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जोखिम लेने की समझ पैदा करनी चाहिए, ताकि वह एक सफल उद्यमी बन सकें।
हमारे मुल्क में आजादी के बाद से लेकर अब तक की सभी पीढ़ियां बेरोजगारी से निपटने के लिए अपने भाग्य को ही एकमात्र सहारा समझती रही हैं। जबकि लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने वाली हर सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा होता है, लेकिन बेरोजगारी खत्म होती नहीं दिखती। वर्तमान परिदृश्य की ही बात की जाए, तो पिछले महीने तक भारत में बेरोजगारी की दर सात प्रतिशत से अधिक थी। शहरी क्षेत्र में ये दर 9.30 प्रतिशत थी तथा ग्रामीण क्षेत्र में 7.28 प्रतिशत थी। वहीं मई, 2021 में तो इसकी दर 12 प्रतिशत के आसपास रही है।
उस समय शहरी क्षेत्र में यह लगभग 15 प्रतिशत हो गई थी और ग्रामीण क्षेत्र में 11 प्रतिशत थी। यहां पर यह कहना भी उचित प्रतीत होगा कि उस समय कोरोना की द्वितीय लहर का असर मुख्य रूप से था, परंतु दिसंबर के महीने के बेरोजगारी दर के आंकड़ों के लिए कोरोना को दोष देना अनावश्यक प्रतीत होता है। राज्यों की बात की जाए, तो दिसंबर के माह में हरियाणा में बेरोजगारी की दर सबसे अधिक 34.1 प्रतिशत थी। वहीं दूसरे नंबर पर राजस्थान था, जहां पर यह 27 प्रतिशत रही है। उसी तरह 10 से 20 प्रतिशत की बेरोजगारी की दर वाले राज्यों में झारखंड, बिहार, त्रिपुरा व गोवा मुख्य थे। निश्चित रूप से ये आंकड़े हमें भयभीत करने वाले हैं।
अगर विश्लेषणात्मक अध्ययन के माध्यम से इसे समझने की कोशिश की जाए, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्थिक विकास की गलत नीतियों का चयन ही बेरोजगारी की समस्या का मुख्य कारण है। अगर इतिहास के पन्नों को टटोलने की कोशिश करेंगे, तो यह पाएंगे कि किसी भी पंचवर्षीय योजना में बेरोजगारी के निदान को एकमात्र उद्देश्य नहीं बनाया गया है। इस बात पर गौर करना होगा कि कृषि क्षेत्र की लगातार अनदेखी भी एक गलत आर्थिक निर्णय था। आजादी के बाद से लगातार इस क्षेत्र का आर्थिक अंशदान कम ही होता चला गया।
वर्तमान समय में यह उस बिंदु पर खड़ा है, जो इस क्षेत्र पर निर्भर रहने वाले लोगों की दयनीय आर्थिक स्थिति को खुद ब खुद स्पष्ट करता है। आज भी मुल्क की 50 प्रतिशत जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, परंतु कृषि क्षेत्र मात्र 15 से 20 प्रतिशत का ही अंशदान दे रहा है, तो यह समझा जा सकता है कि सबसे अधिक बेरोजगारी कृषि क्षेत्र में ही है।
बेरोजगारी की समस्या के निराकरण हेतु मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर या उत्पादन क्षेत्र को बहुत पहले ही मुख्यधारा में ले आना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। इसका अंतिम परिणाम यह है कि आज भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रहने वाले लोगों के पास भारत जैसे विशाल मुल्क में कृषि के अलावा आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर देश में आत्मनिर्भरता का एक मुख्य स्रोत बन सकता है तथा बहुत हद तक इससे बेरोजगारी की समस्या का निदान भी संभव हो सकता है।
इस पक्ष पर भी गौर किया जाए कि पिछले चार दशकों से लगातार अर्थव्यवस्था का संचालन कर रहा सर्विस सेक्टर भी बेरोजगारी के निवारण का मुख्य विकल्प नहीं बन पाया है। आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में 60 से 70 प्रतिशत अंशदान देने वाला सर्विस सेक्टर मात्र 30 से 35 प्रतिशत जनसंख्या को ही रोजगार के विकल्प दे रहा है।
सर्विस सेक्टर की पहुंच अब भी ग्रामीण क्षेत्रों व छोटे शहरों तक नहीं बनी है। भारत का ऐसा युवा, जो आईटी क्षेत्र में पारंगत नहीं है, उसके लिए इस क्षेत्र में कोई रोजगार का स्रोत उपलब्ध नहीं है। तस्वीर का एक अन्य पक्ष यह भी है कि पिछले तीन दशकों से सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते दबदबे से हर मां-बाप व अभिभावक पर अपने बच्चों के लिए इस क्षेत्र की महंगी शिक्षा को हासिल कराने का एक अनावश्यक दबाव बना है।
व्यवहारिक तौर पर देखा जाए, तो बेरोजगारों की बढ़ती संख्या के पीछे हमारे देश की कमजोर शैक्षणिक व्यवस्था भी है। हमारी शिक्षा हकीकत में विद्यार्थियों में न तो सामाजिक नेतृत्व करने की क्षमता को विकसित कर रही है और न ही शिक्षा का व्यावहारिक स्तर विकसित मुल्कों की तुलना में अच्छा है। बेरोजगारी से निपटने के लिए भाग्य को हथियार बनाने की बजाय विद्यार्थियों में शिक्षा के माध्यम से शुरुआती स्तर पर ही जोखिम लेने की समझ पैदा करनी चाहिए, ताकि वह एक सफल उद्यमी बन सकें।
Neha Dani
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