सम्पादकीय

आखिर हम नया साल ले ही आए

Rani Sahu
3 Jan 2022 7:16 PM GMT
आखिर हम नया साल ले ही आए
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जिस अधूरी इच्छा को लेकर देशवासियों ने पिछले 75 सालों से अपनी-अपनी इबादतगाहों में अपने-अपने भगवानों की चौखट पर अपने माथे रगड़-रगड़ कर लहूलुहान कर दिए थे

जिस अधूरी इच्छा को लेकर देशवासियों ने पिछले 75 सालों से अपनी-अपनी इबादतगाहों में अपने-अपने भगवानों की चौखट पर अपने माथे रगड़-रगड़ कर लहूलुहान कर दिए थे, उसे देश के प्रथम प्रधान मंत्री पिछले सात सालों की अपनी अनथक बतोलीबाज़ी, फैशनपरस्ती, फोटोशूट और तु़गलकी ़फैसलों की बदौलत पूरा करने में आ़िखरकार कामयाब हो गए। यह उनके अथक प्रयासों का ही नतीजा है कि आ़िखरकार पचहत्तर सालों के इंतज़ार के बाद वर्ष 2022 आ ही गया। भला आता भी क्यों न? बुज़ुर्गों ने कठिन परिश्रम को ही सफलता की कुँजी बताया है। यह बात दीगर है कि बतोले बाबा की कुँजी भले ही कोई ताला न खोल पाए। लेकिन देशवासी उनके सामने नतमस्तक हैं और उनका धन्यवाद करते नहीं अघा रहे। उधर, नया साल आते ही पूरी धमक के साथ देश के आँगन में ओमीक्रोन के साथ भँगड़ा-नाटी डालते हुए रंगरलियाँ मनाने में मस्त हो चुका है। यह तो सरकार की नेकनीयती है कि उसने अभी तक दिन में 18-18 घंटे काम करने की अपनी आदत को और कठोर नहीं बनाया है। नहीं तो डर यह भी था कि कहीं सरकार सोना ही बंद न कर दे।

ऐसे में उत्तम प्रदेश सहित अन्य राज्यों में आसन्न आम विधानसभा चुनाव इस माह के अंत तक करवाने पड़ सकते थे। जब केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने संगठित ईमानदारी की मिसाल पेश करते हुए घातक कोविड-19 के डेल्टा वेरियंट के संक्रमण काल के दौरान भी अपना दोगलापन और मसखरापन नहीं छोड़ा तो ओमीक्रोन जैसे ह्यूमन फ्रैंडली वेरियंट के घोर संक्रमण के दौरान चुनावी रैलियों पर लगाम लगाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? वैसे भी ओमीक्रोन जैसी पवित्र आत्मा, जिसके नाम में ही ओम छिपा है, से क्या डरना? वैसे भी ओमीक्रोन से प्रभावितों के मरने की संख्या इतनी नगण्य है जिसे सत्ता जैसे परम मोक्ष के लिए आसानी से नकारा जा सकता है। इसके नकारने से ही सत्ताधीशों को मकार अर्थात् तंत्रोक्त पाँच पदार्थों यथा मद्य, मांस, मत्स्य, मैथुन और मुद्रा जैसे महा रत्नों की प्राप्ति हो सकती है। वैसे भी नकार और मकार में केवल अक्षर का ही भेद है। अब चुनाव तो समय पर ही होने चाहिए। यूँ भी गीता सहित सभी धर्मग्रंथों में आत्मा को अजर-अमर बताया गया है। मरता केवल शरीर है। आत्मा अर्थात् ऊर्जा भले ही रूप बदल ले लेकिन कभी कम या ज़्यादा नहीं होती। गीता तो वैसे ही उसके नष्ट होने की किसी संभावना को ठोक बजाकर इऩ्कार करती है।
आईंस्टीन बाबा भी इसी सत्य को सिद्ध करने के बाद ही महाप्रयाण पर निकले थे। अगर चुनाव समय पर होंगे तभी सत्ता समय पर दोबारा मिलेगी या हंस्तारित होगी। वैसे भी लोकतंत्र की चक्की के पाटों को समय पर नहीं फेरने से उनके जाम होने का ़खतरा बना रहता है। जहां तक विपक्ष का प्रश्न है, उसे तो बस बोलने के लिए ही बोलना है ताकि पब्लिक में उसके ज़िन्दा होने का एहसास बना रहे। अब उत्तम प्रदेश में इत्र बेचने वालों पर बिना किसी भेदभाव से मारे गए छापों को विपक्ष मुद्दा बनाए तो इसमें केन्द्र या राज्य सरकार का क्या दोष? उन्होंने तो मात्र पी अक्षर का सुरा़ग दिया था। फिर सरकारी एजेसिंयों द्वारा़गलत आदमी पर छापा मारने से चुनावों के लिए जुटाए जाने वाले फंड का नु़कसान साईकिल को हो नहीं उपयोगी सरकार को भी झेलना पड़ा है। पर यह सब तो इत्र की ़खुशबू को फैलने से रोकने के लिए ज़रूरी था। जहां तक हेट का प्रश्न है, वह निर्बाध फैलनी चाहिए। यह सुनिश्चित होने पर ही चुनावी बिसात में ज़ात-पांत, धर्म-मज़हब, हिन्दू-मुस्लिम, स्वर्ण-दलित व़गैरह के मोहरे बिछाए जा सकते हैं। अगर प्रधान मंत्री दिन-रात अठारह-अठारह घंटे परिश्रम न करते तो क्या नोटबंदी सफल हो सकती थी? बिलकुल नहीं। छापे में पकड़ी गईं कई करोड़ों की गड्डियों में दो-दो हज़ार के नोट चीख-चीख कर नोटबंदी की उपयोगिता ही तो साबित कर रहे हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Rani Sahu

Rani Sahu

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