सम्पादकीय

राष्ट्रमंडल 'प्रथम' के बाद..

Gulabi Jagat
10 Aug 2022 10:47 AM GMT
राष्ट्रमंडल प्रथम के बाद..
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बर्मिंघम राष्ट्रमंडल खेलों का पटाक्षेप
बर्मिंघम राष्ट्रमंडल खेलों का पटाक्षेप हो चुका है। भारत ने 22 स्वर्ण, 16 रजत और 23 कांस्य के साथ कुल 61 पदक जीते हैं। यह अभी तक की सर्वश्रेष्ठ खेल-उपलब्धि है, बेशक दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में हमने 101 और 2018 के गोल्ड कोस्ट खेलों में 66 पदक जीते थे। आंकड़ों का अंतर हो सकता है, लेकिन खिलाडिय़ों के प्रदर्शन की व्यापकता ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। पहले के आयोजनों में निशानेबाजी शामिल थी, लेकिन बर्मिंघम खेलों की सूची से उसे बाहर कर दिया गया था। निशानेबाजी में भारतीय खिलाडिय़ों ने झोली भर पदक जीते थे। उसके बिना भारत ने 22 स्वर्ण पदक जीत कर 72 देशों की प्रतियोगिता में चौथा स्थान हासिल किया है। यह उपलब्धि वाकई 'उत्सवी' है। खेलों के अंतिम दिन भारत ने सिर्फ बैडमिंटन में ही तीन स्वर्ण पदक जीते। पीवी सिंधु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीत का 'भारतीय चेहरा' रही हैं। उन्होंने 2019 में विश्व चैम्पियन बनने का गौरव जिया है और देश को गर्वोन्नत महसूस करने का मौका दिया है। सिंधु ऐसी शटलर हैं, जिन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में तीनों रंग के पदक हासिल किए हैं। इस बार वह स्वर्ण विजेता हैं।
पुरुष एकल के 'स्वर्णिम विजेता' लक्ष्य सेन और युगल स्पद्र्धा के सात्विक-चिराग की जोड़ी ने बैडमिंटन खेल की नई ऊंचाइयां नापी हैं और नए रुझान के 'मील-पत्थर' स्थापित किए हैं। ये तीनों युवा भी 'भारतीय विजय श्री' के वैश्विक चेहरे हैं। दरअसल राष्ट्रमंडल खेलों में हमारी विशेष उपलब्धियां तिहरी कूद, लॉन बॉल्स, स्टीपल चेस का उल्लेख किए बिना अधूरी हैं। तिहरी कूद में 1974 में मोहिंदर सिंह गिल ने रजत पदक जीता था, लेकिन इन खेलों में भारत के एल्डोस पॉल ने स्वर्ण हासिल किया और अब्दुल्ला अबुबकर ने 'चांदी' बटोरी। यकीनन यह अभिनव, अभूतपूर्व, अप्रत्याशित सफलता है। लॉन बॉल्स का नाम ज्यादातर भारतीयों ने सुना भी नहीं होगा, लेकिन इस खेल में भारतीय महिलाओं ने स्वर्ण और पुरुष टीम ने रजत पदक हासिल किया। यकीनन यह उपलब्धि भी 'प्रथम' है। अविनाश साबले ने 3000 मीटर की स्टीपल चेस में रजत पदक जीत कर 1994 से केन्या के वर्चस्व में सेंध लगाई है। यह सफलता भी 'प्रथम' है। श्रेय अमरीका में लिए गए प्रशिक्षण को देना पड़ेगा, जिसने साबले के खेल को प्रभावित किया। सरकारी मदद को भी श्रेय देना चाहिए, जिसने खेल नीति बदली और 'टॉप्स' स्कीम के तहत खिलाडिय़ों को वित्तीय मदद मुहैया कराई। इस बार राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के हिस्से कई 'प्रथम' दर्ज किए गए हैं। अब विमर्श और मंथन का बिंदु सिर्फ यह होना चाहिए कि राष्ट्रमंडल के इन 'प्रथम' के बाद क्या किया जाना चाहिए? इनसे भी बेहतर नतीजों के लिए किस स्तर पर प्रशिक्षण, आर्थिक मदद और सरकार की प्रतिबद्धता की जरूरत है, यह सोचा जाना चाहिए। अगले साल चीन में एशियाई खेलों का आयोजन होना है।
उसके बाद 2024 के पेरिस ओलिंपिक्स हैं। रास्ते आसान नहीं हैं। बेशक भारत कुश्ती, मुक्केबाजी, भारोत्तोलन और बैडमिंटन में अब नई चुनौती बन चुका है। एशियाई और ओलिंपिक में उन देशों के खिलाड़ी भी शिरकत करेंगे, जो इन खेलों की स्थापित ताकत माने जाते रहे हैं। उन खिलाडिय़ों ने बुलंदियां भी छुई हैं। सवाल एथलेटिक्स और टै्रक खेलों का भी है। सिर्फ उदाहरण के लिए हम हॉकी के खेल को लेते हैं। इस बार भारत पुरुष और महिला वर्ग की हॉकी में फाइनल में पहुंचा। बेशक टीमों में दम था, जो तमाम चुनौतियों को पछाड़ते हुए फाइनल तक पहुंची, लेकिन अंतिम मुकाबला एकतरफा रहा। अब भी भारतीय हॉकी ऑस्टे्रलिया की तुलना में 'बेदम' है। हमारी टीमें फाइनल में बुरी तरह हारीं। कोई बात नहीं, हमारी टीमों के कोच विश्लेषण करेंगे और कमजोरियों को पाटने का रास्ता निकालेंगे। ऊंची कूद के रजत पदक विजेता खिलाड़ी तेजस्विन शंकर को टीम में शामिल होने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। यह चयन-प्रक्रिया के लिए सवाल और शर्मिंदगी है। अब ऐसे अध्यायों की पुनरावृत्ति बंद होनी चाहिए। अब भारत सरकार प्राथमिकता के स्तर पर खेलों को ले और साबित करे कि नौजवान वर्ग इन्हें भी करियर के विकल्प के तौर पर ग्रहण कर सकता है। हमारी आबादी और अर्थव्यवस्था के अनुपात में खेलों में हमारा प्रदर्शन अभी बहुत कम है और उसके लिए किया जाने वाला भुगतान भी बहुत बौना है। जो खिलाड़ी पेशेवर सर्किट में खेल रहे हैं, उनकी बात अलग है, लेकिन जो देश के लिए ही खेलना चाहते हैं, उनके लिए प्रोत्साहन और अवसर आज भी सवालिया हैं। सरकार जरूर सोचे।




By: divyahimachal


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