सम्पादकीय

आजादी के बाद : परिवारवाद की राजनीति के खतरे, सत्ता के गलियारे में वोट बैंक और तुष्टिकरण का लक्ष्य

Neha Dani
13 Jun 2022 1:45 AM GMT
आजादी के बाद : परिवारवाद की राजनीति के खतरे, सत्ता के गलियारे में वोट बैंक और तुष्टिकरण का लक्ष्य
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झारखंड से जम्मू-कश्मीर तक देश को परिवारवाद की राजनीति से मुक्त कराने की जरूरत है।

आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने और गरीब से गरीब व्यक्ति को इस व्यवस्था में आगे बढ़ने हेतु समान अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाई थी। हमारे संविधान और लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही गरीब से गरीब व्यक्ति के सशक्तीकरण की थी। कालांतर में देश के लोगों का विश्वास इस बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से डगमगाने लगा था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एक तो आजादी के आंदोलन के लिए बनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बाद में परिवार केंद्रित पार्टी हो गई।

दूसरा यह कि अलग-अलग राज्यों में परिस्थितिवश जिन क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ, उन सभी पार्टियों पर परिवारवाद ने कब्जा जमा लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार परिवारवाद की राजनीति के खतरे से देश को आगाह किया है। अब समय आ गया है कि समाज और राष्ट्र के विकास के लिए इस पर गंभीर चिंतन किया जाए और परिवारवाद की राजनीति खत्म की जाए। विगत करीब चार-पांच दशक से परिवारवादी पार्टियों ने हर क्षेत्र में प्रतिभाओं का गला घोंटा और राज्यों का विकास भी अवरुद्ध किया।
इनका एकमात्र लक्ष्य किसी न किसी तरह से सत्ता हासिल करना और सत्ता में बने रहना ही हो गया। इन्होंने वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति करनी शुरू की। इन परिवारवादी पार्टियों की सरकारों के शब्दकोश से 'सर्वांगीण विकास' शब्द गायब होने लगा। सत्ता-स्वार्थ की राजनीति में गरीब और गरीब होते चले गए और शोषित, वंचित, दलित, पिछड़े, आदिवासी एवं महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा। परिवारवाद, वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति से समाज के एक बड़े वर्ग से विकास का हक छीना जाता है।
कांग्रेस और दूसरी परिवारवादी पार्टियों ने, इनके वोट बैंक और राजनीति ने राजनीतिक दलों को अपना बंधक बना लिया है। कोई फैसला अगर देशहित में हो, तब भी वे उसका विरोध करने में नहीं हिचकिचाते। इसकी एक झलक हमने तब भी देखी, जब इन लोगों ने संसद में अनुच्छेद 370 को खत्म करने और तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त करने का विरोध किया था। इनकी इसी सोच ने सर्जिकल स्ट्राइक और हवाई हमले के भी सबूत मांगे। परिवारवादी पार्टियों को देश की नहीं, वोट बैंक की, अपने परिवार की चिंता रहती है।
उन्हें देश के गरीबों की नहीं, अपनी तिजोरी की चिंता रहती है। यही कारण है कि आजादी के 70 साल बाद भी देश की लगभग तीन चौथाई आबादी के पास अपना बैंक एकाउंट तक नहीं था, गरीब महिलाओं के पास गैस सिलिंडर नहीं था, गरीबों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं था, पक्का घर नहीं था। आम जन चुनाव में परिवारवाद, वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति से क्षुब्ध और उद्वेलित थे। भाजपा अंत्योदय, एकात्म मानववाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा पर अडिग है।
इसलिए वह कल भी परिवारवाद की राजनीति से मुक्त थी, आज भी मुक्त है और आगे भी परिवारवाद, जातिवाद, वोट बैंक और तुष्टिकरण के नासूर से मुक्त रहेगी। भाजपा में आज कोई अध्यक्ष है, तो कल कोई और बनेगा, जबकि इन परिवारवादी पार्टियों में एक ही परिवार के लोग पार्टी के सर्वोच्च पदों, और सत्ता में रहने पर सत्ता के शीर्ष पदों पर होते हैं। हर योजना एवं नीति को क्षेत्रवाद और संप्रदायवाद का रंग देने का प्रयास देश के भविष्य के लिए चिंता का विषय है। आज निष्पक्ष संस्थाएं भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करती हैं, तो भ्रष्टाचारियों का पूरा इको सिस्टम उन्हें बदनाम करने के लिए सामने आ जाता है।
आम जन चुनावों में परिवार आधारित दलों की बढ़ती संख्या से निराश हैं। भारतीय राजनीति में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री ने कई बार चुनाव सुधार पर बात की है। इस पर विचार होना चाहिए। भाजपा परिवारवादी पार्टियों से लगातार लड़ रही है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में काफी हद तक जातिवाद, परिवारवाद और तुष्टिकरण की राजनीति पर अंकुश लगा है। यह लड़ाई लंबी है और महाराष्ट्र से तेलंगाना, तमिलनाडु और बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड से जम्मू-कश्मीर तक देश को परिवारवाद की राजनीति से मुक्त कराने की जरूरत है।

सोर्स: अमर उजाला

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