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10 रु. की क्रीम लगाकर गोरा बनाने के विज्ञापन तो अब भी चल रहे हैं, लेकिन
विज्ञापन और जेंडर का आपस में क्या रिश्ता है? अगर आप गूगल पर ये दोनों की वर्ड डालें और सर्च करें तो आपको ऐसे अनेकों आर्टिकल मिल जाएंगे, जो बता रहे होंगे कि पिछले एक दशक में भारतीय विज्ञापनों में स्त्रियों की छवि किस तरह बदली है. जहां पहले डिटर्जेंट पाउडर का विज्ञापन औरतों को ये बता रहा होता था कि कैसे अपने पति की सफेद शर्ट चमकाएं और अपने हाथों को भी कोमल बनाएं, वही अब उसकी टैगलाइन है- शेयर द लोड. हालांकि सच तो ये भी है कि अब कपड़े हाथ से नहीं धुले जा रहे. अब सिर्फ उन्हें मशीन में डालना और कुछ बटन भर दबाना है. ऐसे में विज्ञापन मर्दों से शेयर द लोड के बहाने ये कह रहा है कि दो-चार बटन ही तो दबाना है. वो भी नहीं कर सकते क्या.
10 रु. की क्रीम लगाकर गोरा बनाने के विज्ञापन तो अब भी चल रहे हैं, लेकिन शुक्र है कि अब वो ये नहीं कह रहे कि ये क्रीम लगाने से लड़की पायलट बन जाएगी या इंटरव्यू में नौकरी पा जाएगी.
ऐसे कुछ उंगलियों पर गिने जा सकने लायक विज्ञापन हैं, जो जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों और टैबू को तोड़ रहे हैं, लेकिन फिर भी हकीकत यही है कि आज भी विज्ञापनों की दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पुराने रूढि़वादी मूल्यों और पूर्वाग्रहों को ही पोस रहा है. घर के काम अभी भी स्त्री ही कर रही है, मां ही बच्चे के सीने पर बाम मल रही है, उनके लिए मैगी पका रही है, पति के दिल की सेहत का ख्याल रख रही है, एक खास प्रकार के टूथपेस्ट से बच्चों के दांत साफ कर रही है, मसाले कूट रही है, कीटनाशक डालकर पोंछा लगा रही है और टॉयलेट साफ कर रही है. और तो और, इंजन ऑयल से लेकर ट्रक के टायर और मर्दों के चड्ढी-बनियान के विज्ञापन में भी औरत ही खड़ी है. अभी भी औरत का शरीर दिखाए बगैर विज्ञापन एक भी प्रोडक्ट बेच नहीं पा रहे हैं.
अब तक तो भारत में कोई जेन किलबोर्न पैदा नहीं हुई और न ही पश्चिम की तरह यहां विज्ञापन इंडस्ट्री के सेक्सिस्ट और स्त्री विरोधी ऐतिहासिक कारगुजारियों पर कोई पर लंबा शोधपरक काम हुआ है. किलिंग अस सॉफ्टली की तरह मैसिव डॉक्यूमेंटेशन भी हमारे यहां नहीं है.
लेकिन इन सारे अभावों के बीच आगामी सितंबर में आने वाली एक रिपोर्ट को जरूर उम्मीद से देखा जा सकता है. द एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया इस सितंबर में एक जेंडर रिपोर्ट जारी करने जा रही है. इस रिपोर्ट में यह देखने और समझने की कोशिश की गई है कि विज्ञापनों की दुनिया औरतों को कैसे देखती है, उनके प्रति क्या नजरिया और विचार रखती है. कहां-कहां बहुत मुखर और कहां छिपे हुए पूर्वाग्रह हैं. विज्ञापनों में दिखाई जा रही स्त्रियों की छवि हकीकत के कितने करीब है और कितनी हद तक ये आर्टिफिशियल इमेज वास्तविक जिंदगी की स्त्रियों पर नकारात्मक असर डालती है.
रिपोर्ट का उद्देश्य सिर्फ ये बताना नहीं है कि छवि नकारात्मक और गलत है. इसका मकसद ये बताना भी है कि इस छवि को कैसे बदला जा सकता है. किन पहलुओं पर विचार करने और किन्हें बदलने की की जरूरत है.
इस रिपोर्ट का एक मकसद ये भी है कि इसकी मदद से विभिन्न ब्रांड स्त्रियों के प्रति एक सकारात्मक और पूर्वाग्रह मुक्त नजरिया बना सकें, जिसका प्रभाव उनके विज्ञापनों पर भी नजर आए.
यह स्टडी कराने के पीछे द एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया का एक मकसद यह जानना भी है कि इतने सालों से विज्ञापन जो पूर्वाग्रह और रूढि़वाद परोसते रहे हैं, उसने स्त्रियों की छवि और उनके जीवन, दोनों को कितना नुकसान पहुंचाया है.
इस रिपोर्ट का नाम है- 'जेंडर नेक्स्ट.' यह रिपोर्ट एक तरह से भारतीय विज्ञापन जगत को अपने अतीत में झांकने, अपनी गलतियों का आंकलन करने और भविष्य में ज्यादा सावधानी और समझदारी के साथ विज्ञापनों के जरिए एक नया जेंडर नरेटिव तैयार करने के लिए प्रेरित करेगी.
शनेल के विज्ञापन में अभिनेता ब्रैड पिट और मॉडल लिंडा एवेंजेलिस्ता
नओमी वुल्फ से लेकर जेन किलबोर्न तक ने हजारों पन्ने ये समझाने में काले किए कि कैसे विज्ञापनों में दिखाई जा रही औरत की छवि, उसका शरीर, उसके लिए तय किया गया जेंडर रोल उसके मनुष्य बनने की राह में दीवार की तरह खड़ा है. फोटोशॉप का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और उसके जरिए दिखाई जा रही नकली छवि ने लड़कियों को उनके शरीर और सौंदर्य की एक ऐसी असंभव इमेज दिखाई, जो हकीकत में मुमकिन ही नहीं है. किसी इंसान का चेहरा इतना साफ-शफ्फाक, चमकीला, सॉफ्ट, बिना दाग-धब्बों वाला नहीं होता, जैसे वो विज्ञापनों में दिखाते हैं.
लेकिन सबसे मजे की बात ये है कि इतना चमकीला और बिना दाग-धब्बों, झुर्रियों वाला वो सिर्फ औरत का चेहरा दिखाते हैं. पुरुषों के चेहरे के साथ फोटोशॉप इतना खिलवाड़ नहीं करता. जैसे अमेरिकन परफ्यूम ब्रांड शनेल के दो विज्ञापन हैं. एक विज्ञापन में अभिनेता ब्रैड पिट हैं और दूसरे में मॉडल लिंडा एवेंजेलिस्ता. एक ही साल 2012 में आए और एक ही ब्रांड के इन दो अलग-अलग विज्ञापनों को एक साथ रखकर देखें तो समझ आता है कि विज्ञापन का कैमरा एक स्त्री और एक पुरुष को अलग-अलग कैसे देखता है.
ब्रैड पिट के फोटो पर फोटोशॉप उतना मेहरबान नहीं है. उसके माथे पर शिकन है, आंखों के कोनों में झुर्रियां हैं, चेहरे पर बेतरतीब उगी दाढ़ी है, बिखरे हुए बाल हैं, दाढ़ी के कुछ बाल सफेद भी हैं. वही लिंडा एवेंजेलिस्ता का चेहरा इतना स्मूथ, साफ, शफ्फाक, चमकदार है कि सैकड़ों नियॉन लाइट की रौशनी एक साथ चेहरे पर डालने के बावजूद खुद ईश्वर के फरिश्ते भी एक झुर्री न ढूंढ पाएं.
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