सम्पादकीय

अमानवीयता के विरुद्ध

Subhi
2 Nov 2022 5:27 AM GMT
अमानवीयता के विरुद्ध
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इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की जांच में अपनाई जाने वाली जिस प्रक्रिया पर कई साल पहले प्रतिबंध लगाया जा चुका है, वह अब तक चलन में रही और उसके आधार पर एक अदालत ने फैसला भी दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही उस फैसले को पलटने के साथ-साथ जांच की इस बेहद अवैज्ञानिक प्रक्रिया के खिलाफ एक बार फिर गहरी नाराजगी जाहिर की है।

Written by जनसत्ता: इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की जांच में अपनाई जाने वाली जिस प्रक्रिया पर कई साल पहले प्रतिबंध लगाया जा चुका है, वह अब तक चलन में रही और उसके आधार पर एक अदालत ने फैसला भी दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही उस फैसले को पलटने के साथ-साथ जांच की इस बेहद अवैज्ञानिक प्रक्रिया के खिलाफ एक बार फिर गहरी नाराजगी जाहिर की है।

दरअसल, झारखंड हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के बाद अंगुलियों के जरिए बलात्कार की पुष्टि की जांच को आधार बना कर हत्या और बलात्कार के आरोपी को बरी कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने उसी मामले में आरोपी को दोषी घोषित किया और बलात्कार की पुष्टि के लिए अपनाई जाने वाली अवैज्ञानिक जांच प्रक्रिया पर पूरी तरह पाबंदी लगाने के साथ-साथ इसे चिकित्सा पाठ्यक्रम तक से हटाने को कहा।

हालांकि इससे पहले खुद सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में ही इस पद्धति को प्रतिबंधित करने का फैसला सुनाया था, मगर विचित्र है कि उसके बाद भी बलात्कार के अपराधों के मामले की पुष्टि के लिए वैसी जांच प्रक्रिया का सहारा लिया जाता रहा, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बल्कि यह जांच एक तरह से पीड़ित महिला के खिलाफ दोहरा अपराध भी है।

निश्चित तौर पर यह व्यवस्था में घुली बहुस्तरीय लापरवाही और सुप्रीम कोर्ट के भी फैसलों की अनदेखी का एक उदाहरण है। सवाल है कि शीर्ष अदालत की ओर से स्पष्ट किए जाने के बावजूद महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध की जांच के लिए इस तरीके का इस्तेमाल क्यों किया जाता रहा? क्या इसके लिए कानूनों को लागू करने वाली संबंधित एजंसियों पर भी सवाल नहीं उठते?

फिर करीब नौ साल पहले इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट रुख के बावजूद अगर किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने उसी पद्धति को अपने फैसले का आधार बनाया तो इसे कैसे देखा जाएगा? अगर प्रशासन से लेकर न्यायापालिका तक में इस स्तर की लापरवाही होती है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज के भीतर ऐसे मसलों पर जागरूकता और संवेदनशीलता की क्या दशा होगी! क्या यह महिलाओं और उनके साथ बलात्कार जैसे सबसे गंभीर अपराधों को लेकर भी उस सामूहिक दृष्टि और मानस का नतीजा है, जिसमें अधिकार और न्याय के सवाल हाशिए पर चले जाते हैं?

इस मसले पर बहुत पहले यह साफ हो चुका है कि बलात्कार की पुष्टि के लिए अंगुलियों से जांच के जरिए यौन संबंधों तक के अभ्यास का भी आधा-अधूरा ही पता लगाया जा सकता है। भारत सहित तमाम देशों में इस तरह की जांच पर पूरी तरह पाबंदी है। इसके अलावा, यह कैसे मान लिया जाता रहा कि अगर किसी महिला ने पहले यौन संबंध बनाए हैं, तो उससे बलात्कार नहीं हुआ हो सकता? यह अपने आप में एक अमानवीय और बेतुका निष्कर्ष है।

खासकर तब जब किसी महिला के शरीर में प्रजनन अंगों की संरचना में आने वाले बदलाव को लेकर तमाम रूढ़ धारणाएं कब की ढह चुकी हैं। पितृसत्तात्मक मूल्यों और धारणाओं के मानस में जीते समाज के बदलने और उसके सशक्तिकरण की प्रक्रिया धीमी हो सकती है, लेकिन इस आधुनिक दौर में कानूनी संस्थाओं में भी ऐसे पिछड़ी और अवैज्ञानिक पद्धति के आधार पर महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर फैसले किए जाते हैं या राय बनाई जाती है तो यह एक बड़ी विडंबना है। यही वजह है कि महिलाओं के हक में सुप्रीम कोर्ट ने इस गंभीर और जरूरी मुद्दे पर सख्त एतराज जताया है।


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