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सम्पादकीय
आखिर पांच प्रतिशत शिक्षित, बुद्धिमान लिबरल्स हमेशा इतिहास के एक गलत पक्ष के साथ क्यों खड़े होते हैं?
Gulabi Jagat
30 March 2022 8:42 AM GMT
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पहला मामला है हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्णय और दूसरा है फिल्म कश्मीर फाइल्स
मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:
हाल ही के दो विवादास्पद और चर्चित मामलों पर एक नजर डालें। पहला मामला है हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्णय और दूसरा है फिल्म कश्मीर फाइल्स। इन दोनों ही मामलों में आपने पाया होगा कि जनमत का विभाजन 80:20 के अनुपात में था। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान जब योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि चुनाव का निर्णय 80:20 के आधार पर होगा तो वे साम्प्रदायिक बात नहीं कर रहे थे।
बहुतों को लगा कि योगी यूपी के 20 प्रतिशत मुस्लिमों की बात कर रहे हैं, जो भाजपा के विरुद्ध एकजुट होकर वोट डालते हैं। लेकिन वास्तव में योगी यह कहना चाह रहे थे कि कुछ विशेष मामलों पर भारतीयों के बीच 80:20 की विभाजक-रेखा दिखलाई देती है। यूपी में योगी को अच्छी तरह पता था कि भाजपा का वोट-शेयर 45 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ेगा। ऐसा ही हुआ भी। 2017 के विधानसभा चुनावों की तुलना में इस बार यूपी में भाजपा के वोट शेयर में मात्र 2 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
योगी जानते हैं कि चुनावों में हिंदुओं के वोट बंट जाते हैं। अगर भारत के सभी हिंदू- यानी 80 प्रतिशत आबादी- एकजुट होकर भाजपा को वोट दें तो उसे हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से जीत मिलेगी। लेकिन जहां मुस्लिम एकजुट होकर वोट डालते हैं, वहीं हिंदुओं के वोट जाति, क्षेत्र, भाषा और विचारधारा के आधार पर बंटे हुए होते हैं। ऐसे में 80:20 के अनुपात का क्या मतलब होता है?
तब इसका यही मतलब निकलता है कि एक तरफ भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से का जनमत है, दूसरी तरफ आत्मघोषित हिंदू लिबरल्स की एक अल्पसंख्या है, जो निरंतर उन मामलों का सपोर्ट करते हैं, जो भारत के राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध होते हैं। हिजाब मामले पर अंतिम निर्णय तो सर्वोच्च अदालत को देना है, लेकिन समाज पहले ही इस पर अपना फैसला सुना चुका है। इस फैसले में भी आपको 80:20 का वही विभाजन दिखलाई देता है।
लगभग सभी मुसलमानों- जो कि भारत की आबादी का 15 प्रतिशत हैं- ने एक शैक्षिक संस्थान में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने के अधिकार का समर्थन किया है। यह स्थिति तब है, जब उस शैक्षिक संस्थान में विद्यार्थियों के लिए एक निर्धारित ड्रेसकोड है, जो किसी भी धर्म को प्रदर्शित करने वाली वेशभूषा की अनुमति नहीं देता। इसमें पगड़ियों को छूट दी गई है, क्योंकि जहां वह सिखों के धर्म का एक अभिन्न अंग है, वहीं वह चेहरे को नहीं ढांकती है।
लेकिन क्या सिखों को भी कक्षाओं में कृपाण ले जाने की अनुमति दी जाएगी? नहीं। या क्या हिंदू छात्र वैसे भगवा वस्त्र पहनकर कक्षाओं में आ सकते हैं, जैसे योगी आदित्यनाथ पहनते हैं? इसका जवाब भी वही होगा- नहीं। इसके बावजूद शैक्षिक संस्थानों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने का समर्थन कौन हिंदू कर रहे हैं? वही बामुश्किल 5 प्रतिशत लोग, जो स्वयं को लिबरल्स कहते हैं। जबकि वे हैं नहीं।
वास्तविक लिब्रलिज़्म तो प्रगतिशील और सहिष्णु होता है। लेकिन उन 20 प्रतिशत (15 प्लस 5) का उदारवाद न तो प्रगतिशील है न ही सहिष्णु है। वे एक ऐसी पिछड़ी हुई परम्परा को पोषित करना चाहते हैं, जो एक मुस्लिम लड़की की पहचान को छुपाती है और उसे पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे का साबित करती है। यह असहिष्णुता है, क्योंकि यह न केवल सांस्थानिक नियमों का उल्लंघन है, बल्कि कर्नाटक हाईकोर्ट के निर्णय की भी अवमानना है।
वैसा करते समय इस बात की भी अनदेखी कर दी जाती है कि तीन न्यायाधीशों की जिस खण्डपीठ ने यह निर्णय सुनाया, उसमें एक मुस्लिम जज भी थे और इसके बावजूद निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया था। वास्तव में ये पांच प्रतिशत लिबरल्स अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद आज निष्प्रभावी हो चुके हैं। अब जरा दूसरे चर्चित मामले को देखें : विवेक अग्निहोत्री की फिल्म कश्मीर फाइल्स।
इस फिल्म की सनसनीखेज कामयाबी ने बॉलीवुड के शीर्ष निर्देशकों, अभिनेताओं और निर्माताओं को शर्मसार कर दिया है। अनेक दशकों से बॉलीवुड केवल खूबसूरत वादियां दिखाने के लिए कश्मीर में शूटिंग करने जा रहा था। कश्मीर की समस्याओं पर कुछ फिल्में बनाई भी गईं तो उनमें कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को छुपा दिया गया।
विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर के लेखक तो वे बशारत पीर थे, जो घाटी में भारत विरोधी बयानों के लिए चर्चित हैं। लेकिन कश्मीर फाइल्स की सफलता ने एक बार फिर भारतीय समाज के उस 80:20 के विभाजन को उजागर कर दिया है। देश के बहुसंख्यकों की संवेदना विनम्र, शांतिपूर्ण और सुशिक्षित कश्मीरी पंडितों के साथ है, जिन्हें पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादियों के द्वारा खदेड़ दिया गया।
वहीं शेष 20 प्रतिशत का मत है कि फिल्म तथ्यपूर्ण नहीं है। अगर 15 प्रतिशत अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों के साथ सहानुभूति नहीं रख पाते तो समझा जा सकता है। लेकिन 5 प्रतिशत लिबरल हिंदुओं के साथ क्या समस्या है? क्या वे सही और गलत के बीच भेद करना भी भूल चुके हैं? क्या कारण है कि वे हमेशा इतिहास के एक गलत पक्ष के साथ खड़े होते हैं?
प्लासी की लड़ाई में भी हिंदू सेठों के पैसों से ही मीर जाफर को घूस खिलाई गई थी और उसने नवाब सिराजुद्दौला के साथ दगाबाजी की थी। इसी के साथ 190 साल लम्बे ब्रिटिश राज की शुरुआत हुई, जिसने एक समृद्ध देश को गरीब बना दिया। इससे भी बुरी बात यह हुई कि उस घटना के बाद देश में एक ऐसी औपनिवेशिकतावादी प्रजाति का जन्म हुआ, जो तब से अब तक भारत के राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध काम करती आ रही है।
यह फिल्म पहले क्यों नहीं बनाई जा सकी?
कश्मीर फाइल्स की सनसनीखेज कामयाबी ने बॉलीवुड के शीर्ष निर्देशकों, अभिनेताओं और निर्माताओं को शर्मसार कर दिया है। वे चुप्पी साधे हुए हैं। अनेक दशकों से बॉलीवुड केवल खूबसूरत वादियां दिखाने कश्मीर में शूटिंग करने जा रहा था। कश्मीर की समस्याओं पर कुछ फिल्में बनाई भी गईं तो उनमें कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को छुपा दिया गया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Tagsकर्नाटक
Gulabi Jagat
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