सम्पादकीय

मनमानी के विरुद्ध

Subhi
6 July 2021 3:21 AM GMT
मनमानी के विरुद्ध
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इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि देश की शीर्ष अदालत ने एक कानून की जिस धारा को कई साल पहले निरस्त कर दिया हो |

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि देश की शीर्ष अदालत ने एक कानून की जिस धारा को कई साल पहले निरस्त कर दिया हो, उसके तहत पुलिस लोगों को गिरफ्तार करती रहे और इसके जरिए बेवजह प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी रखे। यह एक तरह से कानून को लागू करने वाली संस्था पर गंभीर सवालिया निशान है। शायद इसीलिए अदालत ने साफ लहजे में कहा कि जो रहा है कि वह काफी भयानक, चिंताजनक और चौंकाने वाला है। अदालत की टिप्पणी अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि पुलिस कैसे अपनी मर्जी से किसी कानून की धारा का इस्तेमाल करती है और लोगों को नाहक ही इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। जबकि न्याय की समूची अवधारणा इस बात पर निर्भर करती है कि जमीनी स्तर पर आम लोगों के साथ पुलिस का बर्ताव कैसा होता है और कानूनों के अमल को लेकर वह कैसा रवैया अपनाती है। यह खुद पुलिस महकमे के लिए चिंता की बात होनी चाहिए कि जिस कानून पर सुप्रीम कोर्ट रोक लगा चुका है, उसका इस्तेमाल वह धड़ल्ले से करती रही और आज इस मसले पर वह कठघरे में खड़ी है।

गौरतलब है कि अदालत के तीन सदस्यीय पीठ ने एक संगठन के आवेदन पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा- 66 ए के दुरुपयोग के सवाल पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। इस मामले में शिकायतकर्ता की ओर से कहा गया है कि ग्यारह राज्यों में जिला न्यायालयों के समक्ष एक हजार से ज्यादा मामले अभी भी लंबित और सक्रिय हैं, जिनमें आरोपी व्यक्तियों पर धारा-66 ए के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2015 में ही श्रेया सिंघल मामले में इस धारा को निरस्त कर दिया था, उसके बाद भी इसके तहत निचली अदालतों में मुकदमे किस आधार पर चल रहे हैं! जाहिर है, पुलिस अपने स्तर पर इस धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज करती रही। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रावधान को रद्द कर दिया है और अभी यह धारा 'बेयर एक्ट' में मौजूद है। यानी जब पुलिस अधिकारी को मामला दर्ज करना होता है तो वह नीचे लिखी टिप्पणी को देखे बिना सिर्फ धारा देखता है। किसी कानून के तहत कार्रवाई करने वाली पुलिस की इस लापरवाही के नतीजे के तौर पर अगर किसी को प्रताड़ित होना पड़ता है तो इसकी जवाबदेही किस पर आती है?
यह बेवजह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे आश्चर्यजनक और भयानक माना है। यह जगजाहिर रहा है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की इस धारा का इस्तेमाल किस तरह अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने के लिए किया गया। सोशल मीडिया या स्वतंत्र मंचों पर की गई टिप्पणियों को मनमाने तरीके से आपत्तिजनक की परिभाषा में डाल कर लोगों को गिरफ्तार करना और प्रताड़ित करना एक चलन बनता जा रहा था। इस कानून के तहत इंटरनेट पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने के आरोप में किसी व्यक्ति को तीन वर्ष तक की जेल की सजा हो सकती थी। ऐसे लगातार मामलों के सामने आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि धारा- 66 ए पूरी तरह से अनुच्छेद 19 (1) ए के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अदालत इस मसले पर सख्त लहजे में यहां तक कह चुकी है कि धारा- 66 ए में गिरफ्तारी करने वाले अफसरों को जेल भेज देंगे। मगर शीर्ष अदालत के सख्त रुख के बावजूद इस स्तर की लापरवाही यह बताती है कि कानूनी जटिलताओं की व्याख्या सरकार और पुलिस किस तरह अपनी सुविधा के मुताबिक करती है।

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