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- खेल के खिलाफ
Written by जनसत्ता: खेल जीवन का वह विटामिन है, जिसमें आनंद और उमंग का समानुपातिक जादुई मिश्रण बसा रहता है। इससे शारीरिक, मानसिक विकारों को दूर करने, चुनौतियों से जूझने एवं जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाले गुण पैदा होते हैं। तमाम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खेलों में क्रिकेट की एक अलग पहचान है, लेकिन आज यह खेल कम, दबाव झेलने का विषय ज्यादा बन गया है।
खिलाड़ियों के साथ जनता भी दबाव लिए खेल देखती है, खिलाड़ी खेलने से पहले टीम की जीत के साथ खुद के बेहतर प्रदर्शन को गढ़ने की मशक्कत में लगे रहते हैं। दर्शक जीत का दर्शन करने भर को ही आतुर रहते है। बेहतर के बाद बेहतरीन मैच देखना महज सैद्धांतिक है, वरना मैच की हार का गुस्सा खिलाड़ियों को झेलना पड़ता है। हार भी ऐसी, जिसमें जीतने का दम शामिल रहा हो।
हाल ही में युवा खिलाड़ी अर्शदीप के खेल पर लोगों की नामाकूल टीका-टिप्पणी उस वैचारिक स्तर तक पहुंच गई जिसका खेल जगत से कोई लेना देना है ही नहीं। यही नहीं खेल अब शायद खेल की भावना से कम खेला जाता है, बल्कि खिलाड़ियों की भावनाओं को आहत करने का खेल क्रिकेट सरीखे खेल में शुरू हो गया है। खिलाड़ियों का सह या विपक्ष के खिलाड़ियों से टकराव हो या जनता का हारी टीम के खिलाड़ियों के प्रति गुस्सा, कारण एक ही है- हमें दूसरों की जीत भा नहीं रही है।
अगर हर मैच में जीत संभव होती तो सारे इनामी तमगे जरूर हमारे होते, लेकिन खेल में रुचि रह जाने भर का कोई कारण ही नहीं होता। क्रिकेट के खेल में हर एक गेंद का अपना मजा है। एक के लिए बाल पर विकेट लेना जरूरी है तो दूसरे के लिए रन लेना। लेकिन उसी समय दोनों ही खिलाड़ियों की मनोदशा एक ही होती है, लेकिन फेंकी गई गेंद के परिणाम की खुशी अपने इरादों अनुसार मनाएंगे तो यह गलत है।