सम्पादकीय

आखिर बढ़ती महंगाई और गिरते रुपये का तोड़ क्यों नहीं मिल रहा देश को?

Gulabi Jagat
14 May 2022 6:46 AM GMT
आखिर बढ़ती महंगाई और गिरते रुपये का तोड़ क्यों नहीं मिल रहा देश को?
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भारत की खुदरा महंगाई दर अप्रैल 2022 में 8 साल के पीक पर पहुंच गई है
प्रवीण कुमार |
भारत की खुदरा महंगाई दर (Retail Inflation Rate) अप्रैल 2022 में 8 साल के पीक पर पहुंच गई है. गुरुवार को जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) आधारित खुदरा महंगाई दर अप्रैल में बढ़कर 7.79 फीसदी हो गई. यह लगातार चौथा महीना है, जब महंगाई दर आरबीआई (RBI) की 6 फीसदी की ऊपरी लिमिट के पार रही है. फरवरी 2022 में रिटेल महंगाई दर 6.07 फीसदी, जनवरी में 6.01 फीसदी और मार्च में 6.95 फीसदी दर्ज की गई थी. एक साल पहले अप्रैल 2021 में खुदरा महंगाई दर 4.23 फीसदी थी. मई 2014 में यह 8.32 फीसदी थी. इसी तरह से डॉलर के मुकाबले रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर 77 के पार पहुंच गया है. आने वाले दिनों में इसके और कमजोर होकर 79 तक पहुंचने की आशंका जताई जा रही है. ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था के नीति-नियंताओं पर सवाल खड़ा होना स्वभाविक है. आखिर बढ़ती महंगाई और गिरते रुपये का तोड़ देश को क्यों नहीं मिल पा रहा है? तो आइए इन दोनों पहेलियों को समझने की कोशिश करते हैं.
आखिर क्यों बेलगाम होती जा रही है महंगाई?
मोटे तौर पर बात करें तो बाजार में महंगाई का घटना और बढ़ना वस्तुओं की मांग एवं आपूर्ति पर निर्भर करता है. वस्तुओं की मांग व्यक्ति की खरीदने की क्षमता पर निर्भर करता है. अगर व्यक्ति के पास पैसे ज्यादा होंगे तो वह ज्यादा चीजें खरीदेगा, ज्यादा चीजें खरीदेगा तो वस्तुओं की मांग बढ़ेगी और उत्पाद की आपूर्ति कम होने के कारण उसकी कीमत बढ़ जाएगी. और इस तरह से बाजार महंगाई की चपेट में आ जाता है. मौजूदा दौर में बाजार आंशिक तौर पर मांग और आपूर्ति के संतुलन को स्थापित नहीं कर पा रहा है जिससे महंगाई बढ़ रही है. लेकिन महंगाई के बेकाबू होने की सबसे बड़ी वजह पेट्रोल, डीजल और एलपीजी, सीएनजी, पीएनजी की कीमतों में भारी वृद्धि है. और इसके पीछे रूस-यूक्रेन युद्ध बड़ी वजह है.
सिर्फ रेपो रेट बढ़ा देने से महंगाई कम नहीं होगी
हालांकि, सरकार अपने स्तर पर महंगाई दर को रोकने का प्रयास कर रही है, लेकिन चूंकि ये प्रयास देरी से शुरू हुई है लिहाजा इसपर लगाम लगने में काफी वक्त लगेगा. हाल में आरबीआई द्वारा रेपो रेट बढ़ाना इसी दिशा में किया गया प्रयास है. आरबीआई द्वारा रेपो रेट बढ़ा देने से बैंकों को आरबीआई द्वारा मिलने वाली उधार राशि पर ब्याज बढ़ जाता है. ब्याज बढ़ने से बैंक भी आम लोगों को दिए जाने वाले उधार का ब्याज बढ़ा देता है. इससे या तो उपभोक्ता बैंक से उधार लेते नहीं या लेते भी हैं तो कम राशि लेते हैं. तो लोगों के पास जब पैसे कम होंगे तो वह खर्च भी कम करेगा. इस तरह से सरकार मांग को कम कर आपूर्ति बढ़ाना चाहती है.
और जैसे ही मांग के मुकाबले आपूर्ति बढ़ेगी, महंगाई का ग्राफ स्वत: नीचे आ जाएगा. क्योंकि कंपनियां वस्तुओं के जल्दी खपत के लिए उनकी कीमतें कम कर देती है. जब वस्तुओं के दाम घट जाते हैं तो आरबीआई रेपो रेट वापस कम कर देती है. लेकिन सरकार का यह प्रयास इसलिए विफल हो रहा है क्योंकि पेट्रोल-डीजल पर सरकारें टैक्स कम करने को राजी नहीं हैं. जब तक पेट्रोल-डीजल की कीमतें नीचे नहीं गिरेंगी, रेपो रेट बढ़ाने से महंगाई कम नहीं होने वाली हैं. क्योंकि डीजल की मूल्यवृद्धि से मालभाड़ा सीधे तौर पर जुड़ा है. मालभाड़ा कम नहीं होगा तो वस्तुओं की कीमतें कम होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है.
निर्यात नीति भी महंगाई के लिए जिम्मेदार
केंद्र सरकार की निर्यात नीति भी बढ़ती महंगाई के लिए जिम्मेदार है. आप गेहूं के उदाहरण से इसे समझ सकते हैं. सरकार अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए निर्यात पर लगातार जोर दे रही है. रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध के लंबा खिंचने की वजह से दुनिया के उन देशों में गेहूं का संकट पैदा हो गया है जहां रूस और यूक्रेन गेहूं की सप्लाई करते थे. ऐसे में भारत इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहता है. डॉलर कमाने के लिए भारत अपनी जरूरतों की परवाह नहीं करते हुए अधिक से अधिक मात्रा में गेहूं का निर्यात करने लगा. कुछ दिन पहले मैगी ने अपने प्रोडक्ट के दाम जिस तरीके बढ़ाए और वह मीडिया की सुर्खियां भी बनीं वह बड़ी मात्रा में गेहूं के निर्यात का ही नतीजा है. आटे की कीमतों में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. बिचौलिए भी सरकार की इस नीति का खूब फायदा उठा रहे हैं.
डॉलर के मुकाबले गिरते रुपये से मचा है हाहाकार
गिरते रुपये को लेकर पूरे देश में हाहाकार मचा है. दो तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं. पहली बात- सरकार जानबूझकर रुपये को गिरने से नहीं रोक रही है और दूसरी बात- देश की अर्थव्यवस्था सरकार के हाथ से निकल चुकी है. सरकार अब इसे संभाले नहीं संभाल पा रही है. कुछ-कुछ सच्चाई दोनों ही बातों में है. कहते हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से उस देश की मुद्रा की चाल तय होती है. अगर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर, अमेरिका के रुपयों के भंडार के बराबर है तो रुपए की कीमत स्थिर रहेगी. कहने का मतलब यह कि हमारे पास डॉलर घटेगा तो रुपया कमजोर होगा और डॉलर बढ़ेगा तो रुपया मजबूत होगा.
कच्चे तेल का आयात महंगा हो गया है. भारत से विदेश जाने वाले लोगों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है. भारत को इसका भुगतान डॉलर में करना पड़ रहा है, लिहाजा डॉलर यानी विदेशी मुद्रा का भंडार कम हो रहा है. अब इस संकट से निपटें तो निपटें कैसे? शायद इसीलिए दुनिया भर की सरकारें और उनके केंद्रीय बैंक कई बार जान-बूझकर अपनी करेंसी को विदेशी मुद्रा के मुकाबले कमजोर रखते हैं. ऐसा कुछ समय के लिए ही होता है. लेकिन कई बार परिस्थितियां ऐसी प्रतिकूल बन जाती हैं कि यह लंबा खिंच जाता है और चाहकर भी हम उसे अपने अनुकूल नहीं कर पाते हैं.
निर्यात बढ़ाने के लिए रुपया गिराने का प्रयोग
अंतरराष्ट्रीय बाजार में आयात और निर्यात का खेल बड़ा ही निराला होता है. कहते हैं कि अगर हम अपने रुपये को गिराते हैं तो दुनिया के देश अपने जरूरत की चीजें भारत से आयात करने में ज्यादा रूचि दिखाते हैं. मान लीजिए भारत से कोई व्यापारी ब्रिटेन को लेदर-बैग का निर्यात करता है. एक दिन अचानक वह ब्रिटिश व्यापारी भारतीय निर्यातक से कहता है- यही बैग मुझे चीन में सस्ता पड़ रहा है. अगर आप दाम कम करें तभी हम इस सौदे को बरकरार रख सकेंगे. लेकिन भारतीय निर्यातक अपनी लागत का हवाला देकर दाम घटाने से मना कर देता है. ब्रिटिश व्यापारी भारत से माल मंगाना बंद कर देता है.
कुछ समय बाद रुपये का मूल्य गिर जाता है फिर वही ब्रिटिश व्यापारी भारतीय निर्यातक से माल मंगाना शुरू कर देता है. दाम पुराना ही है, लेकिन ब्रिटिश व्यापारी को यह सौदा पहले से सस्ता पड़ने लगता है. उसे और नए-नए ऑर्डर मिलने लगते हैं. मतलब यह कि बाहर से आने वाले महंगे डॉलर पर भारतीय निर्यातक को जो नुकसान हो रहा था, उसकी भरपाई व्यापार बढ़ने से हो जाती है. एक्सपोर्ट की मात्रा बढ़ने से पूरी इकनॉमी में असका असर दिखता है. देश का कुल निर्यात बढ़ने लगता है. तो इस रूप में सरकार कुछ वक्त के लिए डॉलर के मुकाबले रुपये को गिराकर निर्यात बढ़ाने का प्रयोग करती है.
व्यापार घाटा बढ़ने से भी गिर रहा रुपया
जब कोई देश बाहर से ज्यादा सामान मंगाता है और कम सामान बाहर भेजता है यानी आयात ज्यादा और निर्यात कम होता है तो व्यापार घाटे में बढ़ोतरी की नौबत आ जाती है. इसे ही नकारात्मक व्यापार संतुलन ( Negative Trade Balance) कहते हैं. घरेलू मुद्रा कमजोर होने से इस मोर्चे पर भी राहत मिलती है. क्योंकि विदेशी मुद्रा महंगी होगी तो उनके लिए भारत का माल सस्ता होगा और भारतीयों के लिए विदेशी माल महंगा. मतलब आयात के मुकाबले निर्यात बढ़ेगा. लेकिन इसमें मुश्किल यह होती है कि जब देश में बाहरी वस्तुओं पर निर्भरता बहुत ज्यादा हो तो आयात बिल एक सीमा से कम नहीं हो सकता.
उदाहरण के तौर पर भारत अपनी जरूरत का 84 फीसदी से ज्यादा कच्चा तेल बाहर के देशों से आयात करता है. इसके अलावा मोबाइल फोन, खाने का तेल, दलहन, सोना-चांदी, रसायन और उर्वरक का भी बड़े पैमाने पर आयात होता है. रुपया कमजोर होने से ये चीजें देश में महंगी हो जाती हैं. लेकिन दूसरी तरफ भारत से बड़े पैमाने पर कल-पुर्जे, चाय, कॉफी, गेहूं, चावल, मसाले, समुद्री उत्पाद, मीट जैसे सामान का निर्यात होता है. ऐसे में रुपया कमजोर होने से निर्यात बढ़ जाता है.
ज्यादा निर्यात का मतलब ज्यादा डॉलर की आमद. ऊपर से महंगा डॉलर देश के अंदर आकर ज्यादा रुपया बन जाता है. लेकिन चूंकि मौजूदा दौर में कच्चे तेल के खेल में भारत इस रूप में फंसा है कि चाहकर भी इसके आयात को सरकार कम नहीं कर सकती. डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने की यह सबसे बड़ी वजह है और निकट भविष्य में इस संकट से निपटना सरकार के लिए बड़ी अग्निपरीक्षा जैसी है.
विदेशी मुद्रा भंडार के चक्कर में बिगड़ा खेल
दरअसल, भारत में रुपये का मूल्य सरकार तय नहीं करती है. यह पूरी तरह से फॉरेन एक्सचेंज मार्केट के हवाले होता है. बाजार में महंगाई की तरह मुद्रा बाजार में भी डिमांड और सप्लाई की हालत इसकी कीमत को तय करती है. पिछले कई महीनों से आरबीआई बड़े पैमाने पर डॉलर की खरीददारी कर रहा है. वह जितना ज्यादा डॉलर खरीदेगा, रुपये पर दबाव बढ़ता जाएगा और वह नीचे गिरेगा. ताजा आंकड़ों के अनुसार, असल में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 600 अरब डॉलर से कम हो गया है. आरबीआई के कुल ऐसेटे्स में विदेशी मुद्रा की हिस्सेदारी करीब तीन चौथाई होती है. दिसंबर 2021 के शुरू में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 636.90 अरब डॉलर था.
आमतौर पर विदेशी मुद्रा भंडार में निर्यात, बाहर से शेयरों और म्यूचुअल फंड में निवेश, पर्यटन सहित कई स्रोतों से इजाफा होता है. लेकिन जब आरबीआई बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा खरीदने लगता है तो इसे कृत्रिम इजाफे के तौर पर देखा जाता है और इससे देसी मुद्रा कमजोर होने लगती है. इसी तरह से आरबीआई जब विदेशी मुद्रा की बिकवाली शुरू करता है, तब रुपया मजबूत होने लगता है. जानकारों का मानना है कि अगर आरबीआई ने अभी खजाने में जमा डॉलर बेचना शुरू नहीं किया तो दिसंबर के अंत तक रुपया 80 के स्तर को छू जाएगा. रुपये को कंट्रोल करने का दूसरा और पारंपरिक टूल है ब्याज दरें बढ़ाना. हाल में आरबीआई ने अपने रेपो रेट को बढ़ाकर संतुलन बनाने की कोशिश की है लेकिन इतनी जल्दी सुधार की उम्मीद कम ही है.
बहरहाल, बात महंगाई के बढ़ने की हो या फिर डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये की, देश के लिए दोनों ही परिस्थिति मुश्किल भरी हैं और खास बात यह है कि दोनों ही परिस्थितियों के लिए कच्चा तेल और रूस-यूक्रेन युद्ध है. लेकिन सरकार को इन दोनों परिस्थितियों से निपटने के लिए देश की अर्थव्यवस्था के आंतरिक मोर्चे पर जो काम करने चाहिए थे, कहीं न कहीं चूक रही है. महंगाई पर लगाम लगाने के लिए पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर तत्काल प्रभाव से टैक्स कटौती करनी चाहिए थी लेकिन इसपर न तो केंद्र सरकार कोई पहल कर रही और न ही राज्य सरकारें. जहां तक रुपये के कमजोर पड़ने की बात है तो अगर या कृत्रिम गिरावट है तो यकीन मानिए सरकार इसको लेकर सही वक्त पर सही कदम उठाएगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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