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आज यह बड़ा बुनियादी सवाल है कि हिंदी को किससे खतरा है? अगर लोकप्रिय भाषा में कहें
उदय प्रकाश। आज यह बड़ा बुनियादी सवाल है कि हिंदी को किससे खतरा है? अगर लोकप्रिय भाषा में कहें, तो पुराना मुहावरा है कि खरबूजे को चाकू से खतरा है या चाकू को खरबूजे से। वास्तव में मानव सभ्यता के हर दौर में दो चीजें हमेशा रही हैं। पहली है, व्यवस्था और दूसरी है, व्यवस्थित। भाषा और समाज, दोनों पर यह बात एक ही प्रकार से लागू होती है और जिस व्यवस्था के तहत हम अभी नागरिक हैं, ठीक उसी के समानांतर हम भाषा की व्यवस्था द्वारा अनुशासित हैं। सवाल यह है कि किसको खतरा है। नागरिक समाज से राजनीतिक व्यवस्था को या राजनीतिक व्यवस्था से नागरिक समाज को खतरा है? यानी भाषा की जो व्यवस्था है, उससे भाषा का व्यवहार करने वालों को खतरा है या जिस भाषा का हम व्यवहार करते हैं, उसे खतरा है।
वैसे तो हिंदी बनी ही बहुत बाद में है और मूल रूप से इसका जो स्वभाव है, यूरोपीयन या परसियन है। यह भी माना जाता है कि जब से हमारा पश्चिम से संपर्क हुआ, तब से यहां की संस्कृति पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में तो हम सीधे इंग्लैंड के उपनिवेश में रहे, तो उसका भी स्वभाव हममें आया। आज हम ग्लोबल हैं, तो उसका असर लगातार देख रहे हैं। समय के साथ भाषा बदलती ही है। पाली एक समय बहुत सशक्त भाषा थी, पर आज उसका कितना असर बचा है? और अब तो हाइब्रिड का समय है। आज अखबार की भाषा ही देख लीजिए, क्या वह वही है, जो आज से बीस-तीस साल पहले थी। एक तरह से देखें, तो दरअसल हिंदी को खतरा है नहीं, हिंदी लगातार बढ़ती चली जा रही है। हिंदी को बनाने-बढ़ाने में जिनका योगदान रहा है, उन कारकों को हर कोई जानता है। फिल्म, मनोरंजन, रंगमंच का बड़ा योगदान रहा है। हिंदी को विमर्श की भाषा बनाने के लिए जो अभिजात्यवाद आना चाहिए, वह अभी नहीं है। यहां भी एक समस्या है कि हिंदी भाषा का कोई अभिजात्य हो नहीं सकता। ग्रामीण परिवेश में तो आप कह सकते हैं कि कुछ परिवार शिक्षित हुए और ग्रामीण अभिजात्य खड़ा हुआ। लेकिन अगर आप बड़े स्तर पर देखें, तो इस महानगर में भी कौन-सा अभिजात्य है, जो हिंदी बोलकर अंग्रेजी अभिजात्य से मुकाबला कर सकता है?
कहीं न कहीं हिंदी अभी दो-चार स्तरों पर जूझ रही है। कई बार मैं बोलता हूं कि जो अंग्रेजी का प्रोफेसर है, वह हिंदी का पक्ष लेता है और जो हिंदी का लेखक है, वह अंग्रेजी की वकालत करता है। जीवन यापन या नौकरी के लिए या सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए कहीं न कहीं अंग्रेजी बड़ा माध्यम है। एक और खतरा है, हिंदी में जब आप आएंगे, तो अनेक विवादों में पड़ेंगे।
बाकी बाजार से हिंदी को कोई खतरा नहीं है। बाजार की वजह से ही इस भाषा का जन्म हुआ। इसकी जो बहुलता बनी, शब्द भंडार बने, इसका व्याकरण जिस तरह शिथिल हुआ और जैसे इसका दायरा बढ़ा, सबमें बाजार की भूमिका बुनियादी रही। के दामोदरन जैसे लेखकों ने यह भी पाया है कि भारत में पूरा जो आंदोलन हुआ, जिसे भक्तिकाल कहते हैं, वह बाजार के आने के साथ हुआ। बाजार आया और मोची, जुलाहे, बढ़ई इत्यादि सबको लगा कि हमें एक विकल्प मिल गया और सामंती व्यवस्था को तोड़कर उन्होंने एक तरह से फक्कड़ता और साहस का परिचय दिया। साथ ही, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे भक्तिकाल का साहित्य ही सबसे समृद्ध है। आज भी मुझे बाजार और सरकार में से चुनना हो, तो बाजार को ही चुनूंगा, क्योंकि बाजार तक ही मेरी पहुंच है।
हमें कुछ चीजों को ध्यान में रखना चाहिए, जैसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय है। वह कोशिश करता है कि भाषा में एकरूपता बने, लेकिन यही बात रचना पर नहीं लागू की जा सकती। क्योंकि रचना कभी किसी प्रशासनिक कार्य के लिए नहीं होती, वह तो अपने समय के यथार्थ व परिवर्तनों को प्रकट करती है। आज व्यवहार के स्तर पर देखें, तो हिंदी बोलने वालों की बहुत बड़ी संख्या है, लेकिन अगर आप उन्हें निदेशालयों, आयोगों के अनुसार बांधना चाहेंगे, तो संभव नहीं हो पाएगा।
आखिर शुद्ध हिंदी वाले साहित्यकारों को वह लोकप्रियता नहीं मिल पाई है, जो गुलजार या नसीरुद्दीन शाह जैसी हिंदी बोलने वालों को मिली। कुछ तो कारण है कि यह जनता से कटी हुई सीमित वर्ग की भाषा है। यह अपने स्वभाव में ही अभिजात्य नहीं है। यहां यह जरूर कहना चाहिए कि जब तक देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियां नहीं सुधरेंगी, जब तक बहुत बड़े स्तर पर भाषा की गरीबी इसी तरह कायम रहेगी और हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनी रहेगी। प्रदेश या देश जब समृद्ध होता है, तब उसकी भाषा भी सशक्त होती है। एक समय रूस में फ्रेंच बोलने वालों को अभिजात्य माना जाता था और रसियन बोलने वाले गंवार समझे जाते थे, लेकिन जब रूस में संपन्नता आई, तो रसियन भाषा को यथोचित सम्मान हासिल हुआ।
भाषा के प्रति अपने स्वभाव में उदारता भी जरूरी है। हिंदी के साथ क्षेत्रीय भाषाओं का भी अपना स्वरूप है। मैं जहां जन्मा, छत्तीसगढ़ की सीमा पर, हम सब बहुभाषी थे। पिता बघेली बोलते थे, मां भोजपुरी और गांव के बच्चे छत्तीसगढ़ी, तो तीनों भाषाएं साथ आईं। स्कूल गए, तो खड़ी बोली सीखने लगे, यह अर्जित भाषा थी। ध्यान रखना होगा, स्कूलों या शिक्षा द्वारा आप एक सीमित शिक्षित अभिजात्य तबका तो तैयार कर सकते हैं, लेकिन बड़ी संख्या में फिल्म या लोकरंजन, विज्ञापन तक आप उसे कैसे ले जाएंगे? यह तो हाइब्रिड दौर है। शोध करना है, मोबाइल चार्ज करना है, ईएमआई जमा करना है, तो अंग्रेजी से गुजरना ही होगा। खतरा भाषा को नहीं है, वह तो बहता नीर है। नदी है, उसे रोकेंगे, तो वह समाप्त होगी। तीन-तीन लाख आबादी वाले समुदायों की भाषा में लिखने वाले लेखक पूरी दुनिया के महान लेखक हो गए, लेकिन 70 करोड़ से भी ज्यादा लोगों की भाषा हिंदी में हम एक टैगोर पैदा नहीं कर पाए हैं, हमें सोचना चाहिए। यहां आपस की मार-काट इतनी क्यों है? धर्मवीर भारती ने विमल मित्र से कहा था, जो कंकड़ फेंकोगे गड्ढे में, तो कीचड़ उछलकर ऊपर आएगा और अगर बड़ा सरोवर होगा, तो उसमें कंकड़ फेंकोगे, तो बहुत बड़े-बड़े वृत्त बनेंगे। तो सरोवर बड़ा होना चाहिए और भारत एक बड़ा सरोवर ही है।
Rani Sahu
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