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सम्पादकीय
आखिर अमेरिका ने वैक्सीन के लिए कच्चा माल देने का फैसला करने में इतनी देरी क्यों लगाई?
Tara Tandi
27 April 2021 5:22 AM GMT
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भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवान से हुई हालिया बातचीत के बाद अमेरिका ने भारत को कोरोना रोधी वैक्सीन बनाने के लिए आवश्यक कच्चा माल उपलब्ध कराने की मंजूरी दे दी है।
जनता से रिश्ता वेबडेसक | विवेक ओझा। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवान से हुई हालिया बातचीत के बाद अमेरिका ने भारत को कोरोना रोधी वैक्सीन बनाने के लिए आवश्यक कच्चा माल उपलब्ध कराने की मंजूरी दे दी है। दरअसल पिछले कुछ समय से एक दुविधा का माहौल बना हुआ था कि क्या अमेरिका भारत को इसके निर्यात के लिए तैयार होगा? इस तरह की दुविधा का माहौल बनने के पीछे कई कारण भी थे। कुछ देर से ही सही, किंतु अब यह दुविधा खत्म हो गई है।
आखिर अमेरिका ने वैक्सीन के लिए कच्चा माल देने का फैसला करने में इतनी देरी क्यों लगाई? यहां समझने की जरूरत है कि जो अमेरिका भारत का सबसे मजबूत सामरिक, आर्थिक और रक्षा साझेदार माना जाता है वह हमें बीच बीच में असहज क्यों करता रहता है। भारत और अमेरिका की दोस्ती चाहे जितनी मजबूत कही जाए, एक प्रश्न तो स्वाभाविक रूप से उठता है कि अमेरिका कभी भारतीय कंपनियों पर बौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघन और चोरी का आरोप लगाकर अपने स्पेशल 301 रिपोर्ट में भारत को 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' की सूची में रख देता है।
अमेरिका स्वयं जारी करने वाली अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा सूचकांक में भारत को आखिरी पायदान पर रखता है। कभी मानव दुव्र्यापार और बाल श्रम के आरोप में टियर टू श्रेणी के देशों में भारत को सूचीबद्ध कर देता है। र्धािमक स्वतंत्रता रिपोर्ट में भारत को अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करने वाला देश घोषित करने पर तुल जाता है तो कभी अपनी रिपोर्ट में भारत को करेंसी मैनिपुलेटर का टैग देने लगता है। कभी भारत के अनन्य र्आिथक क्षेत्र में 'फ्रीडम ऑफ नेविगेशन' के नाम पर पेट्रोलिंग करने लगता है और कभी वीजा प्रतिबंध संबंधी उपायों के जरिये भारत को असहज करने की कोशिश करता है। इन सबके पीछे अगर कारण खोजें तो अमेरिका के मन की दो पीड़ाओं को देखा जा सकता है।
पहला, भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिका को होने वाला घाटा जिसे भरने के लिए अमेरिका पिछले कुछ वर्षों से भारत से अपनी वस्तुओं और सेवाओं के लिए बड़े पैमाने पर बाजार पहुंच सुनिश्चित कराना चाहता है। अमेरिका चाहता है कि भारत अमेरिकी उत्पादों पर प्रतिबंध या उस पर लगी भारी ड्यूटी को खत्म करे या उसमें बड़े स्तर पर कटौती करे। चूंकि भारत ने ऐसा नहीं किया है, लिहाजा अमेरिका की नाराजगी बनी रहती है। चूंकि अभी कोरोना महामारी का दौर है इसलिए अमेरिका द्विपक्षीय र्आिथक संबंधों में खुद को हो रहे नुकसान के सवाल को खुलकर नहीं उठा रहा है, लेकिन वह भारत को चेक एंड बैलेंस करने के इरादे से भरा है और ऐसा हाल में उसकी कई गतिविधियों से पता चला है जिसमें उसने भारत को असहज करने की कोशिश की।
बहरहाल द्विपक्षीय आर्थिक, सामरिक और प्रतिरक्षा संबंधों को दोनों देश आगे दुरुस्त करते रहेंगे, क्योंकि यह सर्वविदित है कि भारत को अनेक स्तरों पर अमेरिका की बहुत अधिक जरूरत है जिसे अमेरिका नजरअंदाज नहीं कर सकता। दूसरा प्रमुख कारण जिससे अमेरिका द्वारा भारत को प्रतिसंतुलित करने का प्रयास किया जाता है, वह यह है कि तेजी से बदल रही वैश्विक व्यवस्था में अमेरिका कुछ देशों से अपने संबंधों का अधिक बिगाड़ नहीं चाहता। चीन को भले ही अमेरिका का एक बड़ा दुश्मन कहा जाए, किंतु चीन का रूस और ईरान के नजदीक जाना अमेरिका सहन नहीं कर सकता। उसे चीन से अपने व्यापारिक संबंधों को भी देखना है।
इसलिए एक तरफ जहां क्वाड और मालाबार सक्रियता के जरिये वह चीन को प्रतिसंतुलित करने का काम करता है, तो वहीं दूसरी तरफ गैर व्यापारिक अवरोधों यानी नॉन टैरिफ बैरियर जैसे मानवाधिकार उल्लंघन, अल्पसंख्यक अत्याचार, बौद्धिक संपदा चोरी और पर्यावरणीय मानकों का उल्लंघन करने जैसे तमाम आरोपों के जरिये भारत को भी प्रतिसंतुलित करने की कोशिश करता है। ऐसा करते हुए अमेरिका, चीन समेत आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के सदस्य देशों यानी पाकिस्तान समेत अरब देशों को भी यह संकेत देता रहता है कि वह एकतरफा भारत के साथ नहीं है या अनन्य रूप से वह केवल भारत को ही सहयोग करने वाला नहीं है। इसे ही यथार्थवादी विदेश नीति का तकाजा माना जाता है। भारत को भी अपने राष्ट्रीय हितों के लिए व्यावहारिक कूटनीतिक कदम उठाते रहने होंगे।
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