स्कूलों को सीबीएसई या आईसीएसई पाठ्यक्रम के तहत चलाना होगा। निस्संदेह राजीव गांधी डे बोर्डिंग स्कूल इसी तरह की प्रतिज्ञा के साथ अपने लिए जमीन तलाश रहा है। सरकार ऐसे स्कूलों को सीबीएसई पाठ्यक्रम के तहत चलाने की योजना बना रही है। सरकार चाहे तो 68 डे बोर्डिंग स्कूलों के साथ तमाम शहरी व पहले से चल रहे मॉडर्न स्कूलों का अलग से पूल बनाकर इन्हें सीबीएसई पाठ्यक्रम के तहत चला सकती है। यह दीगर है कि ऐसे स्कूलों के स्थायित्व के लिए शिक्षकों को मात्र स्थानांतरण का दंश न झेलना पड़े, बल्कि इसके स्थान पर एक विशेष अभियान के तहत इन्हें स्थायी रूप से चयनित करके विशेष दर्जा, पदोन्नति तथा वित्तीय प्रोत्साहन दिया जाए। शिक्षा विभाग अपनी कार्यपद्धति के कारण हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड के पल्लू के पीछे छुपता रहा है, ऐसे में अगर डे बोर्डिंग स्कूलों के कारण उसे सीबीएसई पाठ्यक्रम के तहत अपनी शैली बदलनी पड़ेगी, तो यह प्रयोग नीयत व नीति बदल सकता है। कुछ इसी तरह तमाम चिकित्सा संस्थानों की रूह बदलने की जरूरत में देखना होगा कि सरकार वर्तमान ढांचे की काबिलीयत कैसे बढ़ाती है।
Rani Sahu
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