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आम जनता के हित से जुड़ी किसी नीति पर अमल से पहले यह सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि उसकी व्यावहारिकता कितनी है
आम जनता के हित से जुड़ी किसी नीति पर अमल से पहले यह सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि उसकी व्यावहारिकता कितनी है और लक्षित समूहों तक पहुंच के लिए जमीनी स्तर पर कितना काम किया गया है। लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार कई बार समस्याओं की जटिलता के ठोस आकलन के बिना ही अपने कदम बढ़ा देती है और ऐसे नियमों की बाध्यता आम लोगों पर थोप देती है, जिसकी व्यावहारिकता आधी-अधूरी होती है। मौजूदा दौर में दुनिया कोरोना महामारी के संकट के जिस स्तर से जूझ रही है, यह सभी जानते हैं।
खासतौर पर हमारे देश में स्थितियां ज्यादा जटिल हैं। इससे निपटने के लिए फिलहाल टीकाकरण को एक उपाय माना जा रहा है। इस दिशा में सरकार कोशिश कर भी रही है। मगर पिछले कुछ समय से टीकाकरण में जैसी समस्याएं सामने आई हैं, उसका अंदाजा सरकार और इस संबंध में नीतियां बनाने वालों को होना चाहिए था। हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि महामारी के दूसरे दौर में जैसे हालात पैदा हुए और इसका दायरा जितना बड़ा हो गया, उसमें चुनौतियां गहरी थीं। संक्रमण को रोकने के लिए पूर्णबंदी सहित दूसरे उपायों के समांतर टीकाकरण अभियान को भी चलाना था।
ऐसे में एक हद तक अव्यवस्था को मजबूरी का नतीजा माना जा सकता है, लेकिन जब यह व्यवस्थागत रूप में दिखने लगे तो सवाल उठना स्वाभाविक है। यह मानना मुश्किल है कि जरूरत के मुकाबले टीकों की उपलब्धता को लेकर संबंधित महकमे और नीतियां बनाने वालों को अंदाजा नहीं रहा होगा। लेकिन आम लोगों को टीका मुहैया कराने की जो प्रक्रिया बनाई गई, वह प्रथम दृष्ट्या ही विचित्र थी। मसलन, टीका लेने के लिए कोविन ऐप पर पंजीकरण को अनिवार्य बना दिया गया। सवाल है कि क्या यह नियम बनाने और उसे स्वीकृति देने वाले इस बात से अनजान हैं कि 'डिजिटल इंडिया' के शोर के बावजूद देश में आज भी कितनी बड़ी आबादी स्मार्टफोन या इंटरनेट तक पहुंच से वंचित है?
साक्षरता की अफसोसनाक स्थिति के समांतर तकनीक के प्रयोग के प्रशिक्षण और अभ्यास के अलावा दूसरे राज्यों में जाकर रोजी-रोटी की तलाश ऐसी जटिलताएं हैं, जो दरअसल शहरी मध्यवर्ग के बरक्स ग्रामीण इलाकों के बीच एक बड़े डिजिटल विभाजन की तस्वीर बनाती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सही ही सरकार की ओर से टीकाकरण के लिए निर्धारित एक अनिवार्य नियम यानी कोविड ऐप पर पंजीकरण की जरूरत पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि नीति-निर्माताओं को जमीनी हकीकत और 'डिजिटल इंडिया' की वास्तविक स्थिति से अवगत रहना चाहिए।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय विशेष पीठ कोरोना विषाणु के मरीजों को आवश्यक दवाओं, टीकों और चिकित्सीय ऑक्सीजन की आपूर्ति से जुड़े मामले का स्वत: संज्ञान लेकर सुनवाई कर रही थी। दरअसल, टीकाकरण अभियान के बीच टीकों की कमी और उसकी कीमतों में फर्क एक बड़ी समस्या बन चुकी है। ऐसे में कुछ राज्यों की ओर से अपने स्तर पर कोविड रोधी विदेशी टीकों की खरीद के लिए वैश्विक निविदा निकालने की खबरें हैं। इस पर भी अदालत ने पूछा कि क्या यह केंद्र सरकार की नीति है! ऐसा लगता है कि टीकाकरण सहित बहुत कुछ महामारी से निपटने के लिए महज सख्ती की नीति पर आधारित है। लेकिन इसके नतीजे क्या सामने आ रहे हैं, यह भी देखना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि महामारी की वजह से हर थोड़े दिनों में स्थितियां बदल रही हैं। कभी चुनौतियां गहरी हो जाती हैं तो कभी थोड़ी राहत दिखती है। ऐसे में जरूरत के मुताबिक नीतियों में बदलाव वक्त का तकाजा होना चाहिए।
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