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अमरिंदर सिंह के बाद अब राहुल गांधी की ताकत देखेंगे अशोक गहलोत और भूपेश बघेल
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | अजय झा | मार्च-अप्रैल के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) में करारी हार से लगता है कि कांग्रेस पार्टी (Congress Party) ने कुछ सबक सीख लिया है, इसमें से एक है समस्या को सुलझाने की कोशिश और नीयत. जहां राजनीति है तो सत्ता की चाहत भी होगी और जहां सत्ता है वहां कुर्सी के लिए जंग भी होगी. यह बात सभी दलों पर लागू होती है, पर कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी लड़ाई सुर्ख़ियों में छायी रहती है. फ़िलहाल कांग्रेस पार्टी अपने दम पर सिर्फ तीन राज्यों में ही सत्ता में है, और तीनों राज्यों में कुर्सी की लड़ाई पार्टी के लिए सरदर्द साबित हो रही है. ये तीन राज्य हैं पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़.
पंजाब कांग्रेस पार्टी के लिए काफी अहम् है. अगले साल के शुरुआती महीनों में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव निर्धारित हैं उसमें पंजाब भी एक है. पंजाब में पिछले दो सालों से सत्ता का घमासान मचा हुआ था, जिसे लगता है कि अब सुलझा लिया गया है. मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह (CM Amarinder Singh) के लाख विरोध के वावजूद नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को प्रदेश अध्यक्ष पद की कुर्सी दी गयी और अमरिंदर सिंह को शायद कठोर शब्दों में बता दिया गया कि आलाकमान इस पर मुद्दे पर किसी और विरोध को बर्दाश्त नहीं करेगा. लिहाजा अमरिंदर सिंह जो सिद्धू को सरेआम अपने खिलाफ चुनाव लड़ने की चुनौती दे रहे थे और आरोप लगा रहे थे कि सिद्धू आम आदमी पार्टी (AAP) में शामिल होने वाले हैं, शुक्रवार को भीगी बिल्ली की तरह दिखे.
पार्टी से बड़े नहीं हो सकते हैं सीनियर नेता
सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा के बाद भी अमरिंदर सिंह कह रहे थे कि जबतक सिद्धू उनसे उनके खिलाफ लिखे गए ट्वीट के लिए माफ़ी नहीं मांगते हैं, वह ना ही सिद्धू से मिलेंगे ना ही उनसे बात करेंगे. सिद्धू ने माफ़ी तो नहीं मांगी, पर अमरिंदर सिंह शुक्रवार को सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष पद की ताजपोशी समारोह में आये भी और सिद्धू से बात करते भी दिखे.
कहते हैं कि हथौड़ा तब ही चलाना चाहिए जब लोहा गर्म हो. जिस तरह से अमरिंदर सिंह को बताया गया कि वह पार्टी से बड़े नहीं हो सकते और फिर जिस तरह से अमरिंदर सिंह दहाड़ते शेर से भीगी बिल्ली बन गए, इसका सीधा असर अब राजस्थान में दिखने जा रहा है. शनिवार को पार्टी के दो महासचिव जयपुर पहुंचे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से बात की. ये दो महासचिव हैं राजस्थान के प्रभारी अजय माकन और संगठन महामंत्री के.सी. वेणुगोपाल. वेणुगोपाल का जयपुर जाना काफी मायने रखता है. आपने आप में वेणुगोपाल इतने बड़े नेता नहीं है कि गहलोत उनकी बात सुने, वह भी तक जबकि अजय माकन पिछले एक साल से गहलोत को समझाने की कोशिश में जुटे थे पर गहलोत उनकी सुनने को राजी नहीं थे.
गहलोत को भी मिला अल्टीमेटम
वेणुगोपाल राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं. पंजाब में सिद्धू की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का फैसला राहुल गांधी का था और इस तरह से अमरिंदर सिंह को उसे मानना पड़ा उससे गहलोत का घबरा जाना स्वाभाविक है. वेणुगोपाल शायद राहुल गांधी का सन्देश ले कर गए हैं कि गहलोत सचिन पायलट और उनके सहयोगी विधायकों से पक्षपात और बदले की राजनीति करना बंद करें वर्ना पार्टी को कोई कठोर कदम उठाना पड़ेगा.
पिछले साल तक मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस सत्ता में थी पर अंदरूनी लड़ाई को पार्टी आलाकमान द्वारा लम्बे समय तक अनदेखा करने का नतीजा हुआ राज्य में सत्ता का पतन और बीजेपी का पीछे दरवाज़े से सत्ता में प्रवेश. मध्य प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ भी पार्टी के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ ले कर चलने की जगह उन्हें ठिकाने लगाने की इच्छा रखते थे. सिंधिया ने बगावत कर दी और अपने सहयोगी विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. कांग्रेस पार्टी को अब शायद समझ में आ गया है कि अगर समय रहते कमलनाथ को काबू किया जाता तो मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी रहती.
राजस्थान में भी सिंधिया की तरह पिछले साल सचिन पायलट ने भी विद्रोह का परचम लहराया था. लगने लगा था कि सिंधिया की ही तरह वह भी बीजेपी में शामिल हो जायेंगे. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया-बुझाया गया, कांग्रेस आलाकमान ने उनसे वायदा किया था कि उनकी मांगों पर विचार किया जायेगा और उनके खेमे को सरकार और पार्टी में उचित पद दिया जाएगा. पर एक साल से भी ज्यादा समय गुजरने के बाद भी पार्टी कुछ नहीं कर पायी क्योंकि गहलोत आलाकमान की बात मानने को तैयार नहीं थे. पर अब हालात बदल गए हैं और गहलोत का डर जाना और नर्म पड़ जाना दर्शाता है कि वह अन्दर से सहमे हुए हैं. खबर है कि अगले दो-तीन दिनों में राजस्थान में मंत्रीमंडल में फेरबदल और विस्तार किया जाएगा जिसमे पायलट और उनके समर्थकों को उचित स्थान मिलेगा.
छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव बनाम भूपेश बघेल का बवाल
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पिछले दिनों दिल्ली दरबार में हाजिरी लगा चुके हैं, जहां उन्होंने कहा कि सरकार के बारे में पार्टी जो भी निर्णय लेगी वह उन्हें मान्य होगा. छत्तीसगढ़ के स्वास्थ मंत्री टी.एस. सिंहदेव ने पिछले दिनों कांग्रेस आलाकमान को उनका ढ़ाई साल पुराना वादा याद दिलाया था जिसके बाद प्रदेश में सत्ता की जंग छिड़ गयी. 2018 में चुनाव जीतने के बाद प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार थे– बघेल और टीएस सिंहदेव. माना जा रहा है कि राहुल गांधी ने सिंहदेव से वादा किया था कि ढ़ाई साल में बाद बघेल की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा और सिंहदेव इस बात पर राजी हो गए थे. पर बघेल ने कहा कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है और सिंहदेव के लिए कुर्सी खाली करने से मना कर दिया.
अचानक अख़बारों में छत्तीसगढ़ सरकार का फुल पेज विज्ञापन छपने लगा, जिसमें बघेल की बड़ी फोटो के साथ उनके सफल नेतृत्व का गुणगान था. साफ़ हो चला था कि बघेल अपनी जिद पर अड़ गए हैं, जो शायद गलत भी नहीं था. क्योंकि जब उनका मुख्यमंत्री के तौर पर कामकाज ठीक है तो फिर उन्हें पद से हटाने की बात क्यों शुरू हो गयी. बघेल ने यह भी कहा था कि ढ़ाई साल में मुख्यमंत्री पद किसी और को सौपने की प्रथा गठबंधन सरकारों में होती है ना कि उस पार्टी में जिसे पूर्ण बहुमत हासिल हो.
राहुल गांधी अब अपने पुराने फैसलों को सुधार रहे हैं
2018 के आखिरी महीनों में कांग्रेस पार्टी बीजेपी से तीन राज्यों में सत्ता छिनने में सफल रही थी. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी लगातार 15 वर्षों से सत्ता में थी. राहुल गांधी उन दिनों कांग्रेस पार्टी के विधिवत और संवैधानिक तरीके से राष्ट्रीय अध्यक्ष होते थे. तीनों बीजेपी शासित प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी की जीत काफी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि 2019 का लोकसभा चुनाव कुछ ही महीने दूर था. कांग्रेस पार्टी ने ऐलान कर दिया था कि उनकी तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी होंगे. तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के लिए एक से ज्यादा उम्मीदवार थे– मध्य प्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया, राजस्थान में गहलोत और पायलट तथा छत्तीसगढ़ में बघेल और सिंहदेव. अनुभव की कमी होने के कारण राहुल गांधी ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिसके कारण तीनों राज्यों में उठापटक की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी.
मध्य प्रदेश और राजस्थान में उम्र और अनुभव को वरीयता दी गयी और युवा नेता सिंधिया और पायलट को राहुल गांधी ने उपमुख्यमंत्री का पद ऑफर किया. सिंधिया ने उपमुख्यमंत्री बनने से माना कर दिया जबकि पायलट मान गए. संभव है कि छत्तीसगढ़ में सिंहदेव की तरह सिंधिया और पायलट से भी कुछ ऐसा ही वादा किया होगा, वर्ना शुरुआत से ही कमलनाथ और गहलोत, सिंधिया और पायलट को कमजोर करने कि कोशिश में ना जुट गए होते. आखिर कौन अपनी इच्छा से मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार होता है और अपने उत्तराधिकारी को प्रोत्साहन देता है?
पर पंजाब के मामले में जिस तरह राहुल गांधी ने अमरिंदर सिंह से मिलने से मना कर दिया और एक कठोर निर्णय लिया, जिसका अनुमोदन उनकी मां सोनिया गांधी ने भी किया, लगने लगा है कि राहुल गांधी अब अपनी गलतियों से सबक सीखने लगे हैं और ढुलमुल की राजनीति से तौबा करने के मूड में हैं. वेणुगोपाल का जयपुर जाना और गहलोत से मिलना तो यही दर्शाता है. साथ ही सभी को यह सन्देश भी दिया जा रहा है कि कोई नेता अपने को पार्टी से बड़ा समझने की भूल ना करे, क्योंकि कांग्रेस पार्टी में राहुल गंधी ही एकमात्र नेता हैं और यह बात उनके पिता के ज़माने के नेता जितनी जल्दी समझ जाएं वह उनके हित में होगा.